अंतिम संस्कार के तरीकों में क्यों बदलाव कर रहे हैं भारत में रहने वाले पारसी और ईसाई धर्म के लोग

Parsi community
ANI

साइरस मिस्त्री के पार्थिव शरीर को एक दशक पहले पारसी समुदाय द्वारा बनाए गए होटल के सामने स्थित शवदाह गृह ले जाया गया। यहां परिवार के एक पुजारी ने रस्मों का निर्वाह करने के बाद शव को इलेक्ट्रिक मशीन के हवाले कर दिया।

आज की रिपोर्ट में हम बात करेंगे पारसी और ईसाई समुदाय की ओर से अंतिम संस्कार के बदलते तौर-तरीकों की। सबसे पहले बात करते हैं पारसी समुदाय की क्योंकि टाटा संस के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार के साथ ही यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया है। दरअसल गिद्धों की घटती आबादी के चलते पारसी समुदाय को शवों के अंतिम संस्कार के तरीकों में भी बदलाव करना पड़ा है। हम आपको बता दें कि पारसी समुदाय के लोगों के शवों को ‘टावर ऑफ साइलेंस’ पर छोड़ने की परंपरा रही है, जहां गिद्ध इन शवों को खा जाते हैं। इस प्रक्रिया को शव को 'आकाश में दफनाना' भी कहा जाता है। लेकिन साल 2015 से पारसी समुदाय के बीच अंतिम संस्कार के तरीके में बदलाव आया है और मुंबई में इलेक्ट्रिक शवदाह गृह के जरिए अंतिम संस्कार के कई मामले सामने आए हैं। पारसी धर्म की तय रस्मों को पूरा करने के बाद पार्थिव शरीर को इलेक्ट्रिक मशीन के हवाले कर दिया जाता है और साइरस मिस्त्री के मामले में भी यही देखा गया।

साइरस मिस्त्री के पार्थिव शरीर को एक दशक पहले पारसी समुदाय द्वारा बनाए गए होटल के सामने स्थित शवदाह गृह ले जाया गया। यहां परिवार के एक पुजारी ने रस्मों का निर्वाह करने के बाद शव को इलेक्ट्रिक मशीन के हवाले कर दिया। हम आपको बता दें कि रूढ़िवादी पारसी समुदाय के कुछ लोगों ने शवों को खाने वाले गिद्धों की आबादी में गिरावट के कारण बीते एक दशक में शवदाह गृह बनाने का फैसला किया और साइरस मिस्त्री जैसे कई प्रगतिशील परिवारों ने अपने सदस्यों के अंतिम संस्कार के लिए नए तरीके को अपनाया है।

रिपोर्ट के अनुसार, देश में गिद्धों की आबादी 1980 के दशक में 4 करोड़ थी, जो 2017 तक घटकर मात्र 19,000 रह गई। इसके चलते पारसी समुदाय ने अंतिम संस्कार का तरीका बदला है। हालांकि सरकार ने गिद्धों की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण कार्य योजना 2020-25 के माध्यम से एक पहल शुरू की है, जिसमें कुछ सफलताएं मिली हैं। हम आपको यह भी बता दें कि गिद्धों की आबादी में गिरावट के लिए मवेशियों के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली सूजन-रोधी दवा ‘डाइक्लोफेनाक’ के उपयोग को जिम्मेदार ठहराया गया है। दरअसल जिन मवेशियों को यह दवा दी गई, उन मवेशियों को मरने के बाद गिद्धों ने खा लिया, जिससे गिद्धों की आबादी प्रभावित हुई। साल 2006 में इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन तब तक इसका विनाशकारी प्रभाव गिद्धों की आबादी में गिरावट का कारण बन चुका था। गिद्धों की घटती आबादी ने पारसियों के लिए एक विकट चुनौती पेश की है। उल्लेखनीय है कि एक ओर जहां गिद्ध कुछ ही घंटों के भीतर शरीर पर से मांस को साफ कर देते हैं, वहीं कौवे और चील बहुत कम मांस खा पाते हैं, जिसके चलते कई शवों को खत्म होने में महीनों लग जाते हैं और उनसे बदबू फैलती है।

इसे भी पढ़ें: गिद्धों की घटती संख्या के चलते अंतिम संस्कार का तरीका बदलने को मजबूर हुआ पारसी समुदाय

जहां तक पारसी समुदाय के लोगों की संख्या की बात है तो आपको बता दें कि इसमें भी तेजी से गिरावट आ रही है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में केवल 57,264 पारसी थे। सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने पारसी समुदाय की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए कई उपाय किए हैं, जिसमें “जियो पारसी” पहल शुरू करना शामिल है। हम आपको बता दें कि एक हजार साल पहले वर्तमान ईरान में उत्पीड़न से बचकर पारसी भारत के पश्चिमी तट पर पहुंचे थे। उन्हें एक ज्वाला मिली जिसके बारे में कहा जाता है कि वह दक्षिण गुजरात के उदवाडा में एक अग्नि मंदिर में अभी भी जलती है। साइरस मिस्त्री भी इसी मंदिर में दर्शन पूजन करके लौट रहे थे जब उनकी कार रास्ते में दुर्घटना का शिकार हो गई। साइरस मिस्त्री का अंतिम संस्कार तो नये तरीके से कर दिया गया लेकिन उनके साथ दुर्घटना में जान गंवाने वाले जहांगीर पंडोले के शव को दक्षिण मुंबई के डूंगरवाड़ी में स्थित ‘टॉवर ऑफ साइलेंस’ में छोड़ दिया गया, क्योंकि उनके परिवार ने अंतिम संस्कार के लिए पारंपरिक रीति-रिवाज को प्राथमिकता दी थी।

यह तो थी पारसी समुदाय में आ रहे बदलाव पर रिपोर्ट अब जरा ईसाइयों की बात हो जाये। केरल के एक गिरजाघर ने शव को दफनाने में लकड़ी के ताबूत के इस्तेमाल की पुरानी प्रथा को खत्म करते हुए पर्यावरण के अनुकूल सूती के कपड़े का उपयोग शुरू कर दिया है। देखा जाये तो यह बहुत बड़ा बदलाव है। कोच्चि के लैटिन आर्चडियोसीज के तहत आने वाले अर्थुनकल में स्थित सेंट जॉर्ज गिरजाघर ने एक सितंबर से ताबूत की जगह शवों को ढकने के लिये कपड़े का इस्तेमाल शुरू किया है। गिरजाघर ने लकड़ी के ताबूतों के उपयोग को समाप्त करने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि यह पाया गया था कि शवों और ताबूतों को विघटित होने में सामान्य से अधिक समय लग रहा था।

गिरजाघर के अधिकारियों और स्थानीय स्व-शासित निकाय ने पिछले एक साल में क्षेत्र के परिवारों के साथ कई बार विचार-विमर्श किया और दफनाने की प्रथा को बदलने के लिए आम सहमति पर पहुंचे। गिरजाघर के अधिकारियों ने कहा कि शवों को दफनाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था, क्योंकि समुद्र से निकटता के कारण मिट्टी की उच्च लवणता की वजह से पुराने शव विघटित नहीं हो पा रहे थे। लोगों ने कहा कि हमने हाल ही में पाया कि लकड़ी के ताबूतों में शवों के विघटित होने में देरी हो रही है। शवों को दफनाने के लिए, हमें कब्र नहीं मिल रही है, क्योंकि पुराने शव विघटित नहीं हो पाए हैं। कुछ परिवार शवों को पॉलिथीन के वस्त्र पहनाते हैं। ऐसे शवों को विघटित होने में वर्षों लग जाते हैं इसलिए बदलाव किया गया है।

- नीरज कुमार दुबे

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़