मानसिक उदगारों की शारीरिक कुश्तियां (व्यंग्य)
खुराफाती वक़्त की ज़रूरतों के मद्देनज़र, खुद को बड़ा मानने वाले इन तथाकथित माननीयों को सीधे सीधे कुछ ऐसे अवसर दिए जाने चाहिए जिससे नई लोकतान्त्रिक परम्पराओं की पुख्ता नीवं पड़े। इनके ब्यान और हरकतें बार बार संपादित की जाती रही हैं।
ऐसा माना गया है कि युद्ध कैसा भी हो दिमाग से लड़ा जाता है । एक सच यह भी है कि जितना मर्ज़ी भाषण दो, विदेशी, ब्रांडेड, महंगे कपड़े पहन लो, बड़ा बनने की नहीं दिखने की कोशिश कर लो, इंसान की खसलत नहीं बदलती। पिछले दिनों देश की सबसे बड़ी सभा में दो लड़ाकुओं ने अपनी बातों के दांव पेच दिखा कर साबित करना चाहा कि वे पहलवान हैं और सभा में ही कुश्ती के जौहर दिखा सकते हैं लेकिन बेचारी नौबत थोड़ी सुस्त रही, हाथापाई होते होते रह गई। आरोप और प्रत्यारोपों के बीच वाकयुद्ध खूब हुआ। उनके राजनीतिक शरीरों ने काफी कोशिश की कि नया इतिहास रच दिया जाए लेकिन दिमाग ने होने नहीं दिया। बेचारा वक़्त वंचित रह गया। अगर इस न हो सकने वाली लोकतान्त्रिक कुश्ती की रीलें बनती और वायरल होती तो भूखी और रोजगार ढूंढती जनता को स्वादिष्ट खाना मिल जाता।
खुराफाती वक़्त की ज़रूरतों के मद्देनज़र, खुद को बड़ा मानने वाले इन तथाकथित माननीयों को सीधे सीधे कुछ ऐसे अवसर दिए जाने चाहिए जिससे नई लोकतान्त्रिक परम्पराओं की पुख्ता नीवं पड़े। इनके ब्यान और हरकतें बार बार संपादित की जाती रही हैं मगर अब इन्हें कुछ देर के लिए, सभा स्थल में ही मनचाही कुश्ती लड़ने का अवसर दिया जाना चाहिए ताकि इनके शरीर और दिमाग को त्वरित ठंडक पहुंचे। इससे लोक और तंत्र की इज्ज़त भी बढ़ जाएगी। विचार जब शरीर से प्रकट करने की तमन्ना करने लगें तो कुश्ती होनी ही चाहिए। इन जोशीले लोगों के लिए एक वातानुकूलित कक्ष भी बनाया जा सकता है, चाहें तो पहले वहीँ पर बैठकर ज़बान से लड़ लें। कुछ देर बाद वहीँ पर शारीरिक उदगार भी निकाल सकते हैं। इस नैतिक आयोजन से दुनिया भर के नेताओं को प्रेरणा मिल सकती है।
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हमारे, विश्वगुरु देश में तो पौराणिक युग से यह रिवायत रही है कि पहले युद्ध में शब्दों से वार किया जाए, आंखे तरेर कर हवा में हाथ हिला हिलाकर भारी भरकम डायलॉग बोले जाएं जिनमें एक से एक तीखे शब्दों का प्रयोग हो ताकि भड़ास, दिमाग और ज़बान से होते हुए माहौल में वीर रस घोल दे। उचित माहौल बन जाने के बाद ही अस्त्र और शस्त्रों का प्रयोग किया जाता था ताकि खून बह सके। लेकिन अब हम सभ्य हो चुके हैं इसलिए ऐसा नहीं कर सकते।
बड़ी सभाओं के सदस्य किन चीज़ों के वास्तविक ब्रांड हैं यह वे भी जानते हैं। बेचारी व्यवस्था उनकी पहली ज़िम्मेदारी समाज और राष्ट्र कल्याण का अभिनय करने की मानती है। मानसिक उदगारों की शारीरिक कुश्तियां लड़ने से पहले उन्हें वह करना भी सीखना चाहिए।
- संतोष उत्सुक
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