हिमाचल प्रदेश में मंडलियां नंगे पांव करती हैं घर घर जाकर गुग्गा जाहरवीर का गुणगान
रक्षा बंधन के दिन से शुरू यह देव यात्रा नवमी के दिन समाप्त होगी। लोगों के घरों में जैसे ही यह मंडलियों के पहुंचती हैं महौल भक्तिमय हो जाता है। मंडलियों के साथ चल रहे छत्र को हाथ थामेे व्यक्ति को इस दौरान कड़े नियमो का पालन करना होता है।
शिमला । देवभूमि हिमाचल के कण कण में भगवान बसते हैं। मेले त्यौहार व धार्मिक यात्रायें हिमाचली जनजीवन का हिस्सा हैं। कुछ इसी तरह हिमाचल प्रदेश में इन दिनों मंडलियां नंगे पांव , गांव गांव -घर -घर जाकर गुग्गा जाहरवीर का गुणगान करते देखी जा सकती हैं हैं।
रक्षा बंधन के दिन से शुरू यह देव यात्रा नवमी के दिन समाप्त होगी। लोगों के घरों में जैसे ही यह मंडलियों के पहुंचती हैं महौल भक्तिमय हो जाता है। मंडलियों के साथ चल रहे छत्र को हाथ थामेे व्यक्ति को इस दौरान कड़े नियमो का पालन करना होता है।
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गुग्गा मंडलियां रक्षाबंधन के दिन से नंगे पांव अपने अपने मंदिरों से निकलीं हैं। जो जन्माष्टमी के अगले दिन वापस अपने घरों में वापिस पहुंचेंगी। मंडली में चलना आसान नहीं है, इसके लिये भादों माह की पूर्णिमा से लेकर जन्माष्टमी के अगले दिन तक छत्र ले कर चलने वाले प्रमुख पुजारी को नंगे पांव चलना होता है, यह लोग जमीन पर भी नहीं बैठ सकते।
गुग्गा जाहरवीर की वीर गाथाएं यह लोग सुनाते हैं। जिसे सुन लोग धन्य हो जाते हेंैं। गुग्गा जाहरवीर लोकदेवता हैं। हिमाचल के साथ साथ राजस्थान में भी इनकी पूजा लोग करते हैं। पुरातन काल से ही इन दिनों गाथाओं को सुनाया जाता है। प्राचीन परंपराओं के अनुसार इन गाथाओं का अहम महत्व है। इन गाथाओं का गान जन्माष्टमी के अगले दिन तक चलता रहेगा।
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बाद में जाहरवीर के मंदिरों में मेलों का भी आयोजन किया जाता है। हिमाचल प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहां गुग्गा जाहरवीर का मंदिर न हो। कांगड़ा जिला भर में ऐसी करीब दो हजार मंडलियां होंगी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी गुग्गा जाहरवीर का छतर लेकर गांव-गांव में निकलती हैं और गुग्गा का स्तुतिगान करती हैं।
ऐसा ही नजारा हिमाचल प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी देखने को मिल सकता है। मान्यता है कि गुग्गा जाहरवीर की पूजा से घर में मवेशीधन की वृद्धि होती है और गुग्गा विभिन्न बीमारियों से मवेशियों की रक्षा भी करते हैं। कांगड़ा जिला के पालमपुर के पास सलोह में गुग्गा जाहरवीर का मुख्य मंदिर है। यहां हजारों की तादाद में लोग नवमी के दिन जुटते हैं। जन्माष्टमी के दूसरे दिन मेले का आयोजन किया जाता है और बहुत बड़ा मेला होता है।
बताते हैं कि गुग्गावीर भगवान विष्णु का प्रसाद है जो शिव की जटाओं से फल के रूप में निकला था। यह फल सांपों का शत्रु था। जिसे एक बार सभी सांपों व नागों की प्रार्थना पर भगवान शिव ने अपनी जटाओं में बांध लिया था। जब बागड़ देश की रानी बाछला को संतान प्राप्ति के लिए यह फल देने गुरु गोरखनाथ जा रहे थे तो रास्ते में सांपों को सर्वनाश से बचाने के लिए वासुकी नाग ने छल द्वारा गुरु गोरखनाथ से यह फल मांग कर खा लिया। भगवान विष्णु ने इसके बाद दयालक ऋषि को भेजा और दयालक ऋषि ने बासुकी नाग के सिर पर झाड़ू मारकर इस फल को गूग्गल धूप में परिवर्तित कर दिया क्योंकि सांप गूग्गल धूप नहीं खाते इसलिए गूग्गल धूप से की गई गुग्गा जी की पूजा को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
कहा जाता है कि यही फल गुरु गोरखनाथ ने भगवान शिव के कहने पर रानी बाछला को दिया था जिसके प्रभाव से 12 मास पश्चात गुग्गा जी का जन्म हुआ। गुग्गा जी के जन्म लेते ही सभी देवी-देवताओं में खुशी की लहर दौड़ गई। आसमान से पुष्प वर्षा का जिक्र भी इस कथा में किया गया है जिसे गुग्गा मंडलियां घर-घर गाकर सुना रही हैं। काली मां ने गुग्गा के जन्म लेते ही आसमान से पुष्प वर्षा की थी और कहा था कि गुग्गा चौहान ही उसका खप्पर राक्षसों के खून से भरेगा। गुग्गावीर के जन्म लेते ही समूची नगरी के अन्दर ढोल-नगाड़े अपने आप बजने लगे, इस तरह का जिक्र गुग्गा महापुराण में भी पढऩे को मिलता है।
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