मतदाता को समझनी होगी मतदान की अहमियत
भारतीय लोकतंत्र में भी मतदान को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से समानुपातिक लोकतंत्र सफल होगा और साथ में सबकी भागीदारी से एक बेहतर जनहितकारी सरकार का गठन हो सकेगा।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में मतदान जनता का सबसे अहम अधिकार होता है। जनता का मत ही तय करता है कि सत्ता की डोर किसके हाथ में रहेगी। लेकिन विडंबना है कि हमारे देश में वोट देने के दिन लोगों को जरूरी काम याद आने लग जाते हैं। कई लोग तो वोट देने के दिन अवकाश का फायदा उठाकर परिवार के साथ घूमने चले जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो घर पर होने के बावजूद भी वोट देने के लिए वोटिंग बूथ तक जाने में आलस करते हैं। इसलिए हमारे किसी भी चुनाव में शत-प्रतिशत मतदान का लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाता। साथ ही, एक तबका ऐसा भी है जो प्रत्याक्षी के गुणों को नहीं बल्कि धर्म, मजहब व जाति देखकर अपने वोट का प्रयोग करता है। वहीं वोट की खरीद-फरोख्त से भी हमारा मतदाता वर्ग अछूता नहीं है। यह हमारे लोकतंत्र की खामी ही है कि नेक और योग्य व्यक्ति जो व्यवस्था परिवर्तन करने का जज्बा रखते हैं, वे इस अव्यवस्था के आगे हाथ मलते रह जाते हैं। अतः हम तब तक अच्छी व्यवस्था खड़ी नहीं कर पाएंगे, जब तक हम मतदाता होने के फर्ज को पूरी निष्ठा व जिम्मेदारी के साथ निभा नहीं देते।
आज विश्व के 30 से अधिक देशों में अनिवार्य मतदान का कानून मौजूद है। इन देशों में ऑस्ट्रिया, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, बोलीविया, ब्राजील, चिली, कोस्टा रिका, साइप्रस, डोमिनिकन गणराज्य आदि शामिल है। इनमें से अधिकतर देशों ने मतदान को नागरिक का अधिकार माना है तो वहीं कुछ देशों ने मतदान को राष्ट्रीय कर्तव्य की संज्ञा से जोड़ दिया है। ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों में मतदान नहीं करने पर सजा का भी प्रावधान है। अनिवार्य मतदान को सबसे पहले लागू करने वाला देश बेल्जियम है जहां यह कानून 1892 से लागू है। उसके बाद अर्जेंटीना ने साल 1914 में और ऑस्ट्रेलिया ने 1924 में इसको अपनाया। कानून के तहत मतदान के दिन उपस्थित न होने वाले मतदाता को नियत जुर्माना अदा करना पड़ता है और ऐसा न करने पर जेल भी जाना पड़ता है। बीमार, असमर्थ परिस्थितियों में इससे छूट तो है लेकिन जुर्माना देय है। देखा गया है कि 1924 से पूर्व जब वहां अनिवार्य मतदान नहीं था तब महज 47 फीसद के आस-पास वोट पड़ते थे लेकिन इसके बाद वहां 96 फीसद तक वोट पड़ते हैं।
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भारतीय लोकतंत्र में भी मतदान को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से समानुपातिक लोकतंत्र सफल होगा और साथ में सबकी भागीदारी से एक बेहतर जनहितकारी सरकार का गठन हो सकेगा। भारत में 2015 में जब प्रारंभ में नोटा का विकल्प आया तो लोगों में अपने 'राइट टू रिजेक्ट' के इस नये अधिकार को लेकर खुशी का ठिकाना नहीं था लेकिन इस खुशी पर जल्द ही चुनाव आयोग ने यह कहकर पानी फेर दिया कि नोटा 'राइट टू रिजेक्ट' नहीं है। यही कारण है कि चुनाव में सभी उम्मीदवारों में से नोटा को यदि अधिक मत मिल जाते हैं, तब भी वही विजयी गिना जाता है। दरअसल, भारतीय चुनाव प्रणाली में चुनाव का फैसला केवल योग्य मतों के आधार पर होता है। फिर भले उम्मीदवार को एक ही वोट क्यों ना मिला हो। जबकि चुनाव प्रणाली के मुताबिक, नोटा एक अयोग्य मत के रूप में गिना जाता है। इस कारण वह अधिक संख्या में होने के बाद भी बेअसर ही बना रहता है। यहां तक कि उम्मीदवारों की जमानत जब्त करने के लिए भी नोटा के वोटों को नहीं गिना जाता है। किसी भी उम्मीदवार की जमानत जब्त करने के लिए भी कुल पड़े योग्य मतों का 1 अनुपात 6 भाग ही गिना जाता है। अब सवाल यह है कि जब चुनाव पर नोटा का कोई असर नहीं पड़ता तो इसे लाने का क्या मतलब?
आज लोकसभा, विधानसभा से लेकर नगर निकायों के चुनाव सभी में नोटा को पसंद करने वाले मतदाताओं का प्रतिशत दिनोंदिन बढ़ रहा है। कई कई तो स्थिति पूरी नोटा के पक्ष में होने के बाद भी वह अप्रभावित ही साबित हो रहा है। इस तरह लगातार अप्रभावित रहने के कारण ही रूस ने 2006 में नोटा का विकल्प हटा दिया। पाकिस्तान में भी पहले नोटा का प्रावधान था, लेकिन 2013 के बाद उसने भी नोटा को हटा दिया। वहीं अमेरिका में सालों तक नोटा प्रावधान में रहने के बाद 2000 में हटा दिया गया। अगर भारत में भी समय रहते नोटा को 'राइट टू रिजेक्ट' के रूप में प्रभावकारी नहीं बनाया गया तो यह अपनी प्रासंगिकता खो देगा, या फिर भारत को भी नोट को हटाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। जाहिर है कि चुनाव मतदाता इच्छा पर आधारित प्रतिनिधि चुनने की व्यवस्था का प्रावधान करता है। जनता की नजर में समस्त अयोग्य उम्मीदवारों में से चुनाव थोपा गया चुनाव होता है, जो कि आदर्श चुनाव की प्रकृति के विरुद्ध होता है। इसलिए आज आवश्यकता 'नोटा' को 'खोटा' होने से बचाने के साथ ही इसके प्रयोग को लेकर विस्तृत दिशा-निर्देश तय किये जाने की है। जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन करके यह प्रावधान किया जाए कि यदि किसी चुनाव में नोटा को बहुमत मिलता है तो चुनाव रद्द करने के साथ अन्य उम्मीदवारों को कितने वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए।
हमारे देश में मतदान को लेकर तमाम तरह के जागरूकता कार्यक्रम संचालित होने के बाद भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव में 60-65 फीसद ही वोट पड़ते हैं। अब सवाल उठता है आखिर लोग वोट क्यों नहीं करते हैं? प्रायः इसका कारण या तो लोगों को कोई प्रतिनिधि पसंद नहीं आया या फिर उनका लोकतंत्र से विश्वास ही उठ गया समझा जाता है। लेकिन ऐसा होने के पीछे अन्य कारण भी होते हैं। जिन पर हमारा ध्यान नहीं जाता है। दरअसल, बदलते समय के साथ हमारी युवा पीढ़ी को वोट के दिन मतदान केंद्र पर जाना, अपना नंबर आने के लिए लंबी-लंबी कतारों में खड़े रहना, इंतजार करना, अब बोरियत भरा लगने लगा है। जबकि कई लोग अपने रोजगार और नौकरी के सिलसिले में अपने निवास स्थान से बाहर रहते हैं और वोट वाले दिन उनका अवकाश लेकर आना संभव नहीं होता है। इस तरह एक बड़ी संख्या लोकतंत्र के महापर्व में हिस्सा लेने के लिए इच्छुक होने के बाद भी इस पर्व से बाहर रह जाती है। निःसंदेह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए इतनी बड़ी संख्या का मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लेना उचित नहीं है। यह बात देश के चुनाव आयोग व सरकार की चिंताओं में प्रमुखता से शामिल होनी चाहिए। वोट के दिन प्रवासी लोग भी अपने निवास स्थल से दूर रहकर अपने वोट का इस्तेमाल कर सकें इसके लिए विकल्प तलाशने चाहिए। अब समय आ गया है कि हमारे देश में भी ऑनलाइन वोटिंग को लेकर चर्चा हो और इस प्रणाली को अपनाने के लिए एकराय बनें। इसके सकारात्मक पक्षों के साथ ही नकारात्मक पक्षों पर विचार कर इसकी संभावना को साकार करने के प्रयत्न किये जाएं। हालांकि, ऑनलाइन वोटिंग कोई अभूतपूर्व विचार नहीं है। आज दुनिया भर के कई विकसित लोकतंत्र ई-वोटिंग के विकल्प पर विचार कर रहे हैं। कई देशों में तो ई-वोटिंग शुरू भी हो चुकी है। इंटरनेट की बढ़ती लोकप्रियता ने ई-डेमोक्रेसी के कॉन्सेप्ट को जन्म दिया है। कई अन्य बदलावों के अलावा उनकी टीम ने इंटरनेट तकनीक को भी तेज विकास और परिवर्तन का जरिया बनाया है। वर्तमान समय में दुनिया के 14 देशों में यह सुविधा किसी न किसी रूप में या अस्थायी स्वरूप में मौजूद है। 2005 से एस्टोनिया पूरी तरह स्थायी रूप से ही ऑनलाइन वोटिंग प्रणाली अपनाने वाला देश बन चुका है।
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यदि ऐसा होता है तो हमारा वोट प्रतिशत काफी हद तक बढ़ सकता है और साथ ही चुनाव के खर्च और भारी ताम-झाम को कम कर सकता है। ये सही है भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं होगा पर कोशिश पर दुनिया कायम है। इसके लिए हमें इंटरनेट के विस्तार के साथ ही अच्छी बैंडविड्थ और भरोसेमंद सेवा उपलब्ध करवानी होगी एवं डिजिटल डिवाइड की समस्या को हल करना होगा। इस प्रणाली के सुरक्षित और भरोसेमंद होने को लेकर आशंकाओं को ऑनलाइन बैंकिंग के उदाहरण से सीखा जा सकता है। किसी देश की वित्तीय अर्थव्यवस्था का सबसे नाजुक अंग उसकी बैंकिंग प्रणाली होती है। जब उसे इंटरनेट के जरिए सुरक्षित रूप से ऑनलाइन चलाया जा सकता है तो इंटरनेट वोटिंग सिस्टम क्यों नहीं?
- देवेन्द्रराज सुथार
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