भारतीय राजनीति में चीते और घोड़े (व्यंग्य)
जानवरों का सामयिक प्रयोग तो कब से हो रहा है। गाय, राजनीति का महत्त्वपूर्ण अंग, रंग और ढंग रह चुकी है। बंदर और कुत्ते भी राजनीति का हिस्सा बनने की कोशिश करते रहते हैं जी। बंदर तो कब से धार्मिक छाया में हैं।
मेहमान चीतों ने भारतीय राजनीति में, खूब ख्याति अर्जित कर ली है। लोकतान्त्रिक सुव्यवस्था का मज़ा लेते हुए, अपनी फुर्तीली ज़िंदगी की बलि आराम से दिए जा रहे हैं। राजनीति ने उनकी विवशता को खूब चर्चित कर दिया है। चर्चित होकर मरना भी तो मरने की बेहतर किस्मों में से एक है। हमारे माहिर सामाजिक, राजनीतिक नायक थकते नहीं, विदेशी मुद्दे और सर्वे कम पड़ने लगे तो चीते को ही राजनीति का विषय बना देते हैं। विदेश में पकाई कहानियां स्वदेश में परोसी और खाई जाने लगती हैं। ज़बान का क्या है, चीते सी फुर्ती से भी तेज़ चलती है। कह देते हैं राज और नीति ने चीतों को मरवा दिया। बच्चों को बचपन में ही नरक भिजवा दिया। बता रहे हैं यदि वे अपने नानाजी के पुराने जंगल में पैदा होते तो कुछ न होता। चीते स्वभाव से नाज़ुक और संवेदनशील होते हैं। घर जैसे भारतीय माहौल में होने के बावजूद उन्हें भी तो अपनी मूल धरती, देश, रिश्तेदार और परिवेश याद तो आ ही सकता है जी।
दरअसल, विशेषज्ञ भी गज़ब होते हैं। हमारे ज़्यादा गज़ब हैं। जब चीते आने की बातें हो रही थी तब किसी और रंग की स्वादिष्ट सलाह परोस दी, हमारे यहां चीते आए, हमारे गर्वित स्पर्श से महान हुए। शहीद हुए तो कहा जा रहा है कि यहां जगह कम पड़ रही, मौसम भी अच्छा नी है जी। लगता है पहले जगह को राजनीति से नापा होगा। चीते, राजनेताओं की तरह चेते हुए तो होते नहीं कि कुछ इंच की खोपड़ी से समस्त राजनीति के खेल खेल लें लेकिन स्तरीय विशेषज्ञ भी तो वही है जो बदलती हुई परिस्थितियों की तरह बात करें जी। जैसा देस वैसा भेस का नियम, अभी भी लागू है। राजनीति, पुराने ज़माने की कुचक्र पकाने वाली जादूगरनी वाली हरकतें करती है। धर्म, शर्म, कर्म, कूटनीति, प्यार, नफरत, विकास और विनाश किसी भी चीज़ से राजनीति खुद जुड़ सकती है। बातों, मुद्दों का बताना, छिपाना, उठाना, दबाना, पिटवाना, तुडवाना और मरवाना परिस्थिति के मुताबिक़ ज़रूरी होता है जी।
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जानवरों का सामयिक प्रयोग तो कब से हो रहा है। गाय, राजनीति का महत्त्वपूर्ण अंग, रंग और ढंग रह चुकी है। बंदर और कुत्ते भी राजनीति का हिस्सा बनने की कोशिश करते रहते हैं जी। बंदर तो कब से धार्मिक छाया में हैं। कुत्तों ने अभी तक वफादारी नहीं छोडी है, वह बात दीगर है कि वॉच डॉग कहलाने वालों को भी घोड़ों के व्यापार का हिस्सा बना डाला है। आवारा कुत्तों के मामले में तो वन्य जीव प्रेमी और व्यवस्था की वफादारी लगभग छूमंतर है। वैसे तो भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए, घोड़े बहुत ज़रूरी हैं। दिलचस्प यह है कि कोई राजनीतिक दल पूर्ण बहुमत लेकर सरकार बना ले तो प्रशंसनीय, अगर ऐसा नहीं हो पाता तो घोड़ों की ज़रूरत पड़ जाती है जी। चूंकि घोड़े कम उपलब्ध हैं और एकदम मिल नहीं सकते, इसलिए बिना घोड़ों के भी, घोड़े बेच या खरीद लिए जाते हैं। इन घोड़ों को सूअर नहीं कह सकते जी।
विदेशी नेता चाहें तो हमारे यशस्वी राजनीतिज्ञों से प्रेरणा लेकर अपनी राजनीति भी हांक सकते हैं। राज और नीति की भूमिका जब व्यापार हो जाए तो क्या क्या हो सकता है यह लिखने की नहीं समझने की बात है जी।
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