धर्मोन्मूलन पर न्यायालय की चिन्ता और सरकार की उदासीनता

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मनोज ज्वाला । Jul 11 2024 1:21PM

ऐसे में भारत की सम्प्रभुता व अखण्डता की सुरक्षा के लिए धर्मांतरण (धर्मोन्मूलन) पर रोक लगाने के बावत इलाहाबाद उच्च न्यायालय और इससे भी पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को निर्देशित किये जाने के बावजूद सरकार की उदासीनता घोर चिन्ताजनक है।

खबर है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय अनुसूचित जातीय-जनजातीय एवं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को क्रिश्चियनिटी अथवा इस्लाम में तब्दील किए जाने के व्यापक रिलीजियस-मजहबी अभियान चिंता जताते हुए कहा है इसे यदि रोका नहीं गया तो देश की बहुसंख्यक आबादी शीघ्र ही अल्पसंख्यक हो जाएगी या मुसलमान और तब देश की राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड जाएगी; अतएव सरकार कठोर कानून बना कर इस अभियान पर तत्काल रोक लगावे। ऐसी  ही चिंता पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय भी जता चुका है। हालांकि दोनों ही न्यायालयों ने इसे 'ईसाईकरण' अथवा ‘इस्लामीकरण’ की संज्ञा देते हुए ऐसा कहा है, किन्तु मेरा मानना है कि यह धर्मांतरण कतई नहीं है, अपितु यह तो ‘धर्मोन्मूलन’ है; क्योंकि बहुसंख्यक समाज धर्मधारी है और क्रिश्चियनिटी एक रिलीजन है, तो इस्लाम भी एक मजहब है। इन दोनों में से ‘धर्म’ कोई नहीं है, तो जाहिर है कि धर्मधारी लोगों को रिलीजन या मजहब में तब्दील कर देना उनके धर्म का उन्मूलन ही है ‘अंतरण’ तो कतई नहीं; यह धर्मांतरण तो तब कहलाता, जब एक धर्म से दूसरे धर्म में अन्तरण होता, अर्थात, क्रिश्चियनिटी और इस्लाम भी कोई धर्म होता। 

बहरहाल, धर्मोन्मूलन को धर्मान्तरण ही मानते हुए उच्च न्यायालय और उच्च्त्तम न्यायालय ने सरकार को जो निर्देश दिया है सो त्वरित क्रियान्वयन के योग्य है। धार्मिक स्वतंत्रता की आड में धर्मधारी प्रजा (बहुसंख्यक हिन्दू समाज) के ईसाईकरण अथवा इस्लामीकरण का छद्म अभियान चला रहे रिलीजियस-मजहबी संस्थाओं को परोक्षतः करारा जवाब देते हुए उच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि किसी धार्मिक व्यक्ति को धर्म से विमुख कर उसे रिलीजन या मजहब में तब्दील कर दिया जाए। बकौल न्यायालय, लोभ लालच प्रलोभन दे कर या भयभीत कर भोले-भाले (धार्मिक) लोगों का ईसाईकरण अथवा इस्लामीकरण किया जाना उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है। सर्वोच्च न्यायालय का तो यह भी मानना है कि इस प्रकार के अभियान से भारत राष्ट्र की एकता-अखण्डता व राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष खतरा उत्त्पन्न हो सकता है; अतएव इसे रोका जाना अनिवार्य है। जाहिर है सर्वोच्च न्यायालय की यह चिन्ता व मान्यता भारत के ‘राष्ट्रीय युवा’- स्वामी विवेकानन्द और महान स्वतंत्रता सेनानी महर्षि अरविन्द के चिन्तन-उद्बोधन पर आधारित है । 

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मालूम हो कि स्वामी विवेकानन्द ने कह रखा है कि “धर्मांतरण एक प्रकार से राष्ट्रान्तरण है”। धर्म से विमुख हुआ व्यक्ति जब ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ को अपना लेता है, तब वह प्रकारान्तर से भारत के विरुद्ध हो जाता है; क्योंकि धर्म तो भारत की आत्मा है, जबकि ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ अभारतीय अवधारणा हैं। इसी तरह से महर्षि अरविन्द का कथन है कि “धर्म (सनातन) ही भारत की राष्ट्रीयता है और धर्मांतरण से भारतीय राष्ट्रीयता क क्षरण अवश्यम्भावी है”। भारत के इतिहास और भूगोल में यह तथ्य सत्य सिद्ध हो चुका है। भारत-विभाजन अर्थात पाकिस्तान-सृजन और खण्डित भारत के भीतर यत्र-तत्र रिलीजियस-मजहबी जनसंख्या के बढते आकार से उत्त्पन्न विभाजनकारी पृथकतावादी आन्दोलन इसके प्रमाण हैं। सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त चिन्ता को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। इसी कारण से महात्मा गांधी भी धर्मांतरण का मुखर विरोध करते रहे थे एवं चर्च-मिशनरियों की गतिविधियों पर लगातार सवाल उठाते रहते थे और यहां तक कह चुके थे कि स्वतंत्र भारत में धर्मांतरणकारी संस्थाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। ‘क्रिश्चियन मिशन्स- देयर प्लेस इन इण्डिया’ नामक पुस्तक के ‘टॉक विथ मिशनरिज’ अध्याय में महात्मा गांधी के हवाले से कहा गया है कि “भारत में आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना तथा उनका युरोपीकरण करना है।” आगे वे कहते हैं- “भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता एवं युरोपीकरण का पर्याय हो चुकी है। चर्च-मिशनरियां धर्मांतरण का जो काम करती रही हैं, उन कामों के लिए स्वतंत्र भारत में उन्हें कोई भी स्थान एवं अवसर नहीं दिया जाएगा; क्योंकि वे समस्त भरतवर्ष को नुकसान पहुंचा रही हैं। भारत में ऐसी किसी चीज का होना एक त्रासदी है।” सन 1935 में चर्च-मिशन की एक प्रतिनिधि से हुई भेंटवार्ता में महात्मा  साफ कहा था- “अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बन्द करा दूंगा।”(सम्पूर्ण गांधी वांग्मय- खण्ड 61)

सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त चिन्ता के परिप्रेक्ष्य में गांधीजी की वह घोषणा आज भी प्रासंगिक है। 

बावजूद इसके आज देश भर में ऐसी रिलीजियस-मजहबी संस्थाओं का जाल बिछा हुआ है, जो शिक्षा-स्वास्थ्य-सेवा के विविध प्रकल्पों और सामाजिक न्याय व समता-स्वतंत्रता के विविध आकर्षक सब्जबागों एवं विकास-परियोजनाओं की ओट में देसी-विदेशी धन के सहारे छलपूर्वक धर्मांतरण का धंधा संचालित कर रही हैं। इन संस्थाओं की कारगुजारियों के कारण यहां कभी ‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर उठ जाता है, तो कभी ‘अल्पसंख्यकों की सुरक्षा’ का ग्राफ नीचे की ओर गिरा हुआ बताया जाता है। ये संस्थायें भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृति की हैं। कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं, जो शिक्षण-अध्ययन के नाम पर भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह का शोध-अनुसंधान करती रहती हैं; तो कुछ संस्थायें ऐसी हैं, जो इन कार्यों के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी कर उन्हें साध्य व साधन मुहैय्या करती-कराती हुई विश्व-स्तर पर उनकी नेटवर्किंग भी करती हैं। 'फ्रीडम हाउस' संयुक्त राज्य अमेरिका की एक ऐसी ही संस्था है, जो भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें भडकाने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त-पोषण और नीति-निर्धारण करती है। किन्तु वास्तव में धर्मोन्मूलन (अर्थात ईसाईकरण या इस्लामीकरण) और भारत-विभाजन ही इसका गुप्त एजेण्डा है, जिसके लिए यह संस्था भारत में कथित अल्पसंख्यकों के उत्पीडन की इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित करती है। इसी तरह से ‘दलित फ्रीडम नेटवर्क’ (डीएफएन) नामक एक अमेरिकी संस्था का नियमित पाक्षिक प्रकाशन भी है- ‘दलित वायस’ जो भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक ‘दलितस्तान’ राज्य की भी वकालत करता रहता है। इन दोनों संस्थाओं को अमेरिकी सरकार का ऐसा वरदहस्त प्राप्त है कि वे अमेरिका-स्थित विभिन्न सरकारी आयोगों के समक्ष भारत से रिलीजियस-मजहबी कार्यकर्ताओं को ले जा- ले जाकर भारत-सरकार के विरूद्ध गवाहियां दिलाता है। ये संस्थायें भारत के बहुसंख्य समाज के विरूद्ध फर्जी अल्पसंख्यक-उत्पीडन और उसके निवारणार्थ भारत-विभाजन की वकालत-विषयक शैक्षिक शोध-परियोजनाओं के लिए शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को फेलोशिप व छात्रवृत्ति प्रदान करता है। इसने कांचा इलाइया नामक उस तथाकथित दक्षिण भारतीय शोधार्थी को उसकी पुस्तक- ‘ह्वाई आई एम नॉट ए हिन्दू’ के लिए पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप प्रदान किया है, जिसमें अनुसूचित जातियों-जनजातियों-ईसाइयों को सवर्ण हिन्दुओं के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए भडकाया गया है ।

पीआईएफआरएएस (पॉलिसी इंस्टिच्युट फॉर रिलीजन एण्ड स्टेट) अर्थात ‘पिफ्रास’ अमेरिका की एक और ऐसी संस्था है, जिसका चेहरा तो समाज और राज्य के मानवतावादी लोकतान्त्रिक आधार के अनुकूल नीति-निर्धारण को प्रोत्साहित करने वाला है, किन्तु इसकी खोपडी में भारत की वैविध्यतापूर्ण एकता को खण्डित करने और हिन्दुओं के धर्मान्तरण (धर्मोन्मूलन) की योजनायें घूमती रहती हैं। इन धर्मान्तरणकारी मिशनरी संस्थाओं का एक वैश्विक गठबन्धन भी है, जिसका नाम- एफआईएकेओएनए (द फेडरेशन ऑफ इण्डियन अमेरिकन क्रिश्चियन ऑर्गनाइजेसंस ऑफ नार्थ अमेरिका) अर्थात ‘फियाकोना’ है। ये दोनो संगठन एक ओर ‘इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम; नामक अमेरिकी कानून के सहारे विश्व-मंच पर भारत को ‘मुस्लिम-ईसाई अल्पसंख्यकों का उत्त्पीडक देश’ के रुप में घेरने की साजिशें रचते रहते हैं, तो दूसरी ओर भारत के भीतर नस्लीय भेद एवं सामाजिक फुट पैदा करने के लिए विभिन्न तरह के हथकण्डे अपनाते रहते हैं।

ऐसे में भारत की सम्प्रभुता व अखण्डता की सुरक्षा के लिए धर्मांतरण (धर्मोन्मूलन) पर रोक लगाने के बावत इलाहाबाद उच्च न्यायालय और इससे भी पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को निर्देशित किये जाने के बावजूद सरकार की उदासीनता घोर चिन्ताजनक है। धर्मोन्मूलन (धर्मान्तरण) का सदैव ही विरोध करते रहने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी जब अल्पसंख्यक-कल्याण के नाम पर बहुसंख्यक समाज के यीसाईकरण व इस्लामीकरण को बढावा देने वाली पूर्व की कांग्रेसी सरकार द्वारा कायम किए गए अल्पसंख्यक आयोग एवं मुस्लिम वक्फ बोर्ड नामक संस्थाओं और उनकी विभिन्न योजनाओं यथा- ‘मदरसाई शिक्षा’, ‘वजीफा’ व व्याज-मुक्त ऋण आदि पर प्रति वर्ष भारी-भरकम बजट का प्रावधान करती रही है, तब इस राष्ट्रीय त्रासदी से भारत राष्ट्र को आखिर कौन उबारेगा ? न्यायालय जब बहुसंख्यक समाज की घटती आबादी पर चिन्ता जताते हुए उसके ईसाईकरण व इस्लामीकरण को रोकने का निर्देश दे रहा है, तब केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह इसके उपाय के तौर पर इन धर्मोन्मूलनकारी (धर्मान्तरण्कारी) योजनाओं को बन्द करते हुए ‘समान नागरिक संहिता’ शीघ्र कायम करे और ‘मजहबी आबादी नियंत्रण’ का सख्त कानून भी कायम करे।  

- मनोज ज्वाला

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