"गाय" स्वास्थ्य एवं रोजगारलक्षी यूनिवर्सिटी है : मगनभाई पटेल

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रितिका कमठान । Oct 7 2024 11:39AM

स्वतंत्र होने से पहले देश में बहुत गायें थीं परिणामस्वरूप दूध का विपुल मात्रा में बिगाड़ होता था,अत: लोग गायें कम रखने लगे और बैलों की भी कमी होने लगी,इसलिए,हमारे पूर्वजों एव उस समय के धार्मिक नेताओंने गाय के दूध की खपत बढ़ाने और गाय पालकों को पोषण मूल्य प्राप्त करने के लिए भगवान को दूध-घी चढ़ाने की प्रथा को धार्मिक आस्था से जोड़ दिया।

हाल ही में अहमदाबाद के चांगोदर इलाके में श्रीमती एन.एम.पाडलिया फार्मेसी कॉलेज में "खाद्य सुरक्षा सप्ताह" का आयोजन किया गया, जहां विभिन्न खाद्य विशेषज्ञोंने शुध्ध,सात्विक और पौष्टिक भोजन पर अपने विचार प्रस्तुत किए। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में शाम सेवा फाउंडेशन के प्रमुख एव इस कॉलेज के मेनेजिंग ट्रस्टी श्री मगनभाई पटेल विशेष रूप से उपस्थित थे। उन्होने इस विषय पर अपने उमदा विचार प्रगट करते हुए कहा की भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं में "गाय" का विशेष महत्व है। देश स्वतंत्र हुआ उससे पहले देश में गौ आधारित खेती होती थी यानि जुताई,बुआई ये सब बैलों द्वारा किया जाता था। जब कुओं में पानी का स्तर ३०-४० फीट होता था तब कोश या रेट के द्वारा पानी खींचने के लिए बैलों का उपयोग किया जाता था और इस पानी का उपयोग पीने के साथ-साथ सिंचाई के लिए भी किया जाता था।

इसके अलावा सभी माल-सामान की हेराफेरी,पशुओं के चारे और किसी भी छोटे या बड़े निर्माणकार्य में बैलगाड़ी का उपयोग किया जाता था।उस समय परिवहन की कोई सुविधा नहीं थी, इसलिए शादी या किसी अन्य अवसर पर एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए भी बैलगाड़ी का इस्तेमाल किया जाता था। लोग बैलगाड़ियों के अंदर चटाई बिछाकर उसपर बैठकर एक गांव से दूसरे गांव जाते थे। इसके अलावा बैलों का उपयोग खेती में भी अलग-अलग तरीकों से किया जाता था,जिसमें फसल से अनाज के दानों को अलग करने के लिए बैलों को अनाज के पौधों के ऊपर चलाया जाता था,जिससे अनाज के दाने अलग हो सके।इसके अलावा शुद्ध गुड़ एव चीनी बनाने के लिए गन्ना कोल्हू मशीन द्वारा गन्ने का रस निकाला जाता था, जिसमें भी बैलों का प्रयोग किया जाता था।चूना-पत्थर पीसने के लिए भी बैलों का प्रयोग किया जाता था,यद्यपि इस क्षेत्र में उस समय कोई तंत्र नहीं था, फिर भी सुन्दर व्यवस्था कृषि क्षेत्र में थी,अतः स्वच्छ अनाज,सब्जियाँ, दूध,घी, मक्खन,पनीर,दूध से बनी मिठाइयाँ हानिरहित स्वच्छ एवं शुध्ध मिलती थीं। यदि इस क्षेत्र में उचित यांत्रिकरण किया गया होता,तो हम निश्चित रूप से बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकते थे।देश जब स्वतंत्र हुआ तब जितनी गायें ३५ करोड़ की आबादी में थीं उतनी १४० करोड़ की आबादी में रही नहीं। गाय हिंदू संस्कृति से जुड़ी हुई है,इसलिए इसे पवित्र माना जाता है, प्रकृति के तत्व जैसे पशु-पक्षी,हवा-पानी,पहाड़,महासागर,नदियाँ आदि की पूजा की जाती है और उन्हें अपवित्र होने से बचाने के लिए धर्म से जोड़कर उनका पालन किया जाता है।

हाल ही में एक वैज्ञानिकने कहा है की कि अनाज,फल,सूखे मेवे, सब्जियाँ, दूध, घी,दही, मक्खन,पनीर जैसे उत्पाद अखाद्य पदार्थों से बने होते हैं, इसलिए इनका कोई स्वाद नहीं होता। यूरिया एव अन्य पदार्थों से दूध बनाया जा रहा है,पोहे से छाछ बनाई जाती है,जबकि सब्जिया,फलों को हानिकारक रसायनों में भिगोया जाता है या विभिन्न प्रक्रियाओं के माध्यम से इंजेक्ट किया जाता है और पकाया जाता है।आज देश में कई जगहों पर सौंफ के बीज से जीरा बनाया जाता है, पपीते के बीज से काली मिर्च बनाई जाती है,ऐसी कई नवीन तकनीकों का इस्तेमाल करके मानव शरीर में जहर डालने का काम हो रहा है। ऐसी वस्तुएं आर्थिक रूप से पिछड़े गरीब लोगों की बस्तियों में खुले मे बेची जाती हैं क्योंकि उनकी खरीदारी खुदरा होती है जबकि आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की ब्रांडेड खरीदारी में कुछ प्रमाण में डुप्लीकेशन होता है। जैसे देश की सभी ब्रांडेड डेयरियों के दूध आधारित उत्पादों की नकल कर डुप्लीकेट पैकिंग में बेचा जा रहा है, जिसकी बड़ी डेयरियों को भनक तक नहीं लगती। 

ऐसे कई उदाहरण हैं जब सरकारी स्वास्थ्य विभाग की टीमों ने कई स्थानों पर छापे मारे और ऐसे अखाद्य नमूनों को बड़ी मात्रा में नष्ट किये हो। गुजरात सरकारने ऐसे कई मामलों में दोषियों को सजा देकर परिणामोन्मुख कार्य किया है, जबकि देश के अन्य राज्यों में भी परिणामोन्मुख कार्य हुआ है।

आज देश में ऐसे कई उदाहरण हैं कि देश के मंदिरों में चढ़ाये जानेवाले प्रसाद मे घी और मक्खन अक्सर शुद्ध नहीं होते क्योंकि प्रसाद के लिए घी और मक्खन बाहर की डेयरियों से लाया जाता है। हाल ही में कुछ नकारात्मक मानसिकतावाले लोगोंने देश के समाचार पत्रों में बताया कि देश के तिरूपति मंदिर से मिलनेवाले प्रसाद में मटनटेलो,फिश ऑइल  जैसे पदार्थों का प्रयोग किया जाता था जिससे हिंदू धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का जो काम किया गया है वह ठीक नहीं है। ऐसी बातों को मीडिया या समाचारपत्रों में देने की बजाय हल्के में लेना चाहिए और जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि ऐसी बातो से  धर्म की सेवा नहीं होती बल्कि लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती हैं जो कि पाप है।धर्म एक बहुत ही संवेदनशील विषय है,इसलिए हिंदू,मुस्लिम,सिख,ईसाई या किसी भी अन्य धर्म को भड़काने से हमने बहुत दुखद परिणाम भुगतने पड़े हैं, इसलिए किसी भी राजनीतिक या सामाजिक नेता को सभी धर्मों को समान मानना चाहिए, तभी दुनिया में शांति स्थापित होगी। 

महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में प्रतिदिन सुबह ''ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान'' जैसी प्रार्थनाएं होती थीं लेकिन आज हमने उसकी भी कद्र करना नहीं सीखा है जो हमारी राक्षसी मानसिकता को दर्शाता है।देश का इतना बड़ा ट्रस्ट जिसके पास २.५ लाख करोड़ रुपये की संपत्ति,सोना,या नकदी है,वहां की सरकार एव मंदिर ट्रस्ट को इस फंड के लिए ठीक से योजना बनानी चाहिए।जिसमें विभिन्न सहकारी समितियों, वित्तीय संस्थानों को प्रचुर मात्रा में गायें उपलब्ध करानी चाहिए ताकि बैल आधारित खेती की जा सके और गौ शाला का निर्माण कर के उसका उचित प्रबंधन और विपणन किया जाए तो आंध्र प्रदेश के लोगो को शुध्ध दूध एव दूध उत्पाद मिल शके साथ ही साथ इस से करोड़ों लोगों को रोजगार भी मिल सकता है। जिसका उदाहरण गुजरात के अहमदाबाद में स्थित जगन्नाथजी का मंदिर है जहां आज करीब १५०० गायें बछड़ों के साथ रहती हैं। इस मंदिर ट्रस्ट की गौशाला की गायों के दूध से घी, मक्खन, दही बनाया जाता है और घी से बने मालपूड़े को प्रसाद के रूप में परोसा जाता है और छाछ गरीबों को प्रतिदिन निःशुल्क दि जाती है। इसके अलावा इन गायों के गौमूत्र से विभिन्न आयुर्वेदिक दवाएं भी बनाई जाती हैं और बहुत मामूली दर पर बेची जाती हैं। 

मंदिर के पास लगभग २५० एकड़ जमीन है जिसमें फल,धान,गेहूं,मक्का जैसी फसलें उगाई जाती हैं, सालाना ६००० से ७००० मन गेहूं और चावल उगाए जाते हैं जो पूरी तरह से जैविक हैं और ये अनाज वृद्धाश्रमों, अनाथालयों और जरूरतमंद सामाजिक संगठन को निःशुल्क वितरित किया जाता हैजो एक क्रांतिकारी सेवा है। इस मंदिर के महंत महामंडलेश्वर श्री दिलीपदासजी महाराज और ट्रस्टी श्री महेंद्रभाई झा के नेतृत्व में मंदिर की हर प्रवृतिया विविध समितियों द्वारा खूबसूरती से की जाती है जिसमें रथयात्रा जैसा उत्सव पूरे देश में उड़ीसा के बाद दूसरे स्थान पर आता है। श्री मगनभाई पटेल ३० वर्षों से इस संस्था से जुड़े हुए हैं। यह व्यवस्था देश के हर मंदिर को करनी चाहिए, लेकिन देश के कुछ साधु-संत गाय के नाम पर कमाई करने का काम कर रहे हैं, जो हमारा दुर्भाग्य है। आज ५० गायें रखकर ५०० गायों का कोष जुटाने के अनेक उदाहरण हैं और इस कोष का उपयोग भौतिक सुख-सुविधा में किया जा रहा है ऐसे कई उदहारण है इस से कई सच्चे साधु-संत की छबि बिगड़ती है।

हमारे एक सर्वेक्षण के अनुसार कृष्ण,राम और शंकर के मंदिर और उनसे संबद्ध संस्थान और जैन, वैष्णव जैसे अन्य धार्मिक संस्थान देश में सबसे अधिक गाय रखते हैं। हमने कई गौ शाला का दौरा किया है जिसे ग्रामीणोंने बनाया हैं,गौधन का संरक्षण तभी होगा जब गांवों में ऐसे छात्रावास स्थापित किये जायेंगे और बैल पालन को बढ़ावा दिया जायेगा। यह सुन्दर व्यवस्था पशुपालकों को रोजगार भी प्रदान करती है। स्वतंत्र होने से पहले देश में  बहुत गायें थीं परिणामस्वरूप दूध का विपुल मात्रा में बिगाड़ होता था,अत: लोग गायें कम रखने लगे और बैलों की भी कमी होने लगी,इसलिए,हमारे पूर्वजों एव उस समय के धार्मिक नेताओंने गाय के दूध की खपत बढ़ाने और गाय पालकों को पोषण मूल्य प्राप्त करने के लिए भगवान को दूध-घी चढ़ाने की प्रथा को धार्मिक आस्था से जोड़ दिया। इसलिए दूध उत्पादकों को धार्मिक स्थलों से भक्तों की खपत बढ़ गई और अर्थव्यवस्था को भी पोषण मिला।

आज हमारे देश में सबसे बड़ी गंभीर समस्या यह है कि बछड़े यानी बैल की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हर क्षेत्र में यंत्रीकृत खेती हो रही है इसलिए बैल की आवश्यकता नहीं है और इसलिए गाय की आवश्यकता कम हो गई है और परिणामस्वरूप आज संस्कृति और स्वास्थ्य इस इरादे के कारण नष्ट हो गए हैं। इसके लिए सरकार को ग्रामीण इलाकों में किसानों को बैल आधारित खेती के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, कुछ एकड़ जमीन तक ट्रैक्टर सब्सिडी बंद कर देनी चाहिए ताकि वे अपने आप गाय पाल सकें। अगर हम गाय-बैल पालेंगे तो ही हमे जैविक कर पाएंगे और जैविक फल-सब्जियां मिलेंगी तथा ग्रामीण लोगों का शहरीकरण और पशुपालन भी कम होगा। चरवाहे शहर आकर अपने परिवार के साथ एक छोटे से कमरे में रहते है, महिलाए सामान्य मजदूरी या घरकाम करती है। ये लोग प्रकृति की गोद में गाय, भैंस और भेड़-बकरी जैसे दुधारू जानवर रखकर अपना जीवन व्यतीत करते थे जो आज एक अव्यवस्थित नीति एव कुछ लोगों की मानसिकता के कारण वे सड़क पर आ गए हैं और शहर में अच्छे और बुरे व्यवसाय करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं।

श्री मगनभाई पटेल ने गायों के महत्व के बारे में विस्तार से जानकारी दी और कहा कि गाय-बैल का गोबर किसान को प्राकृतिक खाद प्रदान करता है। कृषि में किसी भी प्रकार के रसायन या कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता था, जिसके परिणामस्वरूप खेत में पूर्णतया प्राकृतिक उपज होती थी और कृषि सदैव उपजाऊ बनी रहती थी। गाय के गोबर का उपयोग ग्रामीण घरों में खाना पकाने के लिए ईंधन और प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में किया जाता था। पहले के समय में गाँवों में घरों की दीवारें, अनाज के डिब्बे, हाथ से पीसनेवाली घंटियाँ, थालियाँ, टोकरियाँ आदि गाय के गोबर से लीपी जाती थीं। होली जैसे त्योहारों में, होली केवल गाय के गोबर से खेली जाती थी क्योंकि गोबर जलाने से निकलने वाले धुएं से मक्खियाँ, मच्छर या अन्य जहरीले कीड़े नहीं मरते थे बल्कि उनके डंख निष्क्रिय हो जाते थे ताकि वे मनुष्यों को न काट सकें। इस धुएं से पर्यावरण को भी फायदा होता था। गाय के गोबर, मूत्र और एग्रोवेस्ट का प्रसंस्करण करके जैविक खाद बनाई जाती है। एक गाय या बैल का खाद एक वर्ष में 2 एकड़ भूमि में पूरा किया जा सकता है। आज का मनुष्य भोजन पर जितना खर्च करता है, उससे अधिक खर्च विभिन्न रसायनों और कीटनाशकों से उपचारित सब्जियों और फलों के सेवन के कारण होता है।

अमेरिका,कनाडा,ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश,अफ्रीका जैसे देशों में भोजन में सबसे अधिक गाय का शुद्ध दूध लिया जाता है और गाय के दूध से बने विभिन्न उत्पादों का उपयोग भी किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वहां के लोगों का स्वास्थ्य अन्य देशों के लोगों की तुलना में काफी बेहतर है। जबकि भारत जैसे देशों में भैंस के दूध की सबसे ज्यादा खपत देखी जाती है। पहले के समय में हमारे पूर्वज गायों के लिए भूमि दान में देते थे, तब नदियाँ भी बारहमाह बहती थीं और उसके चारों ओर हजारों किलोमीटर की भूमि में प्रचुर मात्रा में घास उगती थी जिससे गाय, भैंस,भेड़,बकरी,ऊँट जैसे जानवर को पर्याप्त घास मिलती थी लेकिन आज ये सभी गौचर बिकने के कारण ये लोग शहर जाने के लिए मजबूर हो गए क्योंकि वे घास का खर्च नहीं उठा सकते हैं। पशु विज्ञान के अनुसार प्राकृतिक स्थानों में चरनेवाली गायें वातानुकूलित स्थिति में रहने वाली गायों की तुलना में २५ प्रतिशत अधिक दूध देती हैं।

श्री मगनभाई पटेलने आगे कहा कि देश जब आजाद हुआ तब १ डॉलर=१ रुपया था,समय बीतने के बाद पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के कारण आज १ डॉलर= ८५ हुआ है जो हमारे रूपये की कमजोरी दिखाता है। यदि कुछ क्षेत्रों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में बैल आधारित कृषि होती तो यह विनिमय दर १ डॉलर=४०-५० रुपये पर रुक सकती थी। हमारे एक सर्वे के मुताबिक इसका अर्थव्यवस्था पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है। परिवहन में भी ईंधन का उपयोग इस तथ्य के कारण बढ़ गया है कि आज बैलगाड़ियों की जगह यांत्रिक प्रणालियों ने ले ली है और प्रदूषण भी बढ़ गया है। हिंदू धर्म में गाय को पवित्र माना जाता है और मातृत्व और प्रजनन क्षमता के प्रतीक के रूप में उसकी पूजा की जाती है। हिंदू संस्कृति में गाय को धर्म और आस्था का प्रतीक माना जाता है। आज सारी स्थिति विपरीत हो गई है क्योंकि आज धर्म मे अन्धविश्वास प्रवेश कर गया है और धर्म का व्यवसायीकरण हो गया है जिसके परिणामस्वरूप आज की युवापीढ़ी का धर्म से विश्वास उठ गया है जो एक गंभीर चिंता का विषय है।

भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई भारतीय गाय को माता के रूप में स्वीकार किया गया है, जब घर में कोई बीमार होता है तो गाय की आंखों में आंसू आ जाते हैं और जब घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो वह पूरे दिन भूखी रहती है और चारा भी नहीं खाती है। आज भी जब किसी के घर में किसी व्यक्ति का स्वर्गवास हो जाता है तब सबसे पहले उसके पार्थिव शरीर को गाय के गोबर से साफ जमीन पर रखा जाता है और उसके बाद अंतिमक्रिया धर्मानुसार शुरू होती है। गाय के ऊपर हाथ फेरने से हमारे शरीर को सकारात्मक तरंगें प्राप्त होती हैं। पहले के समय में ऋषि-मुनि गाय के दूध पर निर्भर रहकर १०० वर्ष तक जीवित रहते थे,जिसका उल्लेख पुराणों में है। गाय के दूध से बने पदार्थों के सेवन से काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह दूर होता है और धैर्य,त्याग,अहिंसा जैसे सद्गुणों की प्राप्ति होती है इसीलिए देश के प्रत्येक नागरिक को भारतीय गाय को माता के रूप में पूजकर उसका जतन एव रक्षा करनी चाहिए।

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