The Deoliwallahs | 3000 चीनी नागरिकों को क्यों बना लिया गया था बंदी? | Matrubhoomi

Chinese citizens
Prabhasakshi
अभिनय आकाश । May 9 2024 7:44PM

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट पर साइन किए और इसके तहत किसी भी व्यक्ति को दुश्मन देश के मूल का होने के संदेह पर गिरफ्तार किया जा सकता था। साल 1942 में जब अमेरिका में पर्ल हार्बर हमला हुआ था तो वहां रह रहे करीब एक लाख जापानियों को इसी तरह हिरासत में ले लिया गया था। इतिहास की इस घटना पर 'द देवलीवालाज़: द ट्रू स्टोरी ऑफ द चाइनीज-इंडियन इंटर्नमेंट' नाम से किताब भी लिखी गई है।

कोई भी जब जंग होती है और उस जंग में जब जीत होती है तो उस जंग की कहानियां। उसकी वीरता की कहानियां, उसकी शहादत की कहानियां कई दशकों तक सुनी जाती हैं। लेकिन जब किसी जंग में जब हार हो जाती है तो उस हार की वजहों वाली फाइल के साथ ही वैसी कहानियों को भी दफ्न कर दिया जाता है। एक ऐसी ही कहानी है जो 1962 के भारत चीन युद्ध से जुड़ी हुई है। कुछ ऐसी ही कहानी 1962 के युद्ध के बाद नजरबंद किए गए 3000 भारतीय चीनी नागरिकों की भी है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान और उसके बाद, 3000 से अधिक चीनी कैदियों को राजस्थान के टोंक जिले के देवली में रखा गया था, जो राजधानी जयपुर से 165 दक्षिण में स्थित है। 

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दोस्ताना रिश्ते रखने की तमाम कोशिशों के बावजूद युद्ध 

20 अक्टूबर 1962 की वो तारीख जिस दिन युद्ध की शुरुआत के साथ ही भारत-चीन की तथाकथित दोस्ती का भयावह अंत हो गया। भारत को युद्ध की चुनौती तब मिली जब हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाते हिंदुस्तान थकता नहीं था। भारत को युद्ध में तब झोंका गया जब भारत ने 10 साल पहले ही कोरिया युद्ध में अमेरिका को दरकिनार कर चीन का साथ दिया था। भारत को युद्ध की त्रासदी तब झेलनी पड़ी जब उसने 1949 में जापान के साथ शांति सम्मेलन में इसलिए हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उसमें चीन को नहीं बुलाया गया था। भारत को जंग में तब जाना पड़ा जब वो ताइवान के बजाए चीन को मान्यता देने वाला पहला गैर साम्यवादी देश था। यानी दोस्ताना रिश्ते रखने की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत को एक अनचाहे युद्ध में जाना पड़ा। 

डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट और कैद में चीनी मूल के 3000 नागरिक 

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट पर साइन किए और इसके तहत किसी भी व्यक्ति को दुश्मन देश के मूल का होने के संदेह पर गिरफ्तार किया जा सकता था। साल 1942 में जब अमेरिका में पर्ल हार्बर हमला हुआ था तो वहां रह रहे करीब एक लाख जापानियों को इसी तरह हिरासत में ले लिया गया था। इतिहास की इस घटना पर 'द देवलीवालाज़: द ट्रू स्टोरी ऑफ द चाइनीज-इंडियन इंटर्नमेंट' नाम से किताब भी लिखी गई है। यह पुस्तक महत्वपूर्ण लेकिन पूरी तरह से उपेक्षित विषय पर एकमात्र पुस्तक है, जो उन चीनी-भारतीयों के उस इतिहास पर प्रकाश डालती है, जिन्हें चीन-भारत युद्ध छिड़ने के बाद राजस्थान के देवली में नजरबंद कर दिया गया था। किताब के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि 1962 में भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई थी। तब भारत में रह रहे चीनी मूल के लोगों को शक़ की निगाह से देखा जाने लगा था। इनमें से अधिकतर वो लोग थे जो भारत में पीढ़ियों से रहे थे और सिर्फ़ भारतीय भाषा बोलते थे। यिन मार्श 13 साल की थीं जब उनके पिता को अचानक उनसे अलग कर दिया गया। व्यवसाय की तलाश में अपनी मां के नेपाल जाने के कारण यिन को दार्जिलिंग में अपनी बूढ़ी दादी और अपने आठ वर्षीय भाई की देखभाल अकेले ही करनी पड़ी। इस बात का उन्हें आश्चर्य होता है कि जब वो इधर संघर्ष भरे दिनों से जूझ रही थी फिर बी सौहार्दपूर्ण पड़ोसी देश ने कभी उस तक पहुंचने की कोशिश क्यों नहीं की। मार्श अकेले नहीं थे. आठ वर्षीय मोनिका लियू और उसका परिवार शिलांग में पूरी तरह तैयार थे जब पुलिस उन्हें पकड़ने आई। वे संकेतों को समझते थे और आश्वस्त थे कि वे लंबे समय तक दूर रहेंगे। 

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युद्धबंदियों को रखने के लिए बनाया गया देवली कैंप 

देवली कैंप मूल रूप से 1940 के दशक में युद्धबंदियों को रखने के लिए अंग्रेजों के लिए बनाया गया था। 1947 के बाद 1962 के युद्ध के बाद भारत सरकार ने इसे जेल में बदल दिया। शिविर को पाँच भागों में विभाजित किया गया था और चारों ओर से निगरानी टावरों से घिरा हुआ था। पूरे परिसर को कंटीले तारों से घेर दिया गया था। तथ्य यह है कि कुछ शिविरों में व्यक्तिगत इमारतें थीं जबकि अन्य में 'कैदियों' को बड़े कमरों में रखा गया था, यह बताता है कि सरकार इतनी बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत में लेने के लिए कितनी कम तैयार थी। लियू बताती हैं कि बिना पंखे के 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान में परिवारों को इसकी जरा भी कल्पना नहीं थी कि उनके लिए क्या होने वाला है। मेरे सात लोगों के परिवार को एक दरवाजे और खिड़की वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था। हम उन बोरियों को इकट्ठा करते थे जिनमें राशन आता था और उन्हें पर्दे के रूप में इस्तेमाल करते थे। हमें खुद को ठंडा रखने के लिए उन्हें पानी में भिगोना होता था और और बाहर लटकाना होता था। उन्होंने यह भी याद किया कि कैसे पांच साल से अधिक समय तक शिविर में रहने के दौरान हुई अधिकांश मौतें मुख्य रूप से डायरिया के अलावा हीट स्ट्रोक के कारण हुईं। कैंप में ही मेरा असम का एक दोस्त था। हम साथ खेलते थे. एक दोपहर, कोई हमारे कमरे में दौड़ता हुआ आया और हमें बताया कि वह मर गया है। हमें बाद में पता चला कि गर्मी के कारण उसकी मौत हुई थी। 

ऊंट का मांस परोसा जाता था 

देवली कैंप में रहने वाले एक बंदी यिम मार्श बताती हैं कि मुझे नहीं लगता कि स्टाफ को कभी हजारों लोगों के लिए खाना बनाना पड़ा होगा। चावल और दाल हमेशा अधपके रहते थे। एक समय तो हमें ऊँट का मांस भी दिया जाता था जो सख्त और रबड़ जैसा होता था। हमने मान लिया कि उन्हें एक मरा हुआ ऊंट मिला होगा और उन्होंने इसे हमारे लिए पकाने का फैसला किया होगा। जॉय मा शिविर में पैदा हुए लोगों में से थीं। वो बताती हैं कि हम जुलाई 1967 में शिविर छोड़ने वाले अंतिम व्यक्ति थे। मेरे माता-पिता को हासीमारा लौटने की इजाजत नहीं थी और उन्हें कोलकाता ले जाया गया जहां उनके जीवन के पुनर्निर्माण के लिए कोई संसाधन नहीं दिए गए थे। उन्हें शून्य से शुरुआत करनी थी। 1968 के आसपास शेष प्रशिक्षुओं को राजस्थान शिविर से मुक्त कर दिया गया था। लेकिन उनकी कठिन परीक्षा अभी ख़त्म नहीं हुई थी। कुछ परिवारों ने असम की जेल में नौ महीने बिताए जब तक कि लियू ने तत्कालीन असम के गृह मंत्री को पत्र नहीं लिखा। कुछ दिनों के बाद, सरकार ने हमें आज़ाद करने का फैसला किया। उन्होंने हमसे पूछा कि हम कहाँ जाना चाहते हैं। मेरे पिता ने शिलांग को चुना क्योंकि हम युद्ध से पहले ही वहां रह रहे थे। 

मजबूरी में कुछ बंदियों ने किया चीन का रुख 

कुछ दिनों में चीन को पता चल गया कि भारत ने चीनी लोगों के मूल के लोगों को बंदी बनाकर देवली में रखा हुआ है। चीन ने प्रस्ताव दिया कि वो उन लोगों को अपने यहाँ बुलाना चाहता है। बहुत से बंदियों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और वो चीन चले गए। बहुत से लोग चीन नहीं जाना चाहते थे क्योंकि ये अफ़वाह फैल गई थी कि चीन में सूखा पड़ गया है। बहुत से लोग इसलिए भी चीन नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि पहले उन्होंने कम्युनिस्ट सरकार का विरोध कर ताइवान की सरकार का समर्थन किया था। 

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