धधकती ज्वालामुखी की तरह था बाल गंगाधर तिलक का समूचा व्यक्तित्व
बाल गंगाधर तिलक समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, पत्रकार और भारतीय इतिहास के विद्वान थे। वह लोकमान्य नाम से मशहूर थे। तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में हुआ था।
भारत की आजादी के लिये मिट्टी से लोहपुरुषों यानी सशक्त, शक्तिशाली एवं राष्ट्रभक्त इंसानों का निर्माण करने का श्रेय जिस महापुरुष को दिया जाता है, वह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, जो स्वतंत्रता आंदोलन के समय देश की आशाओं के प्रतीक बने। उनके विचारों और कार्यों ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा देने में अग्रिम भूमिका निभाई। उन्होंने ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा’ का नारा देकर लाखों भारतीयों को प्रेरित, संगठित और आन्दोलित किया। तिलक व्यक्ति-प्रबंधन कैसे करते, किस तरह आजादी के लिये हर भारतीय के मन में आन्दोलन की भावना भरते, मनुष्यों को कैसे पहचानते थे और सशक्त-आजाद भारत के लिये बृहत्तर आन्दोलनों के लिये कैसे उनके योगदान को प्राप्त करते थे, वह अपने आपमों विस्मय और अनुकरण का विषय है, उसी का अनुकरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तिलक के सपनों का भारत बना रहे हैं।
भारतीय आजादी संघर्ष इतिहास के दौर में कुछ मुट्ठी भर ही ऐसे लोग थे, जिन्होंने आजादी के लिये नई लकीरें बनाई। उन्होंने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीते हुए आजादी दिलाने की विलक्षण यात्रा पूरी की। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जीवन इसका अपवाद नहीं है। यह महान् क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी अपने वजूद के रेशे-रेशे में, अपनी सांस-सांस में आजादी की सिहरन को जीता रहा। शायद इसीलिये उनका हर कृत, हर विचार और हर चरण हमें आजादी के करीब ले गया। उनको याद करने के अनेक कारण है, अनेक दृष्टिकोण है, अनेक आयाम हैं। आम भारतीय उन्हें इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने गणेश उत्सव की शुरुआत की थी। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की ऐसी अद्भुत एवं क्रांतिकारी कड़ी हैं, जिसके बिना हम उस इतिहास की कल्पना ही नहीं कर सकते। तिलकजी का समूचा व्यक्तित्व धधकती ज्वालामुखी की तरह था। जिस तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का जयघोष किया और वह पूरे देश का कण्ठहार बन गया, उसी तरह तिलक ने स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना कर उसे सब का अधिकार बना दिया, जन-जन की आवाज बना दिया।
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तिलक समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, पत्रकार और भारतीय इतिहास के विद्वान थे। वह लोकमान्य नाम से मशहूर थे। तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में हुआ था। तिलक के पिता श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक संस्कृत के विद्वान और प्रसिद्ध शिक्षक थे। तिलक एक प्रतिभाशाली छात्र थे। वह अपने कोर्स की किताबों से ही संतुष्ट नहीं होते थे। गणित उनका प्रिय विषय था। वह क्रेम्बिज मैथेमेटिक जनरल में प्रकाशित कठिन गणित को भी हल कर लेते थे। तिलक का मानना था कि अच्छी शिक्षा व्यवस्था ही अच्छे नागरिकों को जन्म दे सकती है।
तिलक भारतीय पत्रकारिता के आदर्श थे। उनकी पत्रकारिता भारत की आजादी एवं नये भारत के निर्माण की पत्रकारिता थी। वे राष्ट्रीयता, निष्पक्षता एवं निर्भयता की पत्रकारिता के जनक थे। सन् 1881 में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर ‘केसरी’ और ‘मराठा दर्पण’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया था। तब केसरी में तिलक ने साफ-साफ लिख दिया था कि ‘केसरी निर्भयता एवं निष्पक्षता के सभी प्रश्नों पर चर्चा करेगा।’ उन्होंने यह भी लिखा कि ‘ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं है।’ उस समय के जो छोटे-मोटे अखबार निकल रहे थे, उनमें ब्रिटिश सरकार की चाटुकारिता साफ दिखाई देती थी, उसे देखकर तिलकजी व्यथित हुए और यही कारण है कि केसरी के तेवर को समझने के लिए तिलकजी की एक पंक्ति अपने आप में पर्याप्त है, जिसमें वह कहते हैं ‘केसरी के लेख इस के नाम को सार्थक करेंगें।’ उनका आशय यही था कि जिस तरह से शेर गरजता है उसी तरह से केसरी की पत्रकारिता भी गरजेगी। यही हुआ भी। बहुत जल्दी तिलकजी ब्रिटिश शासकों की आंखों की किरकिरी बन गये। तिलक के विचारों से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ समाज में वैचारिक वातावरण भी बनने लगा। आजादी के लिये संघर्ष करने वालों को एक बल मिला, दृष्टि मिली एवं दिशा मिली।
आजादी दिलाने में इन दोनों समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका बनी। तिलक की पत्रकारिता के चार आयाम थे- स्वदेशी अपनाओ, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करना और स्वराज आंदोलन को निरंतर गति प्रदान करना। तिलक सिर्फ आजादी के पक्षधर नहीं थे, वह इस देश में स्वदेशी आंदोलन को भी व्यापक बनाना चाहते थे। वे चाहते थे, देश के कुटीर उत्पादों को महत्व मिले, लोग स्वदेशी उत्पादों का ही अधिकतम उपयोग करें। अंग्रेजों ने अपने देश की वस्तुओं को भारत मे खपाने का सिलसिला शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे लोग उसी के आदी होते चले गए। यानी स्वदेशी वस्तुओं से दूर होने लगे इसलिए तिलक ने स्वदेशी पर पूरा जोर दिया। मैकाले ने अपनी शिक्षा नीति के बल पर इस देश को भ्रष्ट करने की नीति अपनाई, जिसे देखकर तिलक विचलित हुए और राष्ट्रीय शिक्षा की वकालत करने लगे। उन्होंने अपने अखबारों के माध्यम से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान भी किया और जल्दी-से-जल्दी स्वराज मिले, इसके लिए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लगातार लिखने का सिलसिला भी शुरू कर दिया।
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महात्मा गांधी ने तिलक से ही प्रभावित होकर पूरे देश में स्वराज आंदोलन और स्वदेशी आंदोलन विचार को गतिशील किया। गांधी तिलक के समूचे जीवन से बहुत प्रभावित थे। तिलकजी ने गणेश उत्सव, शिवाजी उत्सव आदि जैसे कार्यक्रमों को शुरू किया। आज पूरे देश में गणेशोत्सव मनाने की जो परंपरा प्रचलित है, वह तिलक की ही देन है। दरअसल इस उत्सव के पीछे केवल गणेश वंदना का भाव नहीं था, एक राष्ट्रीय भावना थी कि लोग इसी बहाने नौ दिन एकत्र होंगे और अपनी सांस्कृतिक जीवन शैली को और संपुष्ट करेंगे। तिलक उत्सव के दौरान विभिन्न प्रकार के आयोजन करते थे, जिससे प्रतिभाओं का भी विकास होता था और राष्ट्रप्रेम के साथ ही अपनी सनातन संस्कृति के प्रेम की भावना और प्रगाढ़ होती थी।
तिलक ने प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस द्वारा बम से किए गए हमले का भी समर्थन किया था। अंग्रेज सरकार इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी और तिलकजी को फौरन गिरफ्तार कर लिया। अपनी गिरफ्तारी के बावजूद तिलकजी हताश-निराश नहीं हुए और जेल में ही स्वाध्याय करते हुए मात्र पाँच महीने में नौ सौ पृष्ठों का एक विशाल ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ रच दिया, जेल में उन्हें जो कागज-पेंसिल मिली, उसी के सहारे उन्होंने इस अमर कृति की रचना की। सन् 1914 में जब वे रिहा हुए तो उन्हें तत्काल उनकी पांडुलिपि नहीं मिल सकी। समय बीतता गया, तो उनके चाहने वालों ने तिलकजी से कहा, ‘पता नहीं अब क्या होगा? कहीं आपकी कृति को नष्ट न कर दिया जाय?’ यह सुनकर तिलकजी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘चिंता की कोई बात नहीं। वह पूरा का पूरा ग्रंथ मेरे दिमाग में सुरक्षित है। मैं उसे जैसा का तैसा लिख डालूंगा।’ हालाँकि ऐसी नौबत नहीं आयी। कुछ समय बाद उन्हें पांडुलिपि वापस लौटा दी गई। और 1915 में गीता रहस्य का पहला संस्करण प्रकाशित होकर सामने आ गया।
इस ग्रंथ में उनका यही निष्कर्ष था कि गीता निवृत्तिपरक नहीं है, यह कर्मयोग परक है। यानी गीता हमें पलायन नहीं सिखाती, वह जूझने का संस्कार देती है। गांधीजी ने भी तिलकजी के इस काम की सराहना की। गांधीजी ने कहा था, ‘गीता पर तिलकजी की टीका उनका शाश्वत स्मारक है। स्वतंत्रता के युद्ध में विजयश्री प्राप्त करने के बाद भी वह यथावत बना रहेगा।’ क्रांतिकारी संत अरविंद घोष ने भी कहा था, ‘गीता रहस्य नैतिक शक्तियों का योग्य निदर्शन है।’ बाद में तो गीता रहस्य का अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया।
तिलक छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानते थे। शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र की नींव रखने वाले सर्वशक्तिशाली शासक छत्रपति शिवाजी को हिन्दुओं का अन्तिम महान राष्ट्र निर्माता कहा जाता है। छत्रपति शिवाजी का निर्मल चरित्र, महान पौरूष, विलक्षण नेतृत्व, सफल शासन प्रबन्ध, संगठित प्रशासन, नियन्त्रण एवं समन्वय, धार्मिक उदारता, सहनशीलता, न्यायप्रियता आदि विलक्षण विशेषताओं का असर तिलक पर पड़ा। सारा विश्व पांच वीटो पॉवर वाले शक्तिशाली देशों अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन तथा फ्रान्स द्वारा अपनी मर्जी के अनुसार चलाया जा रहा है। तिलक जैसी महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि यह होगी कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक तथा युवा भारत को एक लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था (विश्व संसद) के गठन की पहल पूरी दृढ़ता के साथ करना चाहिए। संभवतः नरेन्द्र मोदी उसी दिशा में आगे बढ़ते हुए तिलक के सपनों को आकार दे रहे हैं।
- ललित गर्ग
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