Untold History of Women Reservation Bill: सरोजनी नायडू की चिट्ठी, आडवाणी के हाथों से छीन फाड़ दी बिल की कॉपी, अपने एक और वादे को पूरा करने जा रही है बीजेपी?

Untold History of Women Reservation
prabhasakshi
अभिनय आकाश । Sep 18 2023 3:10PM

ये महिला आरक्षण विधेयक आखिर है क्या? जिसकी चर्चा तो साल1931 में ही शुरू हो गई थी, लेकिन फिर भी आजादी के सात दशक बाद भी सभी सरकारों के प्रयास फेल साबित हुए। अब इसको लेकर चर्चा क्यों तेज हो गई है। इसके बास होने से क्या बदलेगा?

फरवरी 2023 में उत्तर प्रदेश के के एक गांव में बेटी से छेड़छाड़ का विरोध करने पर घर में घुसकर पिता की पिटाई कर दी गई। अक्टूबर 2022 में पश्चिम बंगाल के मालदा में एक विधवा महिला पर ‘चरित्रहीन’ का आरोप लगाने के बाद उसके बाल मुंडवा कर उसकी ललाट पर ब्लेड से 420 लिख दिया गया। मध्य प्रदेश के मऊगंज में तो हद ही हो गई। अगस्त के महीने में ही युवती से रेप के आरोपी ने 2 साल बाद जेल से बाहर आते ही अपने दोस्त संग पीड़िता से गैंगरेप की वारदात को अंजाम दे डाला। राजस्थान के बाड़मेर में दलित महिला से रेप और एसिड डालकर जलाने के मामले ने पूरे देश की सियात को झकझोड़ कर रख दिया। आए दिन इस तरह की खबरों को पढ़ने के बाद थोड़ा सा रिसर्च करने पर पता चला कि सोशलॉजिस्ट ने भी ऐसा माना है कि जब से महिलाएं एक बनी बनाई पारिवारिक ढांचे से बाहर निकलकर नौकरी करने लगी हैं तब से महिलाओं के खिलाफ हिंसा में एक बढ़ोतरी देखने को मिली है। अब सवाल है कि महिलाओं के साथ ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए है कि समाज में हम आम तौर पर जरूरी बातों को चर्चा में लाने से कतराते हैं। समाज को जेंडर इशू, उसकी व्यथा या उसकी वजह से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। ऐसे में कानूनी प्रक्रिया पर नजर डालें तो तमाम चीजों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है। इन तमाम चीजों में कानून बनाने और उन्हें लागू करवाने की शक्ति मिसिंग है। इसकी वजह है कि देश में लॉ एंड ऑर्डर बनाने की जो सर्वोच्च संस्था है यानी संसद उसमें औरतों की हिस्सेदारी बहुत ही कम है। अगर हिन्दुस्तान की महिलाओं को शक्तिशाली होना है। अपने अधिकारों के मुताबिक खुलकर जीना है, अत्याचार, शोषण मुक्त समाज गढ़ना है तो भारतीय संसद में महिलाओं का समान प्रतिधिनित्व सबसे ज्यादा जरूरी है। इसी जरूरत को नजर में रखते हुए महिला रिजर्वेशन बिल की संसद में पास होने की अटकलें लगाई जा रही हैं। ऐसे में आपको बताते हैं कि ये महिला आरक्षण विधेयक आखिर  है क्या? जिसकी चर्चा तो साल1931 में ही शुरू हो गई थी,  लेकिन फिर भी आजादी के सात दशक बाद भी सभी सरकारों के प्रयास फेल साबित हुए। अब इसको लेकर चर्चा क्यों तेज हो गई है। इसके बास होने से क्या बदलेगा? 

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सरोजिनी नायडू की 92 साल पुरानी चिट्ठी

साल 1931 की बात है भारत में आजादी का आंदोलन अपने चरम पर था। स्वाधीनता के लिए लड़ी जाने वाली इस लड़ाई में पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी जोर-शोर से हिस्सा ले रही थी। इसके साथ ही ये भावना भी प्रबल हो रही थी कि राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाएं पुरुषों से किसी भी मायने में कम या पीछे नहीं है। सरोजनी नायडू ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिलाओं के राजनीतिक अधिकार को लेकर बात की थी। उनके मुताबिक महिलाओं को मनोनीत करके किसी पद पर बैठाना एक किस्म का अपमान है। वो चाहती थी कि महिलाएं मनोनीत न हों, बल्कि चुनी जाएं। 1947 में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी रेणुका रे ने कहा था कि हम हमेशा मानते थे कि जब अपने देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले पुरुष सत्ता में आएंगे, तो महिलाओं के अधिकारों और स्वतंत्रता की भी गारंटी होगी। इसी से पता चलता है कि महिला आरक्षण का मुद्दा कितना पुराना है। महिला आरक्षण बिल कई बार लोकसभा में पेश भी किया जा चुका है। लेकिन आम सहमति कभी नहीं बन पाई। साल 2010 में महिला आरक्षण विधेयर राज्यसभा से पास भी हो गया, लेकिन बात आगे बढ़ नहीं सकी। इससे पहले विधेयक 1998, 1999, 2002 और 2003 में बार-बार संसद से पारित कराने के प्रयास हुए थे। 

 पहली बार कब आया था बिल?

साल 1975 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी तब ड्वीड इक्वेलिटी नाम की एक रिपोर्ट आई थी। जिसमें हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति के अलावा उनके आरक्षण की बात थी। महिला आरक्षण विधेयक पहली बार 1996 में देवेगौड़ा सरकार द्वारा पेश किया गया था। लोकसभा में विधेयक के अनुमोदन में विफल होने के बाद, इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली एक संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया, जिसने दिसंबर 1996 में अपनी रिपोर्ट पेश की। हालांकि, लोकसभा के सत्र समाप्त होने की वजह से विधेयक को फिर से प्रस्तुत करना पड़ा। पीएम वाजपेयी की एनडीए सरकार ने 1998 में 12वीं लोकसभा में बिल को फिर से पेश किया। फिर भी, यह समर्थन पाने में विफल रहा और लैप्स हो गया। 1999 में एनडीए सरकार ने 13वीं लोकसभा में इसे फिर से पेश किया। इसके बाद, विधेयक को 2003 में संसद में दो बार पेश किया गया था। 2004 में यूपीए सरकार ने इसे सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल किया था जिसमें कहा गया था: "यूपीए सरकार विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए कानून लाने का नेतृत्व करेगी। 

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पंचायत और निकाय चुनावों में महिलाओं को मिलता है आरक्षण

महिलाओं के लिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना ने 1988 में सिफारिश की कि महिलाओं को पंचायत से लेकर संसद स्तर तक आरक्षण प्रदान किया जाए। इन सिफारिशों ने संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के ऐतिहासिक अधिनियमन का मार्ग प्रशस्त किया, जो सभी राज्य सरकारों को पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें और सभी स्तरों पर अध्यक्ष के कार्यालयों में एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का आदेश देता है। क्रमशः पंचायती राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों में। इन सीटों में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल जैसे कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कानूनी प्रावधान किए हैं। 

महिला आरक्षण विधेयक क्या है?

स्थानीय निकायों के बाद अगला कदम संसद में आरक्षण सुनिश्चित करना था, लेकिन यह एक कठिन लड़ाई रही है। महिला आरक्षण विधेयक में महिलाओं के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है। इसे पहली बार देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा सितंबर 1996 में 81वें संशोधन विधेयक के रूप में लोकसभा में पेश किया गया था। विधेयक सदन की मंजूरी पाने में विफल रहा और इसे एक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया जिसने दिसंबर 1996 में लोकसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। लेकिन लोकसभा के विघटन के साथ विधेयक समाप्त हो गया। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने 12वीं लोकसभा में विधेयक को फिर से पेश किया। कानून मंत्री एम. थंबीदुरई द्वारा इसे पेश करने के बाद, एक राजद सांसद सदन के वेल में चले गए, उन्होंने विधेयक को पकड़ लिया और उसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया। विधेयक को समर्थन नहीं मिला और यह फिर से निरस्त हो गया। विधेयक को 1999, 2002 और 2003 में फिर से पेश किया गया था। हालांकि कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी दलों के भीतर इसका समर्थन था, लेकिन विधेयक बहुमत वोट प्राप्त करने में विफल रहा। 2008 में, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने विधेयक को राज्यसभा में पेश किया और 9 मार्च, 2010 को इसे 186-1 वोटों के साथ पारित कर दिया गया। हालांकि, विधेयक को लोकसभा में विचार के लिए कभी नहीं रखा गया और यह समाप्त हो गया। उस समय, राजद, जद (यू) और सपा इसके सबसे मुखर विरोधी थे। उन्होंने महिलाओं के लिए 33% कोटा के भीतर पिछड़े समूहों के लिए 33% आरक्षण की मांग की। 

'परकटी महिलाओं को...'

1996 में जब विधेयक को पटल पर रखा गया तो जदयू की ओर से कड़ा विरोध दर्ज कराया गया। इस पर लगातार हो रही बहर के बीच 1997 में शरद यादव ने लोकसभा में कहा कि इस बिल से सिर्फ पर कटी औरतों को फायदा पहुंचेगा। शरद यादव ने कहा था कि इस विधेयक के जरिए क्या परकटी महिलाओं को सदन में लाना चाहते हैं। परकटी महिलाएं हमारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करेंगी। 

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आडवाणी के हाथों से छीन फाड़ी बिल की कॉपी

साल 1998 में राजद के जहानाबाद सीट से सांसद सुरेंद्र यादव लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी की सीट पर पहुंच गए। उन्होंने सदन में तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के हाथों से महिला आरक्षण बिल की कॉपी लेकर फाड़ दी थी। इस बिल का सबसे अधिक विरोध शरद यादव के साथ-साथ लालू और मुलायम ने किया। मुलायम ने कहा था कि मुस्लिमों और दलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए। उधर लालू का कहना था कि कांग्रेस किसी की नहीं सुनना चाहती।  

विधेयक के पक्ष में क्या तर्क हैं?

विधेयक के समर्थकों का तर्क है कि महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए सकारात्मक कार्रवाई अनिवार्य है क्योंकि राजनीतिक दल स्वाभाविक रूप से पितृसत्तात्मक हैं। दूसरा, राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं की आशाओं के बावजूद, संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी कम है। समर्थकों का मानना ​​है कि आरक्षण यह सुनिश्चित करेगा कि महिलाएं उन मुद्दों के लिए लड़ने के लिए संसद में एक मजबूत लॉबी बनाएंगी जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। अब इस बात के सबूत हैं कि पंचायत नेताओं के रूप में महिलाओं ने सामाजिक मिथकों को तोड़ा है, पुरुषों की तुलना में अधिक सुलभ हैं, शराब की पकड़ को नियंत्रित किया है, पीने के पानी जैसी सार्वजनिक वस्तुओं में पर्याप्त निवेश किया है, अन्य महिलाओं को खुद को बेहतर ढंग से व्यक्त करने में मदद की है, भ्रष्टाचार कम किया है, पोषण परिणामों को प्राथमिकता दी है। और जमीनी स्तर पर विकास के एजेंडे को बदल दिया। एस्थर डुफ्लो, राघव चट्टोपाध्याय और अन्य ने पाया कि पश्चिम बंगाल और राजस्थान जैसे राज्यों में, जबकि महिला नेता अक्सर अपने पति या पिता की रबर स्टांप होती थीं, वे उन वस्तुओं में निवेश करने की अधिक संभावना रखती थीं जो महिलाओं के हितों के लिए महत्वपूर्ण थीं। आज, भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों का प्रतिशत उच्च है, कार्यबल में महिलाओं की कम भागीदारी, कम पोषण स्तर और विषम लिंग अनुपात है। यह तर्क दिया जाता है कि इन सभी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें निर्णय लेने में अधिक महिलाओं की आवश्यकता है। 

विधेयक के विरोध में क्या तर्क हैं?

प्रोफेसर निवेदिता मेनन लिखती हैं कि महिलाओं के लिए आरक्षण के विरोधियों का तर्क है कि यह विचार संविधान में निहित समानता के सिद्धांत के विपरीत है। उनका कहना है कि आरक्षण होने पर महिलाएं योग्यता के आधार पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगी, जिससे समाज में उनका दर्जा कम हो सकता है। दूसरा, महिलाएं, मान लीजिए, एक जाति समूह से भिन्न हैं, जिसका अर्थ है कि वे एक समरूप समुदाय नहीं हैं। इसलिए, जाति-आधारित आरक्षण के लिए जो तर्क दिए जाते हैं, वे महिलाओं के लिए नहीं दिए जा सकते। तीसरा, महिलाओं के हितों को अन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तरों से अलग नहीं किया जा सकता है। चौथा, कुछ लोगों का तर्क है कि संसद में सीटों का आरक्षण मतदाताओं की पसंद को महिला उम्मीदवारों तक सीमित कर देगा। इससे राजनीतिक दलों और दोहरे सदस्य निर्वाचन क्षेत्रों (जहां निर्वाचन क्षेत्रों में दो सांसद होंगे, उनमें से एक महिला होगी) में महिलाओं के लिए आरक्षण सहित वैकल्पिक तरीकों के सुझाव सामने आए हैं। लेकिन कुछ पार्टियों ने बताया है कि ये भी काम नहीं कर सकते हैं क्योंकि पार्टियां अजेय सीटों पर महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतार सकती हैं, या महिलाएं चुनाव लड़ सकती हैं लेकिन सत्ता में नहीं आ सकती हैं, या उन्हें गौण भूमिका में धकेल दिया जा सकता है। पांचवां, चूंकि पुरुषों के पास प्राथमिक शक्ति के साथ-साथ राजनीति में प्रमुख पद भी हैं, इसलिए कुछ लोगों ने यह भी तर्क दिया है कि महिलाओं को राजनीति में लाने से "आदर्श परिवार" नष्ट हो सकता है।

संसद में कितनी महिलाएं हैं?

भारतीय संसद में केवल 14% सदस्य महिलाएँ हैं, जो अब तक सबसे अधिक है। अंतर-संसदीय संघ के अनुसार, भारत के निचले सदन में महिलाओं का प्रतिशत नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों की तुलना में कम है - जो एक निराशाजनक रिकॉर्ड है।

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