हॉकी के 'Gold' बलबीर सिंह सीनियर, ओलंपिक ब्लेजर और मेडल देखने का सपना नहीं हो सका पूरा
तीन बार के ओलंपिक गोल्ड विजेता दुनिया के 16 आइकोनिक प्लेयर और खेलों में पहली बार पद्मश्री हासिल करने वाले इस महान खिलाड़ी और कप्तान की कहानी भी फिल्मी है। बलबीर सिंह सीनियर और उनकी मंजिल के बीच कई मुसीबतें आईं। लेकिन अपने हुनर और जज्बे के दम पर उन्होंने हर मुसीबत को मात दे दी
"उनके देश में, उनकी पब्लिक के सामने, उनके किंग के आगे, उन्हीं को हरायेंगे। भारतीय टीम अंग्रेज को लंदन में हराकर 200 साल की गुलामी का बदला लेगी।" वैसे तो ये एक फिल्म का डायलाग है। लेकिन कोई नाम जब एक किरदार में तब्दील में हो जाता है तो कहानी बन जाती है। कुछ कहानी कुछ सेंकेड जीती है, तो कुछ महीनों, कुछ साल और कुछ लोगों के जेहन में यादें बनकर रह जाती हैं बरसों।
साल 1948, तारीख 12 सितंबर, भारत अभी-अभी ब्रिटेन की ग़ुलामी से आज़ाद हुआ था। लंदन ओलंपिक्स, 25 हजार दर्शकों से भरा वेंबली स्टेडियम। हॉकी के फाइनल मुकाबले में आमने- सामने थे भारत और ब्रिटेन। फ़ाइनल शुरू हुआ तो सारे दर्शकों ने एक सुर में चिल्लाना शुरू किया, "कम ऑन ब्रिटेन, कम ऑन ब्रिटेन!" धीरे-धीरे हो रही बारिश से मैदान गीला और रपटीला हो चला था। नतीजा ये हुआ कि किशन लाल और केडी सिंह बाबू दोनों अपने जूते उतार कर नंगे पांव खेलने लगे। मैच का सातवां मिनट और एक लड़के ने भारत की तरफ से पहला गोल दागा। लोग संभले ही थे कि 15वें मिनट पर उसने दूसरी बार गेंद गोलपोस्ट में डाल दी। इसके बाद दो गोल तरलोचन सिंह बावा और पैट जैंसन ने किए। नतीजा आया तो भारत ने 4-0 से ब्रिटेन को मात दे दी थी। आज़ादी की लड़ाई के बाद एक और लड़ाई में। पहली बार इंग्लैंड की धरती पर किसी स्पोर्टिंग इवेंट में भारत का तिरंगा लहरा रहा था। भारत के लिए पहले दो गोल दागने वाले शख्स का नाम था बलबीर सिंह दोसांझ उर्फ बलबीर सिंह सीनियर। तीन बार के ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट हॉकी लेजेंड बलबीर सिंह सीनियर नहीं रहे। 25 मई को सुबह के 6:30 बजे चंडीगढ़ में उनका निधन हो गया। वो 96 साल के थे। उन्हें कई स्वास्थ्य समस्याएं थीं। मोहाली के फोर्टिस अस्पताल में उन्हें 8 मई को भर्ती किया गया था।
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ओलंपिक शब्द जब जुबान पर आता है तो जेहन में वह यादें ताजा हो जाती हैं। वह स्वर्णिम युग याद आता है, जब भारत ने इतिहास में गोल्ड मेडल जीतकर तहलका मचा दिया था। उस पल के, उस स्वर्णिम युग के ऐसे किरदार, ऐसे महान शख्स ऐसे महान कप्तान से हम आपको इस रिपोर्ट के जरिए रूबरू करवाएंगे। जिन्होंने पहली बार भारत से बाहर तिरंगे की शान को बढ़ाया था, तिरंगा ऊंचा किया था।
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कहते हैं जब किसी से आपको प्यार होता है फिर दुनिया की हर चीज छोटी लगने लग जाती है और जब मोहब्बत खेल से हो तो देश से प्यार होना लाजमी है। हॉकी से ऐसा ही प्यार या यूं कहिए जुनून बलबीर सिंह सीनियर को एक साधारण प्लेयर से इस मुकाम तक ले गया कि दुनिया उन्हें सलाम करने लगी। तीन बार के ओलंपिक गोल्ड विजेता दुनिया के 16 आइकोनिक प्लेयर और खेलों में पहली बार पद्मश्री हासिल करने वाले इस महान खिलाड़ी और कप्तान की कहानी भी फिल्मी है। बलबीर सिंह सीनियर और उनकी मंजिल के बीच कई मुसीबतें आईं। लेकिन अपने हुनर और जज्बे के दम पर उन्होंने हर मुसीबत को मात दे दी और देखते-देखते करोड़ों लोगों की आंखों का नूर बन गए।
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5 साल की उम्र में स्वतंत्रता सेनानी पिता ने हाथ में हॉकी स्टिक थमाई
पंजाब के हरिपुर खालसा गांव में 31 दिसंबर, 1923 को वो पैदा हुए। पिता सरदार दलीप सिंह और मां करम कौर। छुटपने में हॉकी की स्टिक हाथ में आई। मोगा में अपने स्कूल टीम में उन्होंने शुरुआत की गोलकीपर बनने से की। इसके बाद डिफेंडर और उसके बाद सेंटर फॉरवर्ड की पोजीशन पर खेले। अपनी आत्मकथा ‘द गोल्डन हैट-ट्रिक’ में उन्होंने कहा था कि जब वो पांच बरस के थे तब उनके स्वतंत्रता सेनानी पिता ने हॉकी स्टिक थमाई थी। पहले वो अविभाजित भारत में लाहौर के सिख नेशनल कॉलेज के लिए खेले। बलबीर सिंह सीनियर के खेल की चारों ओर चर्चा सुनने के बाद पंजाब पुलिस के चीफ सर जॉन बैनेट ने उन्हें पंजाब पुलिस की हॉकी टीम में शामिल करवाया। सीनियर को एएसआई बनाया गया। चूंकि सीनियर के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे, इसलिए वह उस समय अंग्रेजों के अधीन रही पंजाब पुलिस की नौकरी छोड़कर सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डेवलपमेंट (सीपीडब्ल्यूडी) के लिए खेलने चले गए। सीपीडब्ल्यूडी के कई टाइटल सीनियर ने जीते और गोल भी दागे। वहीं, जब पंजाब पुलिस को पता चला तो सर जॉन ने गुस्से में उन्हें वापस लेकर आने को कहा। पंजाब पुलिस रात में ही दिल्ली गई और उन्हें घर से गिरफ्तार करके जालंधर लेकर आई। तब उन्हें पुलिस की ओर से कहा गया कि या तो हॉकी खेलो या जेल जाओ। इसके बाद सीनियर ने हॉकी खेलना बेहतर समझा। वे 1941 से लेकर 1942 तक पंजाब पुलिस के लिए खेले। 1943, 1944, 1945 के ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी टाइटल्स में उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी टीम की अगुआई की। विभाजन से पहले 1947 में ही उन्होंने अविभाजित पंजाब के लिए नेशनल चैंपियनशिप खेली।
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1948 का लंदन ओलंपिक था बेहद खास
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1940 के ओलंपिक गेम्स रद्द हो गए थे। इसके बाद सीधे 1948 में ओलंपिक हुआ। लेकिन 1947 में हुए भारत के बंटवारे के बाद भारतीय हॉकी टीम बिखर गई थी। 1948 के ओलंपिक में टीम की कमान किशन लाल ने संभाली। 12 अगस्त 1948 का दिन स्वतंत्र भारत के खेल इतिहास में सबसे बड़ा दिन था। ये वो अभूतपूर्व क्षण 1948 के लंदन ओलंपिक से जुड़ा है, जब भारत अपनी स्वतंत्रता का एक साल पूरा करने वाला था। फाइनल में बलबीर ने चार में से अकेले दो गोल दागे थे। यह सफलता भारत पर वर्षों राज करने वाले उसी मेजबान ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ थी। बलबीर सीनियर ने कहा था, 'मुझे अभी भी याद है कि मैच शुरू होने से पहले ब्रिटेन का वेंबली स्टेडियम अंग्रेज प्रशंसकों के शोर से गूंज रहा था। हमने शुरुआती बढ़त बना ली और बाद में एक और गोल दागा। हाफ टाइम के बाद कुछ अंग्रेज प्रशंसकों ने भारत का समर्थन करना शुरू कर दिया और आधा दर्जन गोल करने के लिए हमारा हौसला बढ़ाने लगे थे। 1948 के लंदन ओलंपिक्स पर 2018 में अक्षय कुमार की फिल्म ‘गोल्ड’ आई थी। इसमें विकी कौशल के भाई सनी कौशल ने हिम्मत सिंह का रोल किया था, जो बलबीर सिंह सीनियर से प्रेरित था।
2018 में भारत के पहले ओलंपिक स्वर्ण पदक के 70 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में चंडीगढ़ प्रेस क्लब की ओर से आयोजित विशेष कार्यक्रम के दौरान बलबीर सीनियर ने जीत के उस गौरवशाली पल को साझा किया था। उन्होंने कहा था, 'जब हमारा राष्ट्रगान बजाया जा रहा था और तिरंगा ऊपर जा रहा था, मुझे लगा कि मैं भी ध्वज के साथ उड़ रहा था। देशभक्ति की भावना जो मैंने महसूस की, वह दुनिया में किसी भी अन्य भावना से परे थी। बलबीर सीनियर ने कहा, 'हम सभी के लिए यह गर्व का क्षण था, जब हमने इंग्लैंड को हराया, जो एक साल पहले तक भारत पर शासन कर रहा था।
तीन ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते
पहला गोल्ड- बलबीर सीनियर ने पहला स्वर्ण पदक लंदन में 1948 में जीता। जिसका की जिक्र हमने ऊपर किया। कुछ दिनों बाद दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में ओलंपिक विजेताओं और शेष भारत की टीम के बीच एक नुमाइशी हॉकी मैच खेला गया जिसे देखने के लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी स्टेडियम में मौजूद थे।
दूसरा गोल्ड- हेलसिंकी- 1952- हेलिंस्की में हुए 1952 के ओलंपिक खेलों में भी बलबीर सिंह को भारतीय टीम में चुना गया. वहाँ उन्हें 13 नंबर की जर्सी पहनने के लिए दी गई। 13 नंबर बलबीर के लिए भाग्य ले कर आया. पूरे टूर्नामेंट में भारत ने कुल 13 गोल स्कोर किए और उनमें से 9 गोल बलबीर सिंह ने मारे थे। साल 1952 में हेलिंस्की ओलंपिक में बलबीर सिंह भारतीय दल के ध्वजवाहक बने थे।
तीसरा गोल्ड- मेलबर्न- 1956 में मेलबर्न ओलंपिक हॉकी टीम के कप्तान बलबीर सिंह थे। पहले मैच में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को 14-0 से हराया लेकिन भारत को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब कप्तान बलबीर सिंह के दाँए हाथ की उंगली टूट गई। मंत्रणा हुई और ये तय किया गया कि बलबीर सिंह को बाक़ी के लीग मैचों में नहीं उतारा जाएगा और सिर्फ़ सेमी फ़ाइनल और फ़ाइनल में मुझे उतारा जाएगा। भारतीय टीम जर्मनी को हरा कर फ़ाइनल में पहुंची। फ़ाइनल में आमने-सामने था भारत और पाकिस्तान पाकिस्तान और धड़कनों का था इम्तिहान। भारत पर दबाव ज़्यादा था, क्योंकि अगर पाकिस्तान को रजत पदक भी मिलता तो उनके लिए ये संतोष की बात होती। लेकिन भारत के लिए स्वर्ण से नीचे का कोई पदक निराशापूर्ण बात होती। बलबीर की दाहिनी उंगली में पलास्टर बंधा हुआ था और वो तीन पेनकिलर इंजेक्शन ले कर मैदान में उतरे थे और तीसरी बार भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता।
नाम में 'सीनियर' शब्द कैसे जुड़ा
बलबीर सिंह के नाम में सीनियर शब्द कैसे जुड़ा, इसको लेकर भी एक दिलचस्प किस्सा है। पूरा नाम बलबीर सिंह दोसांझ था। एक समय पर भारतीय हॉकी टीम में चार ऐसे प्लेयर्स थे, जिनका नाम बलबीर सिंह था। ट्रिपल ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट बलबीर सीनियर सभी में एक्सपीरिएंस्ड थे, इसलिए उनके नाम के साथ सीनियर लिखा गया।
बलबीर सिंह का ओलंपिक ब्लेजर और मेडल हो चुके गुम
ओलंपिक कप्तान का अपना ब्लेजर और मेडल को दोबारा देखने का सपना दिल में लिए बलबीर सिंह सीनियर दुनिया से विदा हो गए। जीते जी उनकी तमन्ना थी कि कम से कम एक बार तो वह अपने ब्लेजर को हाथों में लेकर मेडलों को चूम सकें। लेकिन जीते जी उनकी यह हसरत पूरी नहीं हो सकी। तीन बार ओलंपिक स्वर्ण पदक जीत चुके पूर्व हॉकी धुरंधर बलबीर सीनियर ने 1985 में खेल संग्रहालय के लिए स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) को हॉकी की अपनी धरोहरें दी थीं। इनमें 36 पदक, 120 ऐतिहासिक तस्वीरें और 1956 मेलबर्न ओलंपिक का उनका कप्तान का ब्लेजर भी शामिल रहा।
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ऐसे लगा था मेडल गुम होने का पता
1996 में हुए लंदन ओलंपिक में बलबीर सिंह सीनियर को दुनिया के 16 महान ओलंपियनों में चुना गया था। उनके स्मृति चिन्हों की वहां नुमाइश होनी थी। इसके लिए उनका ओलंपिक ब्लेजर भी चाहिए था। इसके बाद जब बलबीर सिंह ने अपना ब्लेजर साई से मांगा तो उन्हें बताया कि उनके मेडल और ब्लेजर सहित अन्य समान गुम को चुका है। यह जानकार बलबीर सिंह और उनके परिवार को गहरा सदमा लगा था। इसके बाद बलबीर सिंह सीनियर की बेटी सुशबीर कौर ने आरटीआई दायर की, अधिकारियों के पास गए, विभिन्न खेल मंत्रियों से मिले लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
बहरहाल, अपने देश के लिये बलबीर सिंह सीनियर ने इतनी उपलब्धियां हासिल की और उनका दर्जा किसी महानायक से कम नहीं है।’’ कुल मिलाकर सौ बात की एक बात कि वो किसी हीरो की तरह थे और आने वाली कई पीढ़ियों के लिये रहेंगे।Our Sportsman never get the recognition they deserved. In 1985 Balbir Singh donated all his medals including the 3 Olympic gold & his historic Melbourne blazer to SAI for a museum but till date no-one knows the whereabouts of his memorabilia. What a Shame.https://t.co/VKv0sZ1RAY
— Kanwal Singh (@Kanwalj22895432) May 26, 2020
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