गई हाथ से नौकरी (व्यंग्य)

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Prabhasakshi

मैं कुछ पूछने ही वाला था कि तभी मित्र का फोन बज उठा। पता चला कि कहीं आग लगी है। वे सहानुभूति और सेवा के मलहम से लोगों में दिखावा और अपने मतलब की रोटियाँ सेंकने के लिए आपदा में अवसर बनकर वहाँ से रफू चक्कर हो गए।

दो गज की दूरी बनाने के चक्कर में निजी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों से ऐसी दूरी बनाई कि फिर कभी पास आने की जरूरत नहीं पड़ी। बेचारे कर्म के आचार से मुक्त कर्मचारी बेरोजगारी की खूंटी से बंधकर जिंदगी पर बोझ बनने के लिए मजबूर हैं। ऐसे ही हमारे एक मित्र नौकरी से हाथ धोकर बड़े इत्मिनान से घूम रहे हैं। नौकरी खोने पर इत्मिनान से घूमने वाले दो ही किस्म के आदमी हो सकते हैं, एक वो जो नौकरी से परेशान हैं और दूसरे वो जिन्हें एक और नई नौकरी मिल चुकी है। हमारे मित्र दूसरी कैटेगिरी के हैं। एक दिन वे मुझसे सुबह की सैर में मिल गए। चूंकि उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा था, इसलिए मैंने बातचीत की शुरुआत की।

“पहले तो तुम वाकिंग के लिए आना तो दूर वाकिंग का नाम सुनते ही चिढ़ उठते थे। इतना बदलाव कैसे आया?” 

“पहले मैं किसी बॉस का गुलाम था। कई प्रोजेक्टों का दबाव था। सो मुझे समय नहीं मिलता था। वैसे भी वाकिंग बड़े लोगों का चोंचला है। बेफिजूल में खाते हैं और मटरगश्ती करने के लिए वाकिंग करने का बहाना ढूँढ़ते रहते हैं।”

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“ओह! इसका मतलब अब तुम आजाद हो। क्या इसीलिए मटरगश्ती करने यहाँ आए हो?”

“आजाद तो मैं अब भी नहीं हूँ। जहाँ तक वाकिंग का सवाल है तो मैं मटरगश्ती के लिए नहीं जनसंपर्क साधने के लिए करता हूँ।”

“अरे! ऐसा कौनसा तीर मार रहे हो, जो वाकिंग को जनसंपर्क का नाम देने पर आमदा हो चुके हो?”

“आजकल मैं नेतागिरी कर रहा हूँ।” 

“अच्छा! नेतागिरी का मतलब समझते भी हो?”

“हे मित्र! नेतागिरी का मतलब तुम और तुम्हारे जैसे लाखों लोग नहीं जानते। कभी झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर पूछो कि मैं कौन हूँ? तब वहाँ रहने वाले बूढ़े से लेकर बच्चे तक बतायेंगे कि मेरी जनसेवा कैसी है। उन्हें रहने के लिए छत नहीं है, पहनने के लिए कपड़े नहीं है, खाने के लिए खाना नहीं है और बीमार पड़ने पर दवा-दारू के लिए रुपया-पैसा नहीं है।”

“अच्छा! तो यह सब क्या तुम मुहैया कराते हो?”

“नहीं! इन सभी समस्याओं से कैसे निजात पाया जाए उसके उपाय बताता हूँ। वैसे भी नेता काम करना मार्गदर्शन करना होता है न कि मार्ग के लोगों की सहायता करना।”

“अरे वाह क्या बात कही है! वैसे यह नेतागिरी का भूत तुम्हारे सिर पर कब से सवार हुआ है?”

“जब से मैंने नौकरी खोई है तब से। उस दिन से मुझे झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों में एक अजीब सी गंध आती है। वहाँ रहने वालों की पीड़ा सुनाई देती है। इसलिए मैंने निर्णय किया है कि मैं अपना तन-मन जनता की सेवा में समर्पित करूँगा।”

“इससे तुम्हारा घर कैसे चलता है?”

“तुम बड़े नादान हो! मैं भी पहले यही सोचता था। लेकिन नेतागिरी करने के अपने ही फायदे हैं। नेतागिरी म्युचुअल फंड की तरह होता है। पहले पहल कुछ लाभ नहीं मिलता। लेकिन धीरे-धीरे लोगों से घुलने-मिलने से जान-पहचान बढ़ती है। छोटे मेरे बड़प्पन पर, बड़े मेरी सादगी पर और स्त्रियाँ मेरे आकर्षण से मोहित होकर बड़ा प्रेम लुटाते हैं। मैं भी जब-तब सुंदर बालाओं पर हाथ फेर लेता हूँ। उन्हें इसके बदले में कुछ रुपया-पैसा दे देता हूँ। अब तुम सोच रहे होगे कि मेरे पास पैसा कहाँ से आता है? जनसेवा से! हाँ, जनसेवा करने से बड़-बड़े लोग मुझे रुपया-पैसा देते हैं। नहीं देने पर जनता के नाम पर भड़का देता हूँ और वे डर के मारे दे भी देते हैं। यही एक ऐसा लाईन है जहाँ इन्वेस्टमेंट नहीं होता सिर्फ और सिर्फ इनकम होता है।”

मैं कुछ पूछने ही वाला था कि तभी मित्र का फोन बज उठा। पता चला कि कहीं आग लगी है। वे सहानुभूति और सेवा के मलहम से लोगों में दिखावा और अपने मतलब की रोटियाँ सेंकने के लिए आपदा में अवसर बनकर वहाँ से रफू चक्कर हो गए। 

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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