आजादी के लड्डू (व्यंग्य)
जिनसे आजादी मिली, अब उनको मिस करते हैं लोग। विलाप करते हैं। कहते हैं “अब जो राज है उस से बढिया तो अंग्रेजों का ही राज था लोगों के लिए आजादी के मायने बदल गए। लोग अब बोलने की आजादी, भ्रष्टाचार की आजादी, घोटालों की आजादी, जीने की आजादी मांगने लगे।
स्वतंत्रता दिवस आ रहा है। जैसे मानसून की भविष्यवाणी से अखबार आम लोगों को आपदा की और सरकारी मुलाजिमों को राहत की सूचना देते हैं, इसी तरह अब तो मौसम विभाग को स्वतंत्रता दिवस की भविष्यवाणी भी करनी चाहिए। इस बार स्वाधीनता दिवस तय समय पर ही आ जाएगा ना? कैसा आएगा, कितना आएगा? आजादी मानों की साल भर पिंजरे में बंद कर रखी हो और इस दिन पिंजरे का सिर्फ दरवाजा खोला जाता है, आजादी के तोते को दिखाया जाता है। पिचहत्तर सालों से पिंजरे में बंद आजादी का तोता वैसे अपनी उड़ान भूल गया है। लोग मानते ही नहीं कि उन्हें आजादी मिल गई है। लोग तरस रहे हैं आजादी को देखने के लिए। कैसे होती है आजादी? गली-मोहल्ले में बस एक ही आवाज आती है, "हमें चाहिए आजादी!" ये जो आजादी मिली है वो सत्ता भोगियों ने अपने घर में कैद कर के रखी है। आजादी मिलते ही उसकी बंदरबाँट शुरू कर दी। नेता लोग गला फाड़ कर कह रहे हैं, "तुम्हें आजादी मिल गई। देखो, पन्द्रह अगस्त को हम हर साल तुम्हें आजादी का स्वरूप दिखाएंगे।" हम आजादी को संविधान से निकाल कर सड़क पर ले आये हैं ! जब तलक आजादी का मतलब संविधान के पन्नों पर चमकता था, तब तक सब उन्हें पवित्र मानते थे। अब जब ये मतलब सड़कों पर उतर आए हैं, तो हर कोई इनका उपयोग अपनी सुविधानुसार कर रहा है। आजादी अब उस खोई हुई चाबी की तरह है जिसे हर कोई ढूँढता तो है, पर मिलती किसी को नहीं। जनता भी आजादी का मतलब बचपन में जो समझा था बस वो ही दिमाग में फिट हो गया। आजादी का मतलब स्कूल में उस दिन यूनिफॉर्म में जाना होगा। अपनी एकमेव निकर और व्हाइट शर्ट में नील देकर जुगाड़ की इस्तरी से प्रेस करके! जुगाड़ की इस्तरी मतलब चूल्हे से निकाले गरम कोयलों से भरी कटोरी! लकदक झकाझक होकर स्कूल पहुँचते, मां उस दिन माथे पर काला टीका लगा देती थी। जाने किन नजरबट्टूओं की नजर लग गयी है कसम से। कोई तो आगे आये, भारतमाता के माथे पर काला टीका लगाए, इस आजादी को बुरी नजर से बचाए! उस दिन बस्ता नहीं ले जाना पड़ता तो हमें तो ये ही सबसे बड़ी आजादी लगती। स्कूल में जन गण मन होता, एक आँख झंडे पर और एक आँख सरपंच द्वारा बाँटे जाने वाले लड्डुओं के खोके पर रहती। उस दिन दो लड्डू मिलते थे। साथ में बहनें पढ़ती थीं, उनके लड्डुओं में से भी कबाड़ लेते थे। बस यही तब आजादी का मतलब था। अब बड़े हो गए, बहुत कुछ आजादी का मतलब बदल गया। आजादी का रंग ऐसे फीका पड़ गया है जैसे धूप में सुखाई गई चुनरी का गुलाबी रँग, हर धुलाई के साथ अपनी चमक खोता जा रहा है।" आजादी का रंग जो कभी गहरा नीला था, बिलकुल खुले आसमान की तरह। अब वही रंग फीका पड़ गया है, धूल धूसरित आसमान के समान, जिसमें स्वतंत्रता के बादल छाए तो हैं, पर बरसते नहीं। पिचहत्तर साल में आजादी की कहानी सुनाने वाले भी चले गए, इतिहास बदला जा रहा है।आजादी की नयी नयी कहानियाँ गडी जा रही है। सब के अपने अपने राम,ऐसे ही सबके अपने अपने आजादी दिलाने वाले महापुरुष। आजादी अब वो पुरानी कहानियों के पात्र उस राजा की तरह हो गई है, जिसके हाथों में सोने की चाबियाँ होती हैं, पर महल के दरवाजे हमेशा बंद!
जिनसे आजादी मिली, अब उनको मिस करते हैं लोग। विलाप करते हैं। कहते हैं “अब जो राज है उस से बढिया तो अंग्रेजों का ही राज था लोगों के लिए आजादी के मायने बदल गए। लोग अब बोलने की आजादी, भ्रष्टाचार की आजादी, घोटालों की आजादी, जीने की आजादी मांगने लगे। अब ये आजादी की कोई शर्त तो अंग्रेज देश छोड़ गए थे तब भी नहीं रख पाए थे । ये आजादी तो सिर्फ तुम्हारे चुने हुए प्रतिनिधित्व को है। तुम्हें आजादी है तो सिर्फ आजादी के लड्डू खाने की है वो भी जब स्कूल में हों तब। जब स्कूल से बाहर निकले तो बो भी नसीब में नहीं है। आजादी के कुछ गीत हैं, उन्हें बजा सकते हो लेकिन लोगों ने उन्हें भी अब हर मौके पर बजाना शुरू कर दिया। ‘ये देश है वीर जवानों का’ शादी ब्याहों में बजाया जा रहा है। 'मेरे देश की धरती' पर नागिन डांस हो रहा है।
इसे भी पढ़ें: चुनाव और घोड़ों का व्यापार (व्यंग्य)
लड्डू भी रंग बदल चुके हैं। आजादी के नाम पर जो लड्डू बंट रहे हैं, उनकी मिठास का स्वाद अब फीका पड़ चुका है। बाजार में जैसे चीनी मिलावटी, वैसे ही आजादी के लड्डुओं में मिठास की जगह पर राजनीति का जहर घुल गया है।
याद है अपने जमाने के आजादी के लड्डू, बूंदिया रँग बिरंगी, जिनमें हरे, नीले, पीले सभी रँग की बूंदी और भाईचारे की मिठास इसे एक अलग ही स्वाद देती थी! लड्डू ने भी रँग बदल लिया, अब एक ही रँग की बूंदी का लड्डू मिलने लगा है, रंग कुछ ज्यादा हरा और ज्यादा केसरिया हो गया। लड्डू खाने वाला, बांटने वाले का नाम पूछ रहा है। कुछ लड्डू सेकुलर हो गए, कुछ सांप्रदायिक। लड्डुओं में भी अपस में सिर फुटौव्वल हो रही हैं। सब अपने अपने लड्डुओं को आजादी के असली लड्डू बता रहे हैं। तिरंगे में हरा और केसरिया रंग आपस में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं। आप क्या सोचते हैं, कोई नेता अगर तिरंगे को उलटा लटका रहा है तो हो सकता है जानबूझकर लटका रहा हो। उसके दिमाग में शायद ये फितूर हो कि नीचे वाले रंग को ऊपर करना है।
तिरंगे के रँग भी लोगों की धार्मिक भावना को आहत कर रहे हैं, नारे लग रहे हैं 'ये सरासर अन्याय है, ये सांप्रदायिक सोच है।' तिरंगा भी सोच रहा है, मुझे रंगहीन रखते तो ज्यादा ठीक था। इस देश को रंगों की जरूरत ही नहीं। आम आदमी की रंगहीन जिंदगी को दर्शाने के लिए मेरा रंगहीन होना जरूरी है। लोकतांत्रिक रँग में भंग पड़ चुकी है, भंग वो भी सांप्रदायिकता, जातिवाद, अलगाववाद, अविश्वास की भंग जिसके नशे में लोग बावले हुए जा रहे हैं। इस नशे में डूब कर एक दूसरे को गिरा रहे हैं, मारकाट मची हैं। आजादी की हवा में जहर फैल गया है। आजादी की खुली सांस भी घुटन देने लगी है। आम जनता को आजादी की खुली सांस के नाम पर ये जहर भरी हवा ही दी जा रही है। आजादी के ठेकेदारों ने अपने घर के दरवाजे खिड़कियां बंद कर ली हैं और अंदर आजादी के कब्जित कारखानों में सौ प्रतिशत शुद्ध ऑक्सीजन पैदा की जा रही है जो सीधे इनके घरों में सप्लाई हो रही है।
सच पूछो तो आजादी की विरासत जो कभी गर्व से भरी होती थी, अब खोखले बांस की तरह हो गई है—बाहर से तो मजबूत नजर आती है, पर अंदर से खोखली और सूनी। आजादी के स्वप्न जो कभी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत थे, अब बाजार की वस्तु बन गए हैं। इन स्वप्नों का उपयोग अब विज्ञापनों में होता है, जहां आजादी को बेचा जाता है एक उत्पाद की तरह। आजादी के प्रतीक लड्डू और झंडे का व्यापार भी बाजार की सजावटी चमक में अपनी असली चमक खोता जा रही है ! झंडे अब सेल्फी की शोभा बढ़ा रहे है !
– डॉ मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, राजस्थान पिन कोड-323301
अन्य न्यूज़