आओ संहिता का अचार डालें (व्यंग्य)
जब मौका हो और दस्तूर भी हो, अचार डालने की पूरी क्या नई नई सामग्री भी उपलब्ध हो तो अचार कैसे न डालें। सरकारी घोषणा हो नहीं सकती लेकिन संभावित विजेता ख़ास ख़ास वोटरों के कान में तो घोषणा कर ही सकते हैं।
संहिता का अर्थ है जुड़ना, जोड़ना, संयोग, मेल, संग्रह, एक साथ रखना। संहिता वेदों में पाठ की सबसे प्राचीन परत का सन्दर्भ भी है जिसमें भजन, मंत्र, प्रार्थनाएं और आशीर्वाद शामिल हैं। आचार के साथ इसे जोड़ दिया जाए तो इसका प्रयोग और निर्मल, सुधरा हुआ व्यवहारिक हो जाता है। इसे आदर्श आचार संहिता कहो तो आदर्शों का अच्छा आचार यानी सद्व्यवहार का खेला सरे आम होने लगता है। इसमें चुनाव शब्द भी डाल दो तो यह एक नियमावली बन जाती है। इसे लागू कर दिया जाता है लेकिन जिन पर लागू किया जाता है वह इसे यहाँ वहां से ज़रूर तोड़ते फोड़ते हैं यानी अर्थ का अनर्थ किया जाता है। दूसरे या तीसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इसका अचार डाल दिया जाता है। जिन्हें अचार डालना नहीं आता वे भी सीख जाते हैं। ज़बान के नए नए चाकू प्रयोग किए जाते हैं। तीखे मसालों का नया सम्मिश्रण तैयार किया जाता है। सब जानते हैं इस सबका श्रेय महारानी राजनीति को है।
जब मौका हो और दस्तूर भी हो, अचार डालने की पूरी क्या नई नई सामग्री भी उपलब्ध हो तो अचार कैसे न डालें। सरकारी घोषणा हो नहीं सकती लेकिन संभावित विजेता ख़ास ख़ास वोटरों के कान में तो घोषणा कर ही सकते हैं। मिसाल के तौर पर, आपका तबादला करवा दूंगा। समझदार अधिकारी खुद ही तैयार रहते हैं कि तबादला होगा या विभाग बदला जाएगा। कुछ पर तो पार्टी का ठप्पा लगा होता है वे इसका मज़ा लेते हैं। कुछ को पता होता है कि पार्टी कोई भी जीते उनका कोई काम रुकने वाला नहीं। काफी लोगों के पास कई हुनर होते हैं।
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संहिता का अचार डालते हुए धर्म और जाति आधारित वोट नहीं मांग सकते। इसकी ज़रूरत भी क्या है। प्रत्याशी तो पहले ही इस तराजू में तोला जा चुका होता है। उसी आधार पर टिकट मिलता है। वह उसी आधार पर अपने क्षेत्र, सम्प्रदाय और परिवारों में जाकर सुगबुगाहट पैदा करता है। जान पहचान वालों की छतों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर चिपका सकता है। शराब, पानी और पैसा इतने बढ़िया तरल हैं और स्वत ही, जहां न चाहें वहां भी पहुंच जाते हैं।
जिस चीज़ पर पूर्णतया रोक लगी हो, कानूनन रोक लगी हो उस सन्दर्भ में रोक न मानने बारे भगवान की मदद लेना इंसान का अधिकार है। सब जानते हैं इंसान, भगवान् को खूब पटाकर रखता है। खाना पीना, आपत्तिजनक बयान, नफरती बोल, लड़ना झगड़ना, मारना पीटना तो इंसानी शरीर की स्वाभाविक क्रियाएं हैं। सहज मानव जीवन के लिए ज़रूरी भी हैं। इसलिए जब मौका हो और दस्तूर भी हो तो अनीतियों की रुकी नदी में कोई भी हाथ धो सकता है अचार डालने से पहले।
- संतोष उत्सुक
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