भाषा को लेकर Karnataka में सियासत जारी, कांग्रेस सरकार की उर्दू अनिवार्यता से बिगड़ सकता है राज्य का सामाजिक ताना-बाना
कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा आंगनवाड़ी शिक्षकों के लिए उर्दू में दक्षता को अनिवार्य बनाने के फैसले ने एक नई राजनीतिक बहस छेड़ दी है। सीएम सिद्धारमैया के नेतृत्व में राज्य सरकार ने मुदिगेरे और चिकमंगलूर जैसे मुस्लिम आबादी वाले बाहुल्य जिलों में उर्दू भाषा को अनिवार्य करने का आदेश जारी किया है।
हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा आंगनवाड़ी शिक्षकों के लिए उर्दू में दक्षता को अनिवार्य बनाने के फैसले ने एक नई राजनीतिक बहस छेड़ दी है। सीएम सिद्धारमैया के नेतृत्व में राज्य सरकार ने मुदिगेरे और चिकमंगलूर जैसे मुस्लिम आबादी वाले बाहुल्य जिलों में उर्दू भाषा को अनिवार्य करने का आदेश जारी किया है। इस फैसले के कारण राज्य में तीव्र विरोध और राजनीतिक हलचल मची है। सरकार का यह फैसला, जिसमें मुस्लिम बहुल जिलों में आंगनवाड़ी शिक्षकों के लिए उर्दू में प्रवीणता को एक अनिवार्य मानदंड बनाया गया है, कई लोगों के लिए चिंता का विषय बन गया है।
खासतौर पर बीजेपी ने इसे कांग्रेस का "मुस्लिम तुष्टिकरण" बताया है। भाजपा नेता नलिन कुमार कटील ने आरोप लगाया कि इस फैसले से कन्नड़ भाषी उम्मीदवारों के अधिकारों का हनन हो सकता है और राज्य की भाषाई एकता को कमजोर किया जा सकता है।
राज्य का भाषाई गौरव
देश में कर्नाटक एक ऐसा राज्य है, जहां भाषा हमेशा से ही एक भावनात्मक मुद्दा रहा है। जहाँ पर हिंदी के थोपने का कई बार जोरदार विरोध हुआ है, और कन्नड़ भाषा को लेकर लोगों में गहरी आस्था है। ऐसे में उर्दू जैसी अल्पसंख्यक भाषा को अनिवार्य बनाना राज्य के बहुसंख्यक कन्नड़ भाषी समुदाय के बीच चिंता का कारण बन गया है। राज्य में कन्नड़ भाषा केवल एक संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह राज्य की सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का प्रतीक है। कर्नाटक की राजनीतिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में कन्नड़ की अहमियत को देखते हुए, उर्दू को प्राथमिकता देना एक संवेदनशील मुद्दा है, जो विभाजन का कारण बन सकता है।
उर्दू की अनिवार्यता को लेकर आलोचना
सभी राज्यों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ग्रामीण और स्थानीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनकी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि वे स्थानीय आबादी के साथ संवाद स्थापित कर सकें और सरकारी योजनाओं को ठीक से लागू कर सकें। उर्दू को अनिवार्य बनाकर, सरकार उन स्थानीय कार्यकर्ताओं और समुदाय के बीच एक अलगाव पैदा करने का खतरा उठाती है, जो कन्नड़ या अन्य भाषाएं बोलते हैं।
कन्नड़ समर्थकों का विरोध करने का आरोप
कर्नाटक राज्य में कई कन्नड़ समर्थक समूह इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि कर्नाटक की बहुसंख्यक आबादी कन्नड़ बोलती है और किसी दूसरी भाषा को प्राथमिकता देना राज्य की भाषाई पहचान पर हमला है। इससे पहले भी राज्य ने हिंदी थोपने के प्रयासों का विरोध किया था, और अब उर्दू की अनिवार्यता भी उसी भावना को चोट पहुंचाती है।
सरकार ने की भाषाई विविधता की अनदेखी
कर्नाटक एक भाषाई विविधता पर गर्व करने वाला राज्य है। जहां हिंदी, तेलुगु, तमिल, मराठी जैसी कई भाषाएं बोली जाती हैं। बेंगलुरु जैसे बड़े शहरी केंद्रों में विभिन्न भाषाओं के लोग रहते हैं और कार्य करते हैं। इस तरह की अनिवार्यता से यह खतरा है कि गैर-उर्दू भाषी लोग नौकरी के अवसरों से वंचित हो सकते हैं, भले ही वे अन्य योग्यताओं में श्रेष्ठ हों।
समावेशिता या विभाजन, सबसे बड़ा सवाल ?
सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का यह निर्णय, जो संभवतः अल्पसंख्यक समुदायों को बेहतर प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से किया गया है, राज्य की सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचा सकता है। कर्नाटक में समावेशिता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, लेकिन उर्दू को कन्नड़ से अधिक प्राथमिकता देने का यह कदम और अधिक विखंडन पैदा कर सकता है। कर्नाटक सरकार द्वारा आंगनवाड़ी शिक्षकों के लिए उर्दू अनिवार्य करने का फैसला एक गलत नीति प्रतीत हो रही है। यह न केवल राज्य की भाषाई एकता को खतरे में डाल सकता है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक विभाजन को भी बढ़ा सकता है।
कन्नड़ भाषा राज्य के सामाजिक ताने-बाने का एक अभिन्न हिस्सा है, और किसी भी अन्य भाषा को कन्नड़ से अधिक प्राथमिकता देने से बहुसंख्यक आबादी में असंतोष बढ़ सकता है। राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता और भाषाई गौरव को ध्यान में रखते हुए, ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो विभाजन के बजाय एकता को बढ़ावा दें। उर्दू को अनिवार्य बनाने का यह निर्णय भविष्य में कर्नाटक की भाषाई राजनीति के लिए गंभीर सवाल खड़े कर सकता है और इससे राज्य के सामाजिक ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
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