क्या महात्मा गांधी ने सच में भगत सिंह को बचाने की नहीं की थी कोशिश?
17 फरवरी 1931 को गांधी और इरविन के बीच बातचीत हुई। इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ। भगत सिंह के समर्थक चाहते थे कि गांधी इस समझौते की शर्तों में भगत सिंह की फांसी रोकना शामिल करें। लेकिन गांधी जी ने ऐसा नहीं किया।
1931 का वो साल जब केवल 23 साल के भगत सिंह देश के लिए सूली पर चढ़ गए। जब कभी भी भगत सिंह की शहादत की बात होती है तो महात्मा गांधी की चर्चा जरूर आ जाती है, खासकर उनकी भूमिका को लेकर। भगत सिंह के फांसी से दुखी कई लोगों ने महात्मा गांधी को जिम्मेदार ठहराया। इसके साथ ही यह दलील दी गई कि गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रूक सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उस वक्त भी लोगों ने महात्मा गांधी की आलोचना की थी और वर्तमान दौर में भी गांधी के आलोचक इसी विषय को लेकर उनकी और स्वतंत्रता को लेकर उनकी लड़ाई की आलोचना करते हैं। लेकिन क्या सच में महात्मा गांधी भगत सिंह की फांसी नहीं रोकना चाहते थे। इस विषय को लेकर सालों से चली आ रही बहस को तथ्यों के साथ समझने की कोशिश करते हैं।
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पूर्ण स्वराज को लेकर गांधी और भगत सिंह के रास्ते बिलकुल अलग थे। गांधी अहिंसा को सबसे बड़ा हथियार मानते थे और उनका कहना था कि "आंख के बदले में आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी", जबकि भगत सिंह का साफ मानना था कि बहरों को जगाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गई थी। उनकी फांसी के लिए 24 मार्च 1931 की तारीख तय की गई।
कोर्ट ट्रायल और भूख हड़ताल की वजह से भगत सिंह और उनके साथी युवाओं के बीच में काफी लोकप्रिय हो गए थे। 1931 में जब भगत सिंह को फांसी दी गई थी तब तक उनका कद भारत के सभी नेताओं की तुलना में अधिक हो गया था। पंजाब में तो लोग महात्मा गांधी से ज्यादा भगत सिंह को पसंद करते थे।
क्या सच में महात्मा गांधी ने नहीं की फांसी रोकने की कोशिश
17 फरवरी 1931 को गांधी और इरविन के बीच बातचीत हुई। इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ। इस समझौते में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने के दौरान पकड़े गए सभी कैदियों को छोड़ने की बात तय हुई। मगर, राजकीय हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पाने वाले भगत सिंह को माफ़ी नहीं मिल पाई। भगत सिंह के समर्थक चाहते थे कि गांधी इस समझौते की शर्तों में भगत सिंह की फांसी रोकना शामिल करें। लेकिन गांधी जी ने ऐसा नहीं किया। इसके पीछे की वजह यंग इंडिया अखबार में लिखे लेख में बताई गई। उन्होंने लिखा, "कांग्रेस वर्किंग कमिटी भी मुझसे सहमत थी। हम समझौते के लिए इस बात की शर्त नहीं रख सकते थे कि अंग्रेजी हुकूमत भगत, राजगुरु और सुखदेव की सजा कम करे। मैं वायसराय के साथ अलग से इस पर बात कर सकता था। गांधी ने वायसराय से 18 फरवरी को अलग से भगत सिंह और उनकी साथियों की फांसी के बारे में बात की। इसके बारे में उन्होंने लिखा, ''मैंने इरविन से कहा कि इस मुद्दे का हमारी बातचीत से संबंध नहीं है। मेरे द्वारा इसका जिक्र किया जाना शायद अनुचित भी लगे। लेकिन अगर आप मौजूदा माहौल को बेहतर बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए। गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कानूनी रास्ते भी तलाशने शुरू किए।
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29 अप्रैल, 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा, "इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की। लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला। गांधी के सामने बड़ी परेशानी ये थी कि ये क्रांतिकारी खुद ही अपनी फांसी का विरोध नहीं कर रहे थे। गांधी एक कोशिश में थे कि भगत सिंह और उनके साथी एक वादा कर दें कि वो आगे हिंसक कदम नहीं उठाएंगे। इसका हवाला देकर वो अंग्रेजों से फांसी की सजा रुकवा लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भगत सिंह को फांसी दिए जाने के बाद गांधी का विरोध
24 मार्च, 1931 का दिन यानी भगत सिंह को फांसी दिए जाने की अगली सुबह। लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ गई। लेकिन ये आक्रोश सिर्फ अंग्रेजों नहीं बल्कि गांधी जी के ख़िलाफ़ भी था क्योंकि उन्होंने इस बात का आग्रह नहीं किया कि 'भगत सिंह की फांसी माफ़ नहीं तो समझौता भी नहीं। 'महात्मा गांधी जैसे ही कराची (आज का पाकिस्तान) के पास मालीर स्टेशन पर पहुंचे, तो एक नौजवान ने काले कपड़े से बने फूलों की माला गांधीजी को भेंट की। स्वयं गांधीजी के शब्दों में, ‘काले कपड़े के वे फूल तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे।’25 मार्च को दोपहर में कई लोग उस जगह पहुंच गए जहां पर गांधी जी ठहरे हुए थे। रिपोर्टों के अनुसार, 'ये लोग चिल्लाने लगे कि 'कहां हैं खूनी'। 26 मार्च को कराची में प्रेस के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा - ‘मैं भगत सिंह और उनके साथियों की मौत की सजा में बदलाव नहीं करा सका और इसी कारण नौजवानों ने मेरे प्रति अपने क्रोध का प्रदर्शन किया है। बेशक, उन्होंने ‘गांधीवाद का नाश हो’ और ‘गांधी वापस जाओ’ के नारे लगाए और इसे मैं उनके क्रोध का सही प्रदर्शन मानता हूं। इसके साथ ही उन्होंने आगे कहा कि भगत सिंह के साहस और बलिदान के सामने मस्तक नत हो जाता है। लेकिन यदि मैं अपने नौजवान भाइयों को नाराज किए बिना कह सकूं तो मुझे इससे भी बड़े साहस को देखने की इच्छा है। मैं एक ऐसा नम्र, सभ्य और अहिंसक साहस चाहता हूं जो किसी को चोट पहुंचाए बिना या मन में किसी को चोट पहुंचाने का तनिक भी विचार रखे बिना फांसी पर झूल जाए।
भगत सिंह की फांसी से नेताजी और महात्मा गांधी में बढ़ा था विवाद
1928 में कांग्रेस के गोवाहाटी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस और गांधी के बीच मतभेद के बीज पड़ गए। सुभाष चंद्र पूर्ण स्वराज से कम किसी भी चीज पर मानने को तैयार नहीं थे। कांग्रेस के अंदर सुभाष चंद्र बोस समेत कई लोगों ने भी गांधी जी और इरविन के समझौते का विरोध किया। वे मानते थे कि अंग्रेज सरकार अगर भगत सिंह की फ़ांसी की सज़ा को माफ़ नहीं कर रही थी तो समझौता करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। 23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी गई तो महात्मा गांधी से उनके मतभेद और बढ़ गए। नेताजी को ये लगा कि अगर गांधी जी चाहते तो उनकी फांसी रूक जाती।
वायसराय ने अपनी किताब में किया उल्लेख
वायसराय लार्ड इरविन ने भगतसिंह की फांसी के कई दशक बाद अपनी आत्मकथा लिखी। उसमें सिलसिलेवार इस घटनाक्रम की जानकारी और लोगों के नाम लिखे गए हैं। तत्कालीन वायसराय ने अपनी जीवनी में लिखा है कि उनके पास तीन विकल्प थे पहला यह कि कुछ नहीं किया जाए और फांसी होने दी जाए। दूसरा यह कि आज्ञा बदल दी जाए और भगतसिंह की सजा घटा दी जाए। तीसरा यह कि कराची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन तक इस मामले को टाल दिया जाए। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे कागजात इस बात की पुष्टि करते हैं। पुस्तक में सान्याल ने लिखा है कि दो दिन यानी 18 फरवरी और 19 मार्च को गांधी जी ने भगतसिंह के संबंध में बात की। लार्ड इर्विन ने अपने रोजनामचे में लिखा है- दिल्ली में जो समझौता हुआ उससे अलग और अंत में मिस्टर गांधी ने भगतसिंह का उल्लेख किया।
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भगत सिंह की फांसी की सजा माफ कराने को लेकर गांधी जी के प्रयासों पर उठते सवाल और उसके बचाव में कुछ दिए गए तर्कों से इतर इस विषय पर मौजूद रिसर्च के आधार पर ये कहा जा सकता है कि फांसी के दिन से पहले गांधी और वायसराय के बीच जो चर्चा हुई, उसमें भगत सिंह की फांसी के मुद्दे को गांधी जी ने गैरज़रूरी माना। लेकिन इसके साथ ही गांधी जी ने वायसराय को अपनी पूरी शक्ति लगाकर समझाने का दबाव बनाया हो, इस तरह के सबूतों को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।
अब एक सवाल जो सीधा-सीधा आपसे-हमसे और इस देश के राजनेताओं से कि क्या अगर भगत सिंह को फांसी नहीं हुई होती, तो भी क्या वो हमारे लिए इतनी ही अहमियत रखते? ये सवाल कचोटने वाला जरूर है लेकिन पूछा जाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नेशनल असेंबली में बम फेंकते समय भगत सिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त भी थे। अंग्रेजी सरकार ने उनको उम्रकैद की सज़ा सुना दी और अंडमान-निकोबार की जेल में भेज दिया, जिसे कालापानी की सज़ा भी कहा जाता है। देश आज़ाद होने के बाद बटुकेश्वर दत्त भी रिहा कर दिए गए। लेकिन दत्त को जीते जी भारत ने भुला दिया। इस बात का खुलासा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब “बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगी” में किया गया।
बटुकेश्वर दत्त ने एक सिगरेट कंपनी में एजेंट की नौकरी कर ली। बाद में बिस्कुट बनाने का एक छोटा कारखाना भी खोला, लेकिन नुकसान होने की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा। भारत में उनकी उपेक्षा का एक किस्सा इस किताब में दर्ज है जब बसों के लिए परमिट बनवाने के लिए आवेदन देने गए बटुकेश्वर दत्त से स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगा गया और स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा गया। अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए। उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनको इस हालत में देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखा कि क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है। अखबारों में इस लेख के छपने के बाद सत्ता में बैठे लोग मदद के लिए आगे आए। 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर पचास मिनट पर भारत के इस महान सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया। - अभिनय आकाश
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