सरसंघचालक मोहन भागवत ने भारतीय और भारत में कार्यरत विदेशी पत्रकारों और लेखकों (पाकिस्तान को छोड़कर) को बातचीत के लिए आमंत्रित किया, तो सभी मुलाकात के लिए लालायित थे और अपनी पुरानी जिज्ञासा दूर करना चाहते थे। संघ का बुलावा आया तो अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबंधित संगठनों की राजनीति के बारे में लिखने वाले पत्रकारों और लेखकों में एक किस्म की बेचैनी को और बढ़ा दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) एक ऐसा नाम है जिसका जिक्र होते ही सत्ता के गलियारों की धड़कनें तेज हो जाती हैं और नजरें थोड़ी टेढ़ी। समाज के भीतर देश के सबसे बड़े परिवार के तौर पर आरएसएस अपनी पहचान कराता है। इतिहास के पन्नों से गुलाम हिन्दुस्तान की यादों में हिंदुत्व की आस्था से भारतीयता की भावना में रचे-बसे इस संगठन का जन्म तो 94 साल पहले हुआ था। उस वक्त महज 12 लोग थे लेकिन आज करोड़ों-करोड़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद संगठन की हामी हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा गढ़ने वाले इस संगठन ने राजनीति से तो अपनी दूरी परस्पर बनाई रखी, लेकिन सत्ता की राजनीति में अपनी मौजूदगी की धमक को कुछ इस प्रकार बरकरार रखा कि जिसके इशारों को नजरअंदाज करना तख्त पर बैठे हुक्मरानों के लिए कभी आसान नहीं रहा। आरएसएस का इरादा अखंड भारत का है और संघ का वादा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पन्नों में घूमता है।
पहली बार मोदी सरकार सत्ता में आई तो उस वक्त संघ को लेकर विदेशी मीडिया की ज्यादा रूचि दिखने लगी। पीएम नरेंद्र मोदी खुद संघ के स्वयंसेवक हैं। सरकार के हर फैसले में संघ की छाप ढूंढने की कोशिश की जाने लगी और हर बयान को संघ की विचारधारा से जोड़कर और तौलकर देखने का दौर शुरू हुआ। संघ के बारे में दुनिया भर में उत्सुकता बढ़ी तो उसके साथ ही सवाल भी उठने लाजिमी थे। हर मसले पर संघ की क्या सोच है इसे लेकर कई तरह की बातें सामने आने लगीं। विदेशी मीडिया ने अपने संपादकीय से लेकर विचार, लेखों तक में संघ और इसकी विचारधारा को कई मसलों पर परखना और कटघरे में खड़ा करना शुरू किया।
सरसंघचालक मोहन भागवत ने भारतीय और भारत में कार्यरत विदेशी पत्रकारों और लेखकों (पाकिस्तान को छोड़कर) को बातचीत के लिए आमंत्रित किया, तो सभी मुलाकात के लिए लालायित थे और अपनी पुरानी जिज्ञासा दूर करना चाहते थे। संघ का बुलावा आया तो अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबंधित संगठनों की राजनीति के बारे में लिखने वाले पत्रकारों और लेखकों में एक किस्म की बेचैनी को और बढ़ा दिया। इन संगठनों में गोपनीयता का माहौल, जो तमाम मुद्दों को उलझाए रखता था और पत्रकारों की बेचैनी को भी बढ़ाए रखता था। जिसके बाद मोहन भागवत ने मंच से एनआरसी, मॉब लिचिंग, समलैंगिकता और अनुच्छेद 370 को लेकर अपने विजन और सोच को बेबाकी से साझा किया।
निश्चित रूप से उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल आरएसएस का इतिहास और सोच बताने के लिए किया। सबसे अहम बात है कि सरसंघचालक ने आरएसएस की आरम्भिक वैश्विक नजरिये के बारे में रोचक बातें बताईं। उन्होंने कहा कि उनका संगठन 'अनेकता में एकता' में विश्वास रखता है, न कि 'एकता में अनेकता' में। गौरतलब है कि पिछले वर्ष विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय 'भविष्य का भारत' व्याख्यानमाला में भागवत ने लोगों से खासकर मुस्लिम समुदाय से संघ को समझने के लिए करीब आने का आग्रह किया था। इस व्याख्यानमाला में भी संघ की ओर से कई मुद्दों पर बातें रखी गई थीं। लेकिन इस इवेंट में भारतीय मीडिया ने ही हिस्सा लिया था।
ज्ञात हो कि संघ के लाखों स्वयंसेवक उपेक्षा, उपहास, विरोध और अवरोध के बावजूद भी अपने सामाजिक-सांस्कृतिक लक्ष्यों की ओर अग्रसर हैं। हर देश का समाज राष्ट्र की उन्नति के लिए कुछ व्यवस्थाएं खड़ी करता है। सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को जन्म देता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी उसी तरह एक देशव्यापी देशभक्त, अनुशासित चरित्रवान व निःस्वार्थ सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन है, उसकी शाखाएं राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला हैं।
नजरें जितनी करीब जाती हैं उतनी ही तेजी से तरेरती हैं और इसलिए शायद आरएसएस के गठन के बाद से ही यह संगठन सवालों के घेरे में फंसा रहा। लेकिन कई मौके ऐसे भी आए जब देश के प्रधानमंत्री ने इसी संघ का साथ लिया। चाहे वो पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू हों या फिर इंदिरा गांधी। लेकिन वर्तमान दौर के कांग्रेसी चाहे वो सोनिया गांधी हों या राहुल गांधी संघ से घृणा करते हैं। लेकिन वर्तमान दौर में संघ ने खुद को संवाद की स्थिति में लाकर खड़ा कर लिया है। संघ को वैसे तो ज्यादा मीडिया फ्रेंडली नहीं माना जाता और ऐसा माना जाता रहा है कि संघ मीडिया से एक दूरी बनाकर रखने पर यकीन करता है। लेकिन वर्तमान दौर में संघ सिर्फ विदेशी मीडिया के जरिए ही विदेशों में अपनी सोच और विचारधारा को सही तरीके से नहीं रखना चाहता बल्कि राजनयिकों के जरिए भी संघ यह कार्य कर रहा है। 2007 में संघ की विशेष संपर्क सेल बनी और तभी से देश के अंदर भी अलग-अलग क्षेत्र की हस्तियों से लेकर राजनयिकों से संपर्क किया गया।
आरएसएस के विरोधी यह समझें तो बेहतर कि यह संगठन अपने को लगातार बदलता चला आ रहा है या करता चला आ रहा है। हो सकता है कि यह नयापन एवं परिवर्तन उसके शरीर का ही परिवर्तन हो, आत्मा का नहीं, परंतु जो राजनीतिक दल अपनी लड़ाई आरएसएस से मानते हैं उन्हें आरएसएस के देह स्वरूप में हो रहे लगातार परिवर्तन को तो समझना और स्वीकारना ही होगा। अगर वे ऐसा नहीं करते तो आरएसएस की एक छाया से लड़ते रह जाएंगे। इसके नतीजे में संघ अपने सामाजिक आधार को और फैलाता चला जाएगा।