अदालतों पर से मुकदमों का बोझ कम हो सकता है, बशर्ते कोई पहल तो करे

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देश में सबसे ज्यादा मुकदमे रेवेन्यू से जुड़े हुए हैं। गांवों में जमीन के बंटवारे या सीमा निर्धारण को लेकर देश की निचली अदालतों में अंबार लगा हुआ है। इस तरह के मुकदमों के निपटारे में ग्राम पंचायत की कहीं कोई भूमिका तय हो तो शायद कोई स्थाई समाधान संभव हो सकता है।

लाख प्रयासों के बावजूद देश की अदालतों में मुकदमों का अंबार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश की अदालतों में सात करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित हैं। इनमें से करीब 87 फीसदी मुकदमे देश की निचली अदालतों में लंबित हैं तो करीब 12 फीसदी मुकदमे राज्यों के उच्च न्यायालयों में लंबित चल रहे हैं। देश की सर्वोच्च अदालत में एक प्रतिशत मुकदमे लंबित हैं। पिछले दिनों जयपुर में आयोजित एक समारोह के दौरान न्यायालीय प्रक्रिया और सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी करने वाले वकीलों की फीस को लेकार अच्छी खासी चर्चा हुई जो मीडिया की सुर्खियां भी बनी। वहीं अगस्त में कार्य भार संभालने वाले नए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यूयू ललित द्वारा अदालत में सुबह साढ़े नौ बजे सुनवाई आरंभ करने की पहल पर भी वाद-विवाद का दौर जारी है। उधर सरकार ने संसद के मानसून सत्र में कुछ बदलावों के साथ मध्यस्थता विधेयक लाने का संकेत दिया है तो दूसरी और न्यायाधीशों की भर्ती में एकरूपता लाने के केन्द्र के प्रयास लगभग विफल हो गए हैं।

  

हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायालयों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है तो दूसरी ओर सभी पक्ष इसे लेकर चिंतित भी हैं। सवाल यह है कि मुकदमों के इस अंबार को कम करने के लिए कोई ऐसी रणनीति बनानी होगी जिससे अदालतों का भार भी कम हो, न्यायिक प्रक्रिया लंबी भी ना चले और लोगों को समय पर न्याय भी मिले। पिछले पांच साल में ही देश में लंबित मुकदमों की संख्या चार करोड़ से बढ़कर आज सात करोड़ हो चुकी है। हालांकि लोक अदालत के माध्यम से मुकदमों में कमी लाने की सार्थक पहल अवश्य की गई है पर लोक अदालतों में लाखों प्रकरणों से निबटने के बावजूद हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। दरअसल लाखों की संख्या में इस तरह के मुकदमे हैं जिन्हें निपटाने के लिए कोई सर्वमान्य समाधान खोजा जा सकता है। मुकदमों की प्रकृति के अनुसार उन्हें विभाजित किया जाए और फिर समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें निपटाने की कार्ययोजना बने तो समाधान कुछ हद तक संभव है।

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कुछ इस तरह के मुकदमे हैं जिन्हें आसानी से निपटाने की कोई योजना बन जाए तो मुकदमों की संख्या में कमी हो सकती है। इनमें खासतौर से यातायात नियमों को तोड़ने वाले मुकदमों की ऑनलाईन निपटान की कोई व्यवस्था हो जाए तो अधिक कारगर हो सकती है। इसी तरह से चैक बाउंस होने के लाखों की संख्या में मुकदमें हैं जिन्हें एक या दो सुनवाई में ही निस्तारित किया जा सकता है। इसी तरह से मामूली कहासुनी के मुकदमे जिसमें शांति भंग के प्रकरण शामिल हैं, उन्हें भी तारीख दर तारीख के स्थान पर एक ही तारीख में निपटा दिया जाए तो हल संभव है। इसी तरह से राजनीतिक प्रदर्शनों को लेकर दर्ज होने वाले मुकदमों के निस्तारण की भी कोई कार्ययोजना बन जाए तो उचित हो। इससे कम ग्रेविटी के मुकदमों का सहज निस्तारण संभव होगा तो न्यायालयों का समय भी बचेगा।

देश में सबसे ज्यादा मुकदमे रेवेन्यू से जुड़े हुए हैं। गांवों में जमीन के बंटवारे या सीमा निर्धारण को लेकर देश की निचली अदालतों में अंबार लगा हुआ है। इस तरह के मुकदमों के निपटारे में ग्राम पंचायत की कहीं कोई भूमिका तय हो तो शायद कोई स्थाई समाधान संभव हो सकता है। पंच परमेश्वर की अवधारणा कहीं इस तरह के मुकदमों के निपटारे में अधिक सहायक हो सकती है। स्थानीय स्तर पर समझाइश से इस तरह के मुकदमों पर शीघ्र निर्णय की एक संभावना बनती है। हो यह रहा है कि रेवेन्यू के मुकदमे अपील दर अपील, पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं और मामूली-सा सीमा विवाद लंबी कानूनी प्रक्रिया में उलझ कर रह जाता है। मीडिया ट्रायल पर भी अंकुश की आवश्यकता है क्योंकि इससे कुछ हद तक निर्णय प्रभावित होने की संभावना बनती है।

हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे देश की अदालतों में ब्रिटेन आदि की अदालतों से कई गुणा अधिक मुकदमों की सुनवाई एक दिन में होती है। केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजूजू की मानें तो इंग्लैण्ड में एक न्यायाधीश एक दिन में तीन से चार मामलों में निर्णय देते हैं जबकि हमारे देश में प्रत्येक न्यायाधीश औसतन प्रतिदिन 40 से 50 मामलों में सुनवाई करते हैं। यह इस ओर भी इंगित करता है कि हमारे देश में न्यायाधीशों के पास कार्यभार अधिक है। अधिक काम करने के बावजूद मुकदमों की संख्या कम होने का नाम ही नहीं लेती। पिछले कुछ समय से जिस तरह से पीआईएल को लेकर माननीय न्यायमूर्तियों द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है और जुर्माना भी लगाया जा रहा है, इसके भी सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगे हैं। इसी तरह से कोर्ट में केस दायर होने पर गवाह या याचिकाकर्ता के होस्टाइल होने को भी जिस तरह से अदालतों द्वारा गंभीरता से लिया जाने लगा है, उसके भी परिणाम आने वाले समय में और ज्यादा सकारात्मक होंगे।

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न्यायालयों की मध्यस्थता के लिए भेजे जाने वाले मामलों में वादी-प्रतिवादी द्वारा गंभीरता नहीं दिखाने से भी हालात अधिक सुधरे नहीं हैं। दरअसल मध्यस्थता से होने वाले निर्णय की पालना को लेकर अभी भी लोग संदेह में ही रहते हैं कि पालना होगी भी या नहीं। या फिर पालना के लिए वापिस अदालतों के चक्कर लगाने होंगे। हालांकि केन्द्र सरकार अब मध्यस्थता कानून में इसी मानसून सत्र में आवश्यक संशोधित प्रावधानों के साथ पारित कराने के लिए गंभीर लगती है। देखा जाए तो अदालतों की सामान्य प्रक्रिया पर लोगों का विश्वास है। चारों तरफ से निराश और हताश व्यक्ति न्याय के लिए न्याय का दरवाजा खटखटाता है। ऐसे में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वे लोगों में अवेयरनेस लाएं और अदालत से बाहर निपटने वाले मामलों को बाहर ही निपटा लें। इसके लिए पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, वरिष्ठ वकीलों व गैर-सरकारी संगठनों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम बनाई जा सकती है जो इस तरह के मामलों को समझाइश से सुलझा सकें। जिससे न्यायालयों का समय भी बचे और वादी प्रतिवादी का धन और समय बचने के साथ ही सौहार्द भी बना रह सके।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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