Interview: कोई लौटा दे मेरे बचपन के दिनः अभिनेता राकेश श्रीवास्तव

Actor Rakesh Srivastava
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फ़िरदौस ख़ान । May 30 2024 12:34PM

अभिनेता राकेश श्रीवास्तव कहते हैं कि हर गर्मी की छुट्टियों में अपने ददिहाल बाबा-दादी से मिलने गोरखपुर जाया करते थे। मैं अपने दादा जी को बाबा कहता था। जब पापा की नियुक्ति पटना में थी तब हम पानी के जहाज़ से गंगा पार कर महेन्द्रू घाट से सोनपुर जाया करते थे।

सुप्रसिद्ध अभिनेता राकेश श्रीवास्तव ने साल 1990 में 'एक लड़का एक लड़की' से हिन्दी सिनेमा में अपना डेब्यू किया था। वे सब टीवी के सीरियल 'लापतागंज' के लल्लन जी के नाम से मशहूर हैं। उन्होंने लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी से ड्रामाटिक आर्ट में डिप्लोमा किया है। वे कई नाटकों और धारावाहिकों में काम कर मुम्बई आए और फिर यहीं के होकर रह गए। वे कहते हैं- 

बचपन से ही फ़ितरत है मुस्कुराने की 

हंसने की और लोगों को हंसाने की

शायद इसीलिए अब वे अपने अभिनय से लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। जब उनसे गर्मियों की छुट्टियों के बारे में पूछा गया तो उनके चेहरे पर रौनक़ आ गई। बचपन होता ही ऐसा है कि इंसान उसे कभी भूल नहीं पाता। बचपन की यादें सबसे ख़ूबसूरत होती हैं। बचपन में पढ़ाई और खेल के सिवा कोई दूसरा काम भी तो नहीं होता। वे कहते हैं कि आपने बचपन याद दिला दिया। गर्मियों की छुट्टियों के दिन बच्चों के लिए ख़ुशियों के दिन होते हैं। सभी बच्चे छुट्टियों के इस मौसम का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। मैं भी बचपन में गर्मी की छुट्टियों का बेसब्री से इंतज़ार करता था। मेरे पापा रिज़र्व बैंक में कार्यरत थे। अत: तीन-चार साल के बाद अलग-अलग प्रदेश की राजधानी में स्थानान्तरण हुआ करता था। 

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वे कहते हैं कि हर गर्मी की छुट्टियों में अपने ददिहाल बाबा-दादी से मिलने गोरखपुर जाया करते थे। मैं अपने दादा जी को बाबा कहता था। जब पापा की नियुक्ति पटना में थी तब हम पानी के जहाज़ से गंगा पार कर महेन्द्रू घाट से सोनपुर जाया करते थे। बचपन में जहाज़ से गंगा पार करने का जो आनन्द मानस पटल पर छपा है, वो याद करके मन रोमांच से भर जाता है। दूर तक पानी ही पानी नज़र आता था। ऊपर नीला अम्बर और नीचे नीला पानी। नीले आसमान के अक्स से पानी नीला दिखाई देता था। आसमान पर जब सफ़ेद बादल होते तो उसके सौन्दर्य में चार चाँद लग जाते थे। मैं कभी आसमान को देखता, तो कभी नदी के बहते पानी को। इस तरह जहाज़ कब घाट पर पहुंच जाता था, पता ही नहीं चलता था।   

उन्हें बचपन से ही खाने-पीने का बहुत शौक़ था। वे कहते हैं कि बचपन से ही मैं बहुत चटोरा था। सोनपुर पहुंचते ही खाजा खाने के लिए लालायित रहता था। ये मैदे की बहुत ही स्वादिष्ट मिठाई है। गोरखपुर पहुंचने पर बाबा-दादी, चाचा-चाची, बहन सीमा की आंखों में ख़ुशी देखकर हम रास्ते की सारी थकान भूल जाया करते थे। शाम को बाबा घोष कम्पनी चौराहा ले जाया करते और दालमोठ, समोसा और इमरती खिलाते। कभी-कभार घंटाघर रबड़ी-खुरचन खिलाने ले जाते। सुबह-सुबह ही सारे रिश्तेदार मिलने आ जाते थे और हम उनके बच्चों संग घर में ही हुड़दंग मचाया करते थे. मेरी बुआ और दादी के हाथ का बना मिर्च का अचार, इमली की पीड़िया के बारे में सोचकर आज भी मुंह में पानी आ जाता है।

वे ज़िन्दगी के हर पल को जी लेने में यक़ीन रखते हैं। वे कहते हैं कि गर्मियों की छुट्टियों में हम दिन भर खेलते। कभी रिश्तेदारों के बच्चों के साथ, तो कभी मोहल्ले के बच्चों के साथ। बड़े लू के कारण दोपहर में घर से बाहर निकलने से मना करते, लेकिन हमें खेल के आगे कुछ दिखाई ही कहां देता था। बड़ों की नज़र बचाते हुए हम बाहर भाग जाते। हमें न गर्मी का अहसास होता था और न ही लू लगने की कोई फ़िक्र थी। हम तो अपनी छुट्टियों को भरपूर जी लेना चाहते थे और जीते भी थे।

वे सफ़र में भी ख़ूब चटोरबाज़ी किया करते थे। वे बताते हैं कि चार साल बाद पापा का स्थानान्तरण अहमदाबाद में हो गया। वहां से छुट्टियों में जब गोरखपुर जाते, तो हम चटोरे ट्रेन में संडीला के लड्डू, खुर्जा का खुरचन, उरई के गुलाब जामुन का आनन्द लेते हुए गोरखपुर पहुंचते और फिर वही हुड़दंग करते. बाबा-दादी के प्यार, आशीर्वाद और ख़ुशियों का भंडार भरकर हम अहमदाबाद आते और फिर से गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार करते थे।

अपनी शरारतों की वजह से वे कई मुसीबतें उठा चुके हैं, लेकिन फिर भी शरारत करने से पीछे नहीं रहे। वे बचपन का एक ऐसा ही वाक़िया सुनाते हुए कहते हैं कि बचपन में सब कुछ आसानी से मिलने में मज़ा नहीं आता है। बाबा के घर के सामने एक अमरूद का बाग़ीचा था। माली से बचकर चुपके से घुसते और अमरूद के पेड़ की पतली टहनियों पर चढ़कर गर्मी के मौसम में अमरूद खोजते और भद्द से गिरते। हमारे गिरने की आवाज़ सुनकर माली दौड़कर आता और हमें ख़ूब दौड़ाता तो हम गिरते पड़ते भागते। एक बार भागते हुए बंदर के बच्चे से टकरा गए। बंदर को बहुत ग़ुस्सा आया और उसने दौड़ाकर मेरे पिछवाड़े काट लिया। इसके बाद पेट में चौदह सुइयां लगीं। इसके दर्द का अहसास आज भी है। आज भी सुई के डर से कुत्ते, बिल्ली और बंदर को देखते ही दूर भागता हूं।

दरअसल बचपन की ये खट्टी-मीठी यादें ज़िन्दगी में बहुत बड़ा सहारा हुआ करती हैं। जब कभी मन उदास हो और कुछ अच्छा न लगे, तो बचपन से जुड़ी चीज़ें देखकर, बचपन की बातें याद करके चेहरे पर मुस्कान आ ही जाती है। राकेश श्रीवास्तव कहते हैं- 

मन के

गुल्लक में 

भर लो

इतना प्यार,

ख़ुशियां

न 

मांगनी पड़े

उधार...

वे यह भी कहते हैं-

उदास

देखो जो

किसी को,

मुस्कान का 

उपहार दो,

जीवन उनका 

निखार दो...

वे कहते हैं कि प्रेम से बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं है। वे कहते हैं-

सम्मान 

प्यार

व्यवहार,

जीवन के 

सुन्दर 

उपहार,

बांटोगे 

तो मिलेगा 

बार-बार...

वे कहते हैं कि गर्मी की छुट्टियों में पूरे परिवार का मिलन अगली पीढ़ी के संबंध को और मज़बूत करता है। एक ही फूल वाली थाली में बचपन से हमारा और सीमा का साथ-साथ खाना भाई-बहन के बंधन को और प्रगाढ़ करता गया। वे कहते हैं-

कोई लौटा दे मेरा बीता हुआ बचपन 

वो प्यार, ख़ुशियां, अपनापन के क्षण 

वो गर्मी की छुट्टियों का प्यारा मौसम 

फिर से जी लेंगे निराला सा बचपन 

- फ़िरदौस ख़ान

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)

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