त्यागी बाबा के अवतार (व्यंग्य)
कांग्रेस पार्टी में कोई यह मुकुट पहनने को तैयार नहीं है। सबको पता है कि अब पार्टी का कोई भविष्य नहीं है। ऐसे में हर कोई त्याग की मूरत बनकर दूसरे के सिर पर यह कांटों का ताज रखना चाहता है।
भारत त्यागी और बैरागियों का देश है। धन, वैभव, राजपाट और परिवार को लात मारने वालों की यहां लम्बी परम्परा रही है। गौतम बुद्ध हों या महावीर स्वामी, पांडव हों या विदेह जनक। इनके कारण ही भारत को जगद्गुरु कहा जाता था। राजा राम और भरत के बीच चली रस्साकशी को कौन नहीं जानता ? चित्रकूट में भरतजी बड़े भाई से आग्रह कर रहे हैं कि वे वापस अयोध्या चलें और राजकाज संभालें; पर रामजी तैयार नहीं हैं। उन्होंने साफ कह दिया कि पिता ने उन्हें 14 साल का वनवास दिया है, इसलिए वे 14 साल बाद ही वापस लौटेंगे। अयोध्या का राज्य न हुआ फुटबॉल हो गयी, जिसे दोनों भाई एक दूसरे की तरफ फेंक रहे हैं।
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भारत की एक अति प्राचीन पार्टी आजकल इसी असमंजस में है। कहते हैं एक बार पार्टी की माताश्री ने प्रधानमंत्री पद ठुकरा कर त्याग की महान परम्परा कायम की थी। यद्यपि अंदर की बात ये है कि तत्कालीन राष्ट्रपति ने विदेशी मूल की होने के कारण उन्हें शपथ दिलाने से मना कर दिया था। मजबूरी में उन्हें एक ‘जी हुजूर’ को लाना पड़ा। इससे माताश्री त्यागमूर्ति का लेबल लगाकर सत्ता की असली मालिक बन गयीं।
एक बार उन्होंने पार्टी संभालने का खानदानी चमचों का आग्रह भी ठुकरा दिया था। अतः लोगों ने केसरी चाचा को कुर्सी दे दी; पर जब चाचाजी पार्टी में वास्तविक लोकतंत्र स्थापित करने लगे, तो एक दिन चमचादल के साथ वे पार्टी दफ्तर जा पहुंचीं और जबरन कुर्सी कब्जा ली। चाचाजी ने कमरे में छिपकर इज्जत बचाई। ऐसी त्यागमूर्ति को शत-शत नमन।
अब एक ‘त्यागमूरत’ फिर से अवतरित हुए हैं। वे भी खानदानी पार्टी के अध्यक्ष हैं; पर इस लोकसभा चुनाव में उनकी भारी फजीहत हो गयी। वे सोच रहे थे कि जनता उन्हें मुकुट पहनाएगी। चमचादल ने उन्हें इसका विश्वास भी दिलाया था; पर परिणाम आये, तो पता लगा कि मुकुट पहनाना तो दूर, जनता ने उनके जूते और मोजे भी उतार लिये। गनीमत है कुर्ता-पाजामा बच गया, वरना...। अब अध्यक्षजी ने कह दिया है कि पार्टी किसी और को चुन ले। वे जिन्दाबाद तो सुन सकते हैं; पर मुर्दाबाद नहीं। इतना ही नहीं, वे हर बार की तरह किसी अज्ञात यात्रा पर चले गये हैं। ठीक भी है, उन्होंने लोकसभा चुनाव में अथक परिश्रम किया। इतनी मेहनत के बाद महीने-दो महीने का आराम तो बनता ही है। विदेश में उनके मित्र हैं और रिश्तेदार भी। कुछ पुराने हिसाब और खाते भी ठीक करने होंगे।
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पर पार्टी में कोई यह मुकुट पहनने को तैयार नहीं है। सबको पता है कि अब पार्टी का कोई भविष्य नहीं है। ऐसे में हर कोई त्याग की मूरत बनकर दूसरे के सिर पर यह कांटों का ताज रखना चाहता है। हमारे शर्माजी इस पार्टी के पुराने समर्थक हैं। उनका मत है कि खानदान में दीदी और जीजाजी तो हैं ही। उनमें से किसी को यह ताज दिया जा सकता है। या दीदी के दोनों बच्चों में से किसी को कार्यकारी अध्यक्ष बना दें। दो-चार साल में वे वयस्क हो जाएंगे। तब तक उनकी मम्मीश्री काम देखती रहें। राज परिवारों में ऐसा होता ही है।
लेकिन वर्माजी का कहना है कि पार्टी की स्थिति उस मरी कुतिया जैसी हो गयी है, जिसे कंधे पर ढोकर कोई अपने कपड़े और इज्जत खराब करना नहीं चाहता। इसलिए अध्यक्षजी थकान मिटाकर जब भी लौटेंगे, तो ‘त्वदीयं वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये’ कहकर पार्टी फिर उन्हें ही सौंप दी जाएगी। इससे वे अध्यक्ष भी बन जाएंगे और त्यागी बाबा के अवतार भी। भारत त्यागी और बैरागियों का देश है। एक नये ‘त्यागी बाबा’ और सही।
-विजय कुमार
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