समाज से पहले अपने परिवार को सनातन हिंदू संस्कृति और उसके समृद्ध इतिहास की जानकारी दें
पश्चिमी संस्कारों में निजता हावी है। निजता का भाव किसी के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पता है। इसलिए वहां सामूहिक जीवन का अभाव दिखाई देता है। अतः इन देशों में शादी के कुछ समय पश्चात ही पति-पत्नि के बीच तलाक की परिणति दिखाई देती है।
ब्रिटेन एवं अन्य विकसित देशों में शादियों के पवित्र बंधन टूटने की घटनाएं बहुत बड़ी मात्रा में हो रही हैं, तलाक की संख्या में लगातार हो रही वृद्धि को देखते हुए ब्रिटेन की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती मार्ग्रेट थेचर ने एक बार कहा था कि क्यों न ब्रिटेन भी भारतीय विवाह मूल्यों को अपना ले क्योंकि भारतीय हिंदू समाज में तो तलाक की घटनाएं लगभग शून्य रहती हैं। भारत में तो शादी के पवित्र बंधन को इस जन्म में ही नहीं बल्कि आगे आने वाले सात जन्मों तक निभाने की कसमें खाई जाती हैं।
आज भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में बहुत महान एवं प्राचीन मानी जा रही है। भारतीय संस्कृति के मूल में एकात्म का भाव छुपा है। हम सब में ईश्वर का वास है और भारत में सनातन हिंदू संस्कृति के संस्कारों को सीखने की परम्परा समाज की सबसे छोटी इकाई अर्थात परिवार एवं कुटुंब से प्रारम्भ होती है।
प्राचीन भारत में तो कुटुंब प्रबोधन के सम्बंध में नियमों को गुरुकुल में सिखाया जाता था। वर्ष 1823 तक भारत में 750,000 गुरुकुल थे। परंतु दुर्भाग्य से विदेशी आक्राताओं द्वारा इन समस्त गुरुकुलों को नष्ट कर दिया गया और हमारी आने वाली पीढ़ियां महान भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने में सफल नहीं हो सकीं।
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इस विश्व को, इस देश को, इस समाज को बचाने की शुरुआत तो अपने परिवार से ही करनी होगी। अच्छी आदतों को अपने घर से ही प्रारम्भ करना होगा। केवल उपदेश देने से काम चलने वाला नहीं है। आज के परिवारों में माता पिता को चाहे एक ही संतान हो, उसे भी अमेरिका अथवा अन्य किसी विकसित देश में पढ़ने एवं रोजगार के लिए भेज देते हैं और स्वयं वृद्ध आश्रम में रहते लगते हैं। इसलिए आज आश्यकता इस बात की है कि हम अपनी युवा पीढ़ी को हमारे देश के महापुरुषों की जानकारी दें, सनातन हिंदू संस्कृति एवं महान संस्कारों की जानकारी दें, हमारे समृद्ध इतिहास की जानकारी दें। तिलक लगाना, अपने से बड़ों का चरण स्पर्श करना, बुज़ुर्गों से आशीर्वाद लेना, आदि यह सब हमारे संस्कारों में हुआ करता है।
प्राचीन भारत में परिवारों में यह प्रथा थी कि भोजन को ग्रहण करने के पहिले 5 कौर निकालते थे (एक कौर गाय माता के लिए, एक कौर कौवे के लिए, एक कौर श्वान के लिए, आदि) तब परमात्मा को भोग लगाया जाता था और फिर भोजन ग्रहण किया जाता था। लगभग प्रत्येक परिवार में यज्ञ किए जाने की प्रथा का पालन होता था। गांव में बेटी की शादी होने की स्थिति में गांव के समस्त परिवार मिलकर उस शादी की व्यवस्था करते थे। जैसे वह बेटी किसी विशेष परिवार की न होकर पूरे गांव की बेटी हो। साथ ही, इस शादी में होने वाले पूरे खर्च का सभी परिवार मिलकर वहन करते थे। मातृशक्ति का सम्मान तो भारतीय संस्कृति के मूल में है। माताओं को देवी का रूप माना जाता रहा है।
हाल ही के समय में यह ध्यान में आता है कि अन्य देश भारतीय संस्कारों एवं परम्पराओं को अपनाते जा रहे हैं परंतु हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कारों की ओर आकर्षित होती जा रही है। भारत में भी कहीं कहीं परिवार टूट रहे हैं, भारतीय संस्कार कहीं पीछे छूट रहे हैं। भाई-भाई, पिता-पुत्र, पिता-बेटी, भाई-बहिन के बीच पारिवारिक सम्पत्ति को लेकर कोर्ट-कचहरी में केस हो रहे हैं। इसलिए आज समाज के हर वर्ग को आपस में जोड़ने की आवश्यकता है। सनातन हिंदू संस्कृति की मूल भावना ही आपस में जोड़ने की है। परिवार बचेगा तभी यह देश भी बचेगा।
पश्चिमी संस्कारों में निजता हावी है। निजता का भाव किसी के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पता है। इसलिए वहां सामूहिक जीवन का अभाव दिखाई देता है। अतः इन देशों में शादी के कुछ समय पश्चात ही पति-पत्नि के बीच तलाक की परिणति दिखाई देती है। इसके ठीक विपरीत भारत में सामूहिक जीवन है। समाज में परिवार/गृहस्थ एक केंद्र बिंदु अथवा धुरी के रूप में उपस्थित रहता है। परिवार बढ़ने पर नए सदस्यों का सदैव स्वागत किया जाता है। परिवार में पशु पक्षियों को भी शामिल किया गया है। इसलिए बिल्ली को मौसी, नदी को माता, धरती को माता, गौ को माता, अग्नि को सखा आदि की संज्ञा दी गई। “वसुधेव कुटुम्बकम” के सिद्धांत को माना गया है अर्थात पूरे विश्व को ही अपना परिवार माना जाता है। भारत में इसलिए परिवार नामक संस्था को बहुत महत्व दिया जाता है।
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह दत्तात्रेय जी होसबाले ने श्री शंकराचार्य के एक श्लोक “स्वदेशो भूमत्व” का स्मरण करते हुए एक कार्यक्रम में कहा है कि राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई कुटुंब बलवान व अतुलनीय शक्ति वाली है। सैंकड़ों वर्षों तक अन्य मतावलंबियों के आक्रमण के कारण हमने अपनी धरती को खोया। सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित कर उसे पूरी तरह नष्ट करने का प्रयास हुआ, परंतु इस दीर्घकालीन व्यवस्था में कुटुंब व्यवस्था बरकरार रही। इसलिए इसे आज के परिप्रेक्ष्य में और अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है। परिवार को कल्याणकारी बनाने से समाज और देश का कल्याण होगा। अतः कुटुंब प्रबोधन का कार्य परिवार से ही शुरू करने की जरूरत है और कुटुंब को मजबूत बनाने के उद्देश्य से निम्नलिखित कार्यों को आज करने की महती आवश्यकता महसूस की जा रही है-
(1) माह में कम से कम दो बार परिवार के साथ बैठना एवं आपस में चर्चा करना ताकि एक दूसरे के सुख दुःख को साझा किया जा सके एवं सम्भव हो तो उन समस्याओं का निदान भी सोचा एवं किया जा सके।
(2) इसी प्रकार कम से कम एक दिन मित्र परिवारों के साथ भी बिताया जाना चाहिए, आपस में की गई चर्चा से परिवार के सभी सदस्यों का न केवल मन हल्का हो जाता है बल्कि आत्मविश्वास भी जागृत होता है।
(3) भारतीय समाज में मोबाइल एवं टीवी के लगातार बढ़ रहे उपयोग को देखते हुए अब तो समाज के सभी सदस्यों के लिए यह एक अनुकरणीय कार्य बन जाना चाहिए कि मोबाइल एवं टीवी का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाये और इस बचे हुए समय को धार्मिक, आध्यात्मिक अथवा सामाजिक कार्यों में लगाया जाये।
(4) परिवार के समस्त सदस्य अभी प्रातःकाल में नींद से जिस भी समय पर जागते हैं उससे कम से कम 30 मिनट पहले जागें और इस उत्कृष्ट समय को किसी श्रेष्ठ कार्य में लगाएं।
(5) परिवार के प्रत्येक सदस्य को प्रतिदिन साहित्य वाचन की आदत विकसित करनी चाहिए।
(6) गलत सामाजिक मान्यताओं, अहंकार, भय, स्वार्थ को परिवार से दूर रखना चाहिए। इन बातों पर व्यर्थ में समय व्यतीत नहीं करना चाहिए।
(7) अपनी जन्मतिथि मनाने का रिवाज भारत में भी चल पड़ा है परंतु हमें भारतीय परम्पराओं का ध्यान रखते हुए हुए ही अपनी जन्मतिथि को मनाना चाहिए और जन्मदिन मनाते समय समाजहित के उपक्रम को करने के बारे में विचार करना चाहिए। इसके लिए हम सभी मिलकर आत्मनिरीक्षण करें कि जन्मदिन जैसे दिन को समाजहित में परिवर्तित करें।
(8) हमारे वेद, पुराण एवं धर्मग्रंथों में यह बताया गया है कि अपनी कमाई का कुछ भाग समाजसेवा में लगाया जाना चाहिए इस दृष्टि से सामाजिक सेवा संस्थानों का सहयोग किया जाना चाहिए।
(9) प्रत्येक परिवार के समस्त सदस्य आपस में मिल-बैठकर भोजन करने की परम्परा पुनः प्रारम्भ करें। भोजन को थाली में बिल्कुल भी न बचायें। जितने भोजन की आवश्यकता हो केवल उतना भोजन ही थाली में लें। प्रत्येक परिवार के सदस्य प्रतिदिन प्रभु परमात्मा एवं अपने इष्ट देव की आरती की प्रथा पुनः प्रारम्भ करें।
उक्त के साथ ही, प्रत्येक घर के आंगन में तुलसी का पौधा हो, घर में इष्ट देव एवं भगवानों की मूर्तियां स्थापित होनी चाहिए। युवा पीढ़ी को सनातन हिंदू धर्म के संस्कार बचपन में ही दें ताकि परिवार के सभी सदस्यों की बीच सदैव प्रेमपूर्ण सम्बंध बने रहें। हमारी युवा पीढ़ी को अपने परिवार की कम से कम सात पीढ़ियों की नाम याद होना चाहिए। हमारे युवाओं को अपने जन्मदिन की तारीख भारतीय गृह नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार भी पता होनी चाहिए और जन्मदिन के पावन दिन धार्मिक आयोजन आयोजित किए जाने चाहिए। प्रत्येक परिवार को निम्न वर्णित पांच प्रकार के महायज्ञ नियमित रूप से करना चाहिए।
(1) बृह्म यज्ञ - सात्विक चिंतन करना; (2) देव यज्ञ - देव सृष्टि आराधना करना; (3) पित्र यज्ञ - पूर्वजों का स्मरण करना; (4) नर यज्ञ - नर सेवा ही नारायण सेवा है, इसे मूर्त रूप देना; और (5) भूत यज्ञ - प्राणी मात्र एवं पंच महाभूतों के कल्याण की कामना करना।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
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