आधे अधूरे मन से काम किया है तो सफलता कहाँ से मिल जायेगी ?

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ललित गर्ग । Sep 5 2019 9:49AM

हर दौर में अच्छे, ईमानदार और आदर्शवादी व्यक्ति मौजूद होते हैं। अपने जीवन में जब भी हम ऐसे गुणों का निर्वाह करते हैं, तो इससे न केवल हमारे चेहरे पर संतुष्टि का भाव झलकने लगता है, बल्कि हमारे व्यक्तित्व में भी उसकी गरिमा दिखाई पड़ती है। लेकिन इसके लिये पहल करनी जरूरी है।

हमारी जिंदगी उतार-चढ़ावों से भरी होती है। और हम सब सोचते हैं कि यदि अवसर मिलता तो एक बढ़िया और नेक काम करते। लेकिन हमारी बढ़िया या नेक काम करने की इच्छा अधूरी ही रहती है क्योंकि अक्सर जब हम जिंदगी के बुरे दौर से गुजरते हैं, तब उससे निकलने और जब अच्छे दौर में होते हैं, तब उस स्थिति को बरकरार रखने में जिन्दगी बिता देते हैं। लेकिन हमें कुछ विलक्षण एवं अनूठा करने के लिये समझौतावादी नहीं होना चाहिए, जैसा कि एन्डी वार्होल ने कहा कि “समय के साथ साथ परिस्थितियां बदल जाती हैं, लेकिन वास्तव में उन्हें आपको स्वयं ही बदलना होता है।” सच्चाई यही है कि हर इंसान के लिये जिन्दगी हर पल एक नया अवसर होती है।

जिन्दगी तो सभी जीते हैं, लेकिन यहां बात यह मायने नहीं रखती कि आप कितना जीते हैं, बल्कि लोग इसी बात को ध्यान में रखते हैं कि आप किस तरह और कैसे जीते हैं। जीवन में आधा दुख तो इसलिए उठाते फिरते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते हैं कि सच में हम क्या हैं? क्या हम वही हैं जो स्वयं को समझते हैं? या हम वो हैं जो लोग समझते हैं। व्यक्ति अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने के लिये समाज से जुड़कर जीता है, इसलिए समाज की आंखों से वह अपने आपको देखता है। साथ ही उसमें यह विवेक बोध भी जागृत रहता है ‘मैं भी जो हूं, जैसा हूं’ इसका मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। उसके अच्छे बुरे चरित्र का बिम्ब समाज के दर्पण में तो प्रतिबिम्बित होता ही है, उसका स्वयं का जीवन भी इसकी प्रस्तुति करता है। राल्फ वाल्डो एमर्सन ने कहा कि “पूरा जीवन एक अनुभव है। आप जितने अधिक प्रयोग करते हैं, उतना ही इसे बेहतर बनाते हैं।”

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जिंदगी का कोई लम्हा मामूली नहीं होता, हर पल वह हमारे लिए कुछ-न-कुछ नया पेश करता रहता है-जब हमारी ऐसी सोच बनती है तभी हम अपने आपसे रूबरू होते। स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार के बिना हमारी लक्ष्य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती है। स्वयं की शक्ति और ईश्वर की भक्ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में हम औरों के मुहताज बनते हैं, औरों का हाथ थामते हैं, उनके पदचिन्ह खोजते हैं।

सच्चाई यही है कि आदर्श की अपेक्षाओं को दबाया जाता रहे, तो धीरे-धीरे आदर्श की उड़ान समाप्त होने लगती है। महान और आदर्श काम करने के लिए अक्ल से ज्यादा दिलेरी की जरूरत होती है और यह दिलेरी लुप्तप्राय होती जा रही है। आज लगभग देश और दुनिया इसी आदर्शहीनता के स्थिति से ही मुखातिब है। इससे उबरने के लिये डैनियल एच. बर्नहम ने कहा कि “कोई छोटी-छोटी योजनाएं न बनाएं, उनमें मनुष्य को प्रेरित करने का कोई जादू नहीं समाया होता, बड़ी योजनाएं बनाएं, उच्च आशा रखें और काम करें।”

मैंने अपने जीवन में आदर्श एवं नैतिकता की चादर ओढ़कर अपने जीवन को सार्थक करते हुए लोगों को भी देखा है और ऐसे लोगों को भी देखा है जिनका मानना है कि आदर्श एवं नैतिकता से कोरी झोपड़ियां बनायी जा सकती हैं, महल खड़े नहीं हो सकते हैं। फ्रांसिस थामसन ने कहा कि “अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है।’ इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज ज्यों-ज्यों विकास के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यों-त्यों आदर्श धूल-धूसरित हो रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, हर दौर में अच्छे, ईमानदार और आदर्शवादी व्यक्ति मौजूद होते हैं। अपने जीवन में जब भी हम ऐसे गुणों का निर्वाह करते हैं, तो इससे न केवल हमारे चेहरे पर संतुष्टि का भाव झलकने लगता है, बल्कि हमारे व्यक्तित्व में भी उसकी गरिमा दिखाई पड़ती है। लेकिन इसके लिये पहल करनी जरूरी है। जैसा कि हायमैन रिकओवर ने कहा कि “अच्छे विचारों को स्वतः ही नहीं अपनाया जाता है। उन्हें पराक्रमयुक्त धैर्य के साथ व्यवहार में लाया जाना चाहिए।”

प्रश्न उठता है कि अच्छाई, ईमानदारी और आदर्श आदि उदात्त गुणों के निर्वाह से हमारे चेहरे पर सकारात्मक भाव क्यों और कैसे प्रकट हो जाते हैं? क्या इन भावों का हमारे स्वास्थ्य और विचारों से भी कोई संबंध है? अपने बीते हुए दिनों और घटनाओं पर जरा नजर डालिए। आपने भी अपने जीवन में कई बार इन अच्छाइयों का परिचय दिया होगा। उस समय आपकी मनोदशा कैसी थी और उस मनोदशा का आपके स्वास्थ्य और विचारों पर क्या प्रभाव पड़ा था? निश्चित ही आपका उत्तर सकारात्मक होगा क्योंकि आप या तो इस बात पर सिर धुन सकते हैं कि गुलाब में कांटे हैं या इस पर खुश हो सकते हैं कि कांटों से भी गुलाब खिलते हैं। जब भी हम ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, किसी की मदद करते हैं अथवा कोई अच्छा कार्य करते हैं, तो उससे अपने भीतर हम अपार संतोष महसूस करते हैं। तब वही भाव हमारे चेहरे और विचारों पर भी झलकने लगता है। इससे हमारे पूरे व्यक्तित्व में एक सकारात्मक परिवर्तन होता है। संतुष्टि और आनंद की अवस्था में व्यक्ति तनावमुक्त रहता है और इसलिए स्वस्थ रहता है। यह अवस्था मनुष्य के अच्छे स्वास्थ्य के साथ-साथ एक सफल एवं सार्थक जीवन की परिचायक है। मार्टिन लुथर किंग, जूनियर ने कहा कि “हमारे जीवन का उस दिन अंत होना शुरू हो जाता है जिस दिन हम उन विषयों के बारे में चुप रहना शुरू कर देते हैं जो मायने रखते हैं।”

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इसके वितरीत जब कभी इंसान के भीतर द्वंद्व चलता है तो जिंदगी का खोखलापन उजागर होने लगता है। अक्सर आधे-अधूरे मन और निष्ठा से हम कोई भी कार्य करते हैं तो उसमें सफलता संदिग्ध हो जाती है। सफलता या ऊंचाइयां आप तभी पा सकते हैं, जब अपना काम करते हुए इस बात को नजरअंदाज कर दें कि इसकी वाहवाही किसे मिलेगी? हम तो मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च में जाकर भी अपने धनबल, बाहुबल या सत्ताबल के आधार पर लम्बी-लम्बी लाइनों के बजाय वीआईपी दर्शन करके लौट जाते हैं। क्या हमारा ईश्वर से मिलने का यह तरीका परिणामकारी हो सकता है? हम हमारी आस्था या भगवान के प्रति निष्ठा को सस्ता न बनने दें। हमें अपना हर काम इस तरह करना चाहिए, जैसे हम सौ साल तक जीयेंगे, पर ईश्वर से रोजाना प्रार्थना ऐसे करनी चाहिए, जैसे कल हमारी जिंदगी का आखिरी दिन हो। जब हम ईश्वर के प्रति इतने पवित्र एवं परोपकारी बनकर प्रस्तुत होंगे तभी जीवन को सार्थकता तक पहुंचा सकेंगे। वैसे भी अमीर वह नहीं है, जिसके पास सबसे ज्यादा दौलत है, बल्कि वह है, जिसे और कुछ नहीं चाहिए। सच्चाई तो यही है कि जिसे और कुछ नहीं चाहिए वही सच्चे रूप में ईश्वर से साक्षात्कार की पात्रता अर्जित करता है और वही जीवन को नये आयाम देता है, सफल एवं सार्थक जीवन जीता है। तभी पॉल वैलेरी ने कहा कि “अपने सपनों को साकार करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है कि आप जाग जाएं।”

-ललित गर्ग

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