भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में सियासी सफलता का साम्रज्य बन चुकी भारतीय जनता पार्टी का परचम हर जगह लहरा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा को इन तमाम उपलब्धियों के करीब ले जाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रिय छवि वाले नेतृत्व और अमित शाह के कुशल संगठन की बड़ी भूमिका है। सफलता के स्वर्णीम काल में पहुंची भारतीय जनता पार्टी एक इंसान के नाम पर अक्सर सजदा करती है। लोगों के जेहन में तुरंत ही पीएम मोदी का नाम आएगा। लेकिन वो नाम पीएम मोदी का नहीं है। बल्कि वो तो खुद उस इंसान के नाम पर विनम्रता और चेहरे पर सौम्यता लिए सिर झुकाते नजर आते हैं। वो नाम है पंडित दीनदयाल उपाध्याय का। 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी ने कहा था कि जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जिंदा थे, तब हम लोग चुनाव में जमानत जब्त हो जाने पर भी सेलिब्रेट करते थे। 25 सितंबर यानी पंडित दीन दयाल उपाध्याय की जयंती का दिन। जहां आज पंडित दीन दयाल उपाध्याय के जन्म दिवस पर बीजेपी स्वच्छता अभियान के तहत दिल्ली में लगी सभी महापुरुषों की मूर्तियों की साफ-सफाई कर रही है। इस अभियान की शुरुआत बीजेपी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने की। दिल्ली बीजेपी के सभी नेता इस अभियान में हिस्सा ले रहे हैं जिसमें मूर्तियों की सफाई के अलावा पार्टी के नेता झाड़ू भी लगाते दिखें। अक्सर भाजपा पर आरोप लगते हैं कि इनके पास विचारधारा जैसी कोई चीज नहीं है। कोई इतना बड़ा विचारक नहीं हुआ है, जो बाकी विचारों को काट सके। लेकिन पंडित दीन दयाल उपाध्याय की वो बात जिसे आज के दौर में भी भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण बातों और पहलुओं पर एक नजर...
भाजपा तो 1980 में अस्तित्व में आई। वर्तमान भाजपा को समझने के लिए हमें अतीत की भाजपा यानी जनसंघ पर एक संक्षिप्त नजर डालनी होगी। पहले इस पार्टी का नाम जनसंघ हुआ करता था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक जनसंघ के नेता हुआ करते थे। भारतीय राजनीति में वह भाजपा के लिए पहली पीढ़ी के नेताओं का दौर था जो पंडित दीन दयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानव दर्शन को अपने विचार के रूप में लेकर आगे बढ़ रहे थे। 1951 में दीन दयाल उपाध्याय ने डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ भारतीय जन संघ की स्थापना की थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय की निष्ठा और उनके समर्पण से इतने प्रभावित हुए थे कि एक बार उन्होंने कहा था, “मुझे दो दीन दयाल दे दो, मैं देश का चेहरा पूरी तरह से बदल दूंगा।”
पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने मुंबई में 22 से 25 अप्रैल 1965 में एक अहम भाषण दिया। उनके विचारों ने पूरे देश में नई बहस को जन्म दिया। उन्होंने देश और दुनिया के स्थाई विकास और मानव शांति के लिए राजनीतिक, सामाजिक और अर्थनीति के जिन सिद्धांतों को जनता के सामने रखा वे एकदम अलग थे। वो मानव को विभाजित करके देखने के पक्षधर नहीं थे। वे मानव का उस दृष्टि से मूल्यांकन करने की बात करते थे जो उसके संपूर्ण जीवन के छोटी अथवा बड़ी जरूरत के तौर पर संबंध रखता है। एक आदर्श इंसान को खुद से और खुद के परिवार से बाहर सोचना चाहिए और पूरी इंसानियत के भले के बारे में सोचना चाहिए।
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भाजपा ने बीते बरस दीन दयाल उपाध्याय की जन्म शताब्दी भी मनाई जिस पर कांग्रेस ने आपत्ति भी जताई। दीनदयाल का क्या योगदान है? वे न तो मंत्री रहे न सांसद रहे और ना ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल रहे। लेकिन अनभिज्ञता और विरोधाभास में डूबी कांग्रेस की वर्तमान पीढ़ी और 50 के दशक की पीढ़ी के बीच के अंतर को समझने के लिए हमें इतिहास में जाना होगा।
दीनदयाल उपाध्याय के असामान्य गुणों और उनके भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में योगदान को सबसे अधिक किसी ने रेखांकित किया है तो वह और कोई नहीं बल्कि नेहरू के समकालीन और अपने युग के सबसे लोकप्रिय तथा विचारों की दृष्टि से सिद्धांतकार माने जाने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संपूर्णानन्द थे। 1955 के दौर में संपूर्णानन्द उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और फिर बाद में राजस्थान के राज्यपाल भी रह चुके थे। पंडित दीन दयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाद उनके लेखन का संकलन 'पॉलिटिकल डायरी' प्रकाशित हुई जिसका प्राक्कथन स्वयं सम्पूर्णानन्द ने लिखा।
सम्पूर्णानन्द ने प्राक्कथन लिखने के तीन कारण बताए थे, पहला, दीनदयाल उपाध्याय का निर्मूल चरित्र था और सार्वजनिक जीवन में मापदंड की तरह है। दूसरा, उनका देश प्रेम और समर्पण उच्चकोटि का था और तीसरा, यह लेख भविष्य के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक मार्गदर्शन की तरह होगा।
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1963 में लोकसभा के चार क्षेत्रों में उपचुनाव हो रहा था और विपक्ष के चार दिग्गज नेता इन क्षेत्रों में कांग्रेस को चुनौती दे रहे थे। स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी, समाजवादी आचार्य जेबी कृपलानी, डॉ राम मनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय। उपाध्याय उत्तर प्रदेश के जौनपुर से चुनाव लड़ रहे थे। वे जनसंघ के सबसे कद्दावर नेता थे और उस दौर में उनकी बातें देश की राजनीति में काफी अहमियत रखती थीं। उस वक्त पंडित जी की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी। बाकी अन्य सीटों पर जीत को लेकर संशय था।
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लेकिन उपाध्याय ने अपने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान जातीय समीकरण से ऊपर उठकर चुनाव प्रचार किया। उन्होंने जातीय ध्रुवीकरण और जातियों के परस्पर गठबंधन को समाज के लिए नुकसानदायक बताया। जिससे उनके समर्थक भी निराश हो गए थे और उन्हें लगने लगा कि पंडित जी जानबूझकर अपनी जीत को हार में बदल रहे हैं। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आने लगा उपाध्याय संकीर्ण मानसिकता पर आक्रामक होते गए और वैसे-वैसे ही उनकी हार भी सुनिश्चित होती गई। बाकी तीन विपक्ष के उम्मीदवार चुनाव जीत गए और दीनदयाल हार गए। लेकिन हारने के बाद जो पंडित जी ने कहा उससे वर्तमान की राजनीति और राजनेताओं को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। हारने के बाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय का संदेश था, 'दीनदयाल हार गया, जनसंघ जीत गई।‘ वास्तव में यह भारत के लोकतंत्र के लिए एक ऐसा प्रकाश स्तंभ है जो युगों-युगों तक पीढ़ियों को प्रभावित करती रहेगी।
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