अक्ल बड़ी या भैंस (व्यंग्य)
वैसे, अक्ल हमेशा से प्रतियोगिता में रही है—कभी शक्ल के साथ, तो कभी भैंस के साथ। लेकिन आप को बता दें, अक्ल के द्वारा किए गए कोरे कागज़ काले कई बार मात खा जाते हैं उजली शक्ल वाले 'अक्ल के मारों' से।
बहस वाजिब है या नहीं, ये तो नहीं पता, लेकिन इस बहस ने भैंस को जरूर परेशान कर रखा है। भैंस भी कह रही है, "यार, ये फालतू की बहस में अक्ल लगाने के बजाय एक लाठी ले लो हाथ में। फिर भैंस भी तुम्हारी और अक्ल भी तुम्हारी... दोनों को बाँध दो खूंटे से।"
इस बहस में न जाने कितने पढ़े-लिखे लोगों की अक्ल भैंस चरने गई कि उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें ! अक्ल का काला अक्षर भी भैंस बराबर दिख रहा है। बताओ, जब दोनों ही घास चरने चले जाएंगे, तो यह तो होना ही था। अब भैंस तो घास चरने के बाद दूध भी दे देगी, लेकिन अक्ल का क्या करोगे? भुर्ता बनाओगे क्या?
वैसे, अक्ल हमेशा से प्रतियोगिता में रही है—कभी शक्ल के साथ, तो कभी भैंस के साथ। लेकिन आप को बता दें, अक्ल के द्वारा किए गए कोरे कागज़ काले कई बार मात खा जाते हैं उजली शक्ल वाले 'अक्ल के मारों' से। भैंस भी कहेगी, "भाई, मेरा ही दूध पीते हो, दूध पीकर अक्ल को बड़ी करते हो और फिर भी यह सवाल—अक्ल बड़ी या भैंस?"
अरे भैया, भरोसे की भैंस तो अक्ल क्या, गठबंधन की सरकार को भी ठिकाने लगा दे। और एक बार भरोसे की भैंस बैठ जाए, तो फिर लाख जोर लगा लो, भैया, गोबर का चौथ करके ही मानेगी।
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कॉलेज में देखो, तो लड़कियां शक्ल पर ज्यादा मरती हैं। वहीं लड़के अपनी अक्ल को किताबों की जिल्द पर चढ़ाकर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन अक्ल से ज्यादा रईसी का पाउडर पुती शक्ल बाजी मार ले जाती है। जहां देखो, वहां अक्ल के घोड़े खूब दौड़ाए जा रहे हैं। पर आखिरी बाजी तो चतुराई और च्यवनप्राश खाए गधों के ही हाथ लगती है।
अक्ल पर पर्दा पड़ जाए, तो सब बेपरदा होने लगता है—धन-दौलत, इज़्ज़त-आबरू। वैसे, जिसके पास लाठी है, उसके पास भैंस भी हो सकती है। और लाठी के दम पर तो अच्छे-अच्छे अक्ल वाले भी भैंस के आगे बीन बजाते नजर आएंगे।
वैसे एक बात कहें, भैंस हमेशा बड़ी ही होती है। अक्ल छोटी होती है, तभी तो भेजे में घुस जाती है। भैंस को घुसाकर देखो भेजे में! माँ कसम, भेजा फ्राई न हो जाए तो बताना।
राजनीति और भैंसों का तो वही सनातनी गठबंधन है... अंडर-द-टेबल वाला। ये राजनीतिक भैंसे ही हैं, जो न जाने कितनी फाइलें चर गईं, चारा और खल चर गई।
राजनीति के धुरंधरों को भैंसें बांधनी पड़ती हैं। राजनीति के कोरे कागज़ में 'काला अक्षर' करने वाले सब धुरंधर भैंसें ही तो हैं। राजनीति में सब अपने मन चेते का जब तक—“भैंस अपने खूंटे पर बंधी है।” भैंस को अपने खूंटे पर बांधने का अलग ही मज़ा है। अक्ल को खूंटे से नहीं बांधा जा सकता। अक्ल का क्या भरोसा, वह विपक्षी दल के यहां घास चरने चली जाए तो? भरोसा तो भैंस पर ही किया जा सकता है।
हाँ, अगर भरोसे की भैंस एक बार बैठ जाए, तो उठाना बड़ा मुश्किल। कई बार भैंसें बैठ जाती हैं। अरे बाबा, पूरी पार्टी हिला डालते हैं, लेकिन भैंस उठती नहीं। क्या करें, राजनीति के कीचड़ में घोड़े नहीं बैठते। सिर्फ भैंसें ही बैठ सकती हैं। दांव अब घोड़ों पर नहीं लगाया जाता, भैंसों पर ही लगता है। घोड़े दुलत्तियां मारते हैं, हिनहिनाते हैं। भैंसें आपके लिए घोषणाओं, वादों और नारों की जुगाली करती हैं। पाँच साल तक दूध देती हैं—नेताओं को दूध और जनता को गोबर।
नेताओं को देख रहा हूँ। जिनकी अक्ल जब घास चरती है, तो मुँह जुगाली करने लगता है। देखा होगा न टीवी डिबेट्स में... कई बार सींगों को आपस में फंसाकर 'सींग-नाद' भी होता है।
अरे हाँ, ऐसे कई साहित्यिक भैंसे भी देखे हैं जो मंचों पर जुगाली करते दिखते हैं। काले अक्षरों से कोरे कागज़ को काला करने वाले साहित्यकार भी भैंसों की ही तरह हैं। सब साहित्यिक भैंसे जुगाली करते हुए साहित्यिक चिंतन कर रहे हैं। हर कोई जुगाली से ही एक-दूसरे की अक्ल ठिकाने लगाने की जुगत में है।
इसी बीच संपादक और प्रकाशक अपनी-अपनी लाठी लेकर आ गए बीच में। "अरे भाई, काहे की मगजमारी कर रहे हो? देखो, ये लाठी है—दोनों को ठिकाने लगा सकती है।"
- डॉ. मुकेश असीमित
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