किराए पर विमोचनकर्ता (व्यंग्य)
पुस्तक मेले में भले झूले ना लगे हों लेकिन है ये भी मेला। मेले सी अफरातफरी। बाहर चाट पकौड़ी अंदर लोकार्पण की बहार। आप यदि अपने खर्चे पर अथवा प्रकाशक के सौजन्य से पुस्तक प्रकाशित करा चुके हैं तो इस लिक्खाड़ काल में उसका पुस्तक मेले में लोकार्पण अवश्य करा लें।
देश में जितने पाठक हैं, उससे कहीं अधिक कवि हैं। यदि समस्त कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार वगैरह को मिला दिया जाए तो पूर्ण साहित्यकार समुदाय की आबादी ब्रिटेन जैसे देशों की आबादी से अधिक होगी। मामला इतना जटिल है कि प्रति पाठक दस बीस साहित्यकारों की समस्त रचनाएं पढ़ने का बोझ है। सरकार और विपक्ष भले धर्म विमुख हों लेकिन देश का साहित्यकार धुआंधार लिखकर अपने धर्म का निर्वाह कर रहा है। कई लेखक इत्ता ज्यादा लिख रहे हैं कि उनके दिमाग पर बोझ पड़ रहा है। वह सुबह का लिखा शाम को बता नहीं पाते कि क्या लिखा था?
संभव है 200 साल बाद इस युग को लिक्खाड़ काल के नाम से जाना जाए। लिक्खाड़ काल को अपनी आत्मा तक महसूस करना हो तो दिल्ली के पुस्तक मेले में घूम आइए। यहां कदम-कदम पर लेखक टकराता है। लेखक जिसे पाठक समझकर अपनी किताब बेचने की जुगत लगाता है, वो कथित पाठक दो मिनट बाद ही झोले से अपनी किताब निकालकर लेखक रुप में अवतरित हो लेता है। पुस्तक मेले के रहस्यलोक में कभी भी कहीं से भी लेखक प्रकट हो सकता है। हद ये कि कई लेखक प्रकाशक का भेस भी धरे हुए हैं। वे लेखक-प्रकाशक दोनों हैं। टू इन वन।
इसे भी पढ़ें: "लोग सड़क पर" (व्यंग्य)
पुस्तक मेले में भले झूले ना लगे हों लेकिन है ये भी मेला। मेले सी अफरातफरी। बाहर चाट पकौड़ी अंदर लोकार्पण की बहार। आप यदि अपने खर्चे पर अथवा प्रकाशक के सौजन्य से पुस्तक प्रकाशित करा चुके हैं तो इस लिक्खाड़ काल में उसका पुस्तक मेले में लोकार्पण अवश्य करा लें। लोकार्पण की तस्वीरें फेसबुक-टि्वटर पर चस्पां करते ही आपको स्वयंभू साहित्यकार के रुप मे स्थापित होने में मदद मिलेगी। आप यदि चिंतित हैं कि लोकार्पण के लिए कोई कायदे का बंदा नहीं मिल रहा तो कतई परेशान ना हों। पुस्तक मेले में कई विमोचनकर्ता सुबह से ही लेखकों की सेवा में तत्पर रहते हैं। विमोचनकर्ता दफ्तर से छुट्टी लेकर मेले में डटे रहते हैं कि जैसे ही विमोचन की अर्जी आए, वो उस स्टॉल पर चल दें। विमोचनकर्ताओं के पास एक भाषण इंस्टेंट तैयार रहता है, जिसमें स्टॉल दर स्टॉल लेखक का नाम बदल दिया जाता है। जैसे-'अमुक लेखक का कहन अनूठा है। इनके पास अपनी भाषा है, शैली है और सबसे बड़ी बात इनके विषय निराले हैं। इनकी बात सीधे पाठक के दिल तक पहुंचती है। हिन्दी साहित्य को अमुक लेखक से बड़ी उम्मीदें हैं। मैं पाठकों से गुजारिश करुंगा कि अमुक लेखक की इस किताब को अवश्य पढ़ें, जिसे इन्होंने बहुत मेहनत से लिखा है।'
इसे भी पढ़ें: नन्हें-मुन्ने तेरी मुट्ठी में क्या (व्यंग्य)
पुस्तक मेले का विमोचनकर्ता कर्म को धर्म मानता है। उसे इस बात से मतलब नहीं होता कि सामने दर्शक कितने हैं? वो नयी किताब का लोकार्पण करता है। लड्डू खाता है और किताब को झोले में रखकर चल देता है। वैसे, अगर आप चाहते हैं कि कोई नामचीन साहित्यकार आपकी किताब का विमोचन करे तो भी चिंता की जरुरत नहीं है। पुस्तक मेले में अतिथि की धरपकड़ का रिवाज है। कई वरिष्ठ लेखक भी अतिथि घेरो योजना के तहत ही अपनी किताब का लोकार्पण कराते हैं। यकीन जानिए कई हस्तियों को तो लोकार्पण के लिए अगवा होने में भी आनंद आता है।
वैसे, मेरा सुझाव है कि पुस्तक मेले में अतिथियों की धरपकड़ वगैरह पर रोक लगनी चहिए। कभी कभी गंभीर विमोचनकर्ता बुरा भी मान जाता है। अब सीधे विमोचनकर्ता किराए पर मिलने चाहिए। पुस्तक मेले में पहुंचने से पहले लेखक एक वेबसाइट पर जाए, विमोचनकर्ता को क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करे और विमोचन के लिए बुक करा दे। विमोचनकर्ता टाइम से स्टॉल पर पहुंच जाए और किताब का विमोचन कर कट ले। विमोचन के खेल को अब प्रोफेशनलिज्म का जामा पहनने का वक्त आ गया है।
- पीयूष पांडे
अन्य न्यूज़