Reservation पर मुसलमानों की दावेदारी, किन राज्यों में ऐसी व्यवस्था, क्या है भारत में धर्म-आधारित आरक्षण का पूरा इतिहास

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Prabhasakshi
अभिनय आकाश । May 7 2024 12:16PM

क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म आधारित आरक्षण हो सकता है? क्या कभी मुसलमानों को अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कोटा कम करके आरक्षण दिया गया है? क्या अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण जो केवल कुछ धार्मिक संप्रदायों तक सीमित है, धर्म के आधार पर आरक्षण के बराबर है?

आरक्षण एक ऐसा शब्द जिसकी स्थापना हमारे समाज में समानता को स्थापित करने के प्रयास के लिहाज से की गई थी। जिसके माध्यम से समाज के कमजोर वर्ग को सशक्त बनाया जाए ऐसी कोशिश की गई। लेकिन जब इसी शब्द का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए होता है तो ये अपने मूल्य उद्देश्यों को अपनी मूल भावना को खो देता है और यही से विवाद का भी जन्म होता है। जातीय व्यवस्था ऊपर से जितनी सरल दिखाई देती है अंदर से ये व्यवस्था उतनी ही ज्यादा जटिल है। जब पूरी व्यवस्था में धर्म का आयाम जुड़ जाता है तो पूरी व्यवस्था औऱ ज्यादा जटिल हो जाती है। चुनाव के माहौल में मुस्लिम आरक्षण को लेकर एक विवाद का जन्म हुआ है। ऐसे में आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण का मामला फिर से सुर्खियों में आया है। भारत आरक्षण के इर्द-गिर्द बुनियादी संवैधानिक सवालों पर बहस कर रहा है। क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म आधारित आरक्षण हो सकता है? क्या कभी मुसलमानों को अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कोटा कम करके आरक्षण दिया गया है? क्या अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण जो केवल कुछ धार्मिक संप्रदायों तक सीमित है, धर्म के आधार पर आरक्षण के बराबर है?

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धर्म आधारित आरक्षण पर भारतीय संविधान क्या कहता है?

हाल ही में एक इंटरव्यू में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धर्म आधारित आरक्षण का जिक्र करते हुए कहा कि जब संविधान लिखा गया था, उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू, बाबासाहेब अंबेडकर और राजेंद्र बाबू जैसे नेता वहां थे; आरएसएस या बीजेपी से कोई नहीं था और सभी समुदायों के प्रतिनिधि भी थे। एक लंबी चर्चा के बाद, यह निर्णय लिया गया कि धर्म के आधार पर आरक्षण समाज के लिए हानिकारक होगा। ई पी रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य, 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि समानता कई पहलुओं और आयामों के साथ एक गतिशील अवधारणा है और इसे पारंपरिक और सैद्धांतिक सीमाओं के भीतर कैद और सीमित नहीं किया जा सकता है। वास्तविक समानता का संबंध परिणामों की समानता से है। सकारात्मक कार्रवाई वास्तविक समानता के इस विचार को बढ़ावा देती है। 1949 के संविधान ने प्रारूप संविधान के अनुच्छेद 296 (वर्तमान संविधान के अनुच्छेद 335) से 'अल्पसंख्यक' शब्द को हटा दिया, लेकिन अनुच्छेद 16(4) को इसमें शामिल कर दिया, जो राज्य को किसी के भी पक्ष में आरक्षण के लिए कोई भी प्रावधान करने में सक्षम बनाता है। अनुच्छेद 15 विशेष रूप से राज्य को केवल धर्म और जाति (लिंग, नस्ल और जन्म स्थान के साथ) दोनों के आधार पर नागरिकों के खिलाफ भेदभाव करने से रोकता है। केरल राज्य बनाम एन एम थॉमस (1975) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, आरक्षण को अनुच्छेद 15(1) और 16(1) के समानता/गैर-भेदभाव खंड का अपवाद नहीं माना जाता है, बल्कि समानता के विस्तार के रूप में माना जाता है।

केरल: मुस्लिम सब-कोटा

धर्म-आधारित आरक्षण पहली बार 1936 में त्रावणकोर-कोचीन राज्य में लागू किया गया था। 1952 में इसे सांप्रदायिक आरक्षण से बदल दिया गया। मुस्लिम, जिनकी आबादी 22% थी, ओबीसी में शामिल थे। 1956 में केरल राज्य के गठन के बाद, सभी मुसलमानों को आठ उप-कोटा श्रेणियों में से एक में शामिल किया गया था और ओबीसी कोटा के भीतर 10% (अब 12%) का एक उप-कोटा बनाया गया था। मंडल आयोग की दोषपूर्ण रिपोर्ट के विपरीत, जिसमें हिंदुओं की तर्ज पर निष्कर्ष निकाला गया था कि केरल और कर्नाटक में केवल 52% मुस्लिम ओबीसी थे।

कर्नाटक: जद(एस) का फैसला

जस्टिस ओ चिन्नप्पा रेड्डी (1990) की अध्यक्षता में कर्नाटक के तीसरे पिछड़ा वर्ग आयोग ने हवानूर (1975) और वेंकटस्वामी (1983) आयोग की तरह पाया कि मुसलमानों ने पिछड़े वर्गों में शामिल होने की आवश्यकताओं को पूरा किया। 1995 में मुख्यमंत्री एच डी देवेगौड़ा की सरकार ने ओबीसी कोटा के भीतर 4% मुस्लिम आरक्षण लागू किया। ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल छत्तीस मुस्लिम जातियों को कोटा में शामिल किया गया था। देवेगौड़ा की जद (एस) ने 2023 के विधानसभा चुनावों से पहले मुस्लिम कोटा खत्म करने के बसवराज बोम्मई सरकार के फैसले की आलोचना की थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई सरकार के फैसले पर रोक लगा दी। 

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तमिलनाडु: पिछड़े मुसलमान

एम करुणानिधि की सरकार ने 2007 में जे ए अंबाशंकर (1985) की अध्यक्षता वाले दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों के आधार पर एक कानून पारित किया, जिसमें 30% ओबीसी कोटा के भीतर, 3.5% आरक्षण के साथ मुसलमानों की एक उप-श्रेणी प्रदान की गई। इसमें ऊंची जाति के मुसलमान शामिल नहीं थे। इस अधिनियम में कुछ ईसाई जातियों को आरक्षण दिया गया था, लेकिन बाद में ईसाइयों की ही मांग पर इस प्रावधान को हटा दिया गया।

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना

112 अन्य समुदायों/जातियों के साथ मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रश्न 1994 में आंध्र प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग को भेजा गया था। 2004 में मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन पर अल्पसंख्यक कल्याण आयुक्त की एक रिपोर्ट के आधार पर, सरकार ने पूरे समुदाय को पिछड़ा मानते हुए 5% आरक्षण प्रदान किया। उच्च न्यायालय ने तकनीकी आधार पर कोटा रद्द कर दिया कि पिछड़ा वर्ग के लिए एपी आयोग के साथ अनिवार्य परामर्श नहीं किया गया था। यह भी माना गया कि अल्पसंख्यक कल्याण रिपोर्ट कानून की दृष्टि से खराब थी क्योंकि इसमें पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए कोई मानदंड नहीं रखा गया था। हालाँकि, अदालत ने माना कि "मुसलमानों या उनके वर्गों/समूहों के लिए आरक्षण, किसी भी तरह से धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं है। एम आर बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1962) पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा कि मुसलमानों या उस मामले के लिए ईसाई और सिख आदि को अनुच्छेद 15(4) या 16(4) के तहत लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से बाहर नहीं रखा गया है। एम आर बालाजी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा: यह संभावना नहीं है कि कुछ राज्यों में समूह बनाने वाले कुछ मुस्लिम या ईसाई या जैन सामाजिक रूप से पिछड़े हो सकते हैं। .यद्यपि हिंदुओं के संबंध में जातियाँ नागरिकों के समूहों या वर्गों के सामाजिक पिछड़ेपन का निर्धारण करने में विचार करने के लिए एक प्रासंगिक कारक हो सकती हैं, लेकिन इसे उस संबंध में एकमात्र या प्रमुख परीक्षण नहीं बनाया जा सकता है।

सच्चर, मिश्रा पैनल

न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर समिति (2006) ने पाया कि समग्र रूप से मुस्लिम समुदाय लगभग एससी और एसटी जितना ही पिछड़ा है और गैर-मुस्लिम ओबीसी की तुलना में अधिक पिछड़ा है। न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा समिति (2007) ने अल्पसंख्यकों के लिए 15% आरक्षण का सुझाव दिया, जिसमें मुसलमानों के लिए 10% आरक्षण शामिल था। इन दो रिपोर्टों के आधार पर यूपीए सरकार ने 2012 में एक कार्यकारी आदेश जारी किया, जिसमें 27% के मौजूदा ओबीसी कोटा के भीतर अल्पसंख्यकों को 4.5% आरक्षण प्रदान किया गया। चूंकि यह आदेश यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही जारी किया गया था, इसलिए चुनाव आयोग ने सरकार से इसे लागू नहीं करने को कहा।  आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने आदेश को रद्द कर दिया। वहीं ने उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।

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