आखिर इंडी गठबंधन में मायावती को शामिल क्यों नहीं होने देना चाहते अखिलेश?
गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी शामिल होगी या नहीं, इसको लेकर अभी तस्वीर साफ नहीं है। हालांकि गैर बीजेपी गठबंधन वाले नेता और अन्य वर्ग के लोग बसपा को इंडी गठबंधन में शामिल करने की मांग लगातार उठा रहे हैं। परंतु अखिलेश अपनी बात पर अड़े हैं।
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ तब तक कोई गठबंधन कामयाब नहीं माना जा सकता है जब तक कि उसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ नजर नहीं आयें। 2019 के यानी पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के बाद नंबर दो पर रही बसपा को सबसे अधिक वोट मिले थे और सपा को बसपा के मुकाबले करीब डेढ़ फीसदी कम वोट पड़े थे। बाकी दल चाहे उसमें राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस हो या फिर पश्चिमी यूपी तक सीमित राष्ट्रीय लोकदल, इन दोनों दलों की इतनी ताकत नहीं है कि वह सपा-बसपा के बिना कोई बड़ा उलटफेर कर सकें। वैसे इन दलों के अलावा अपना दल (सोनेलाल), निषाद पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (कमेरावादी), जनता दल यूनाइटेड, आजाद समाज पार्टी, जनसत्ता दल लोकतांत्रिक एवं एआईएमआईएम जैसी पार्टियां भी हैं जिनका पिछले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में वोट एक प्रतिशत के नीचे ही रहा था। अपना दल सोनेलाल गुट जो बीजेपी के साथ है, उसको जरूर डेढ़ प्रतिशत से कुछ ज्यादा वोट मिले थे। इन दलों का यही हाल कमोवेश 2019 के लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था। यह आंकड़े उन लोगों के लिए एक संदेश हैं जो यूपी में इन दलों को साथ लेकर कोई बड़ा उलटफेर का सपना संजोये हुए हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन के बल पर अपनी ताकत बढ़ाने में लगे गैर बीजेपी दलों के लिए 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा और 2019 के लोकसभा चुनाव एक बानगी है। 2017 का विधान सभा चुनाव समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था, लेकिन जनता ने इसे पूरी तरह से ठुकरा दिया और इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन भी कुछ खास नहीं कर पाया था। आश्चर्यजनक बात यह है कि समाजवादी पार्टी नेता इस हकीकत से अनभिज्ञ नहीं हैं, लेकिन सपा प्रमुख अखिलेश यादव क्यों बसपा को साथ नहीं लेना चाहते हैं, यह रहस्य बना हुआ है। जबकि कांग्रेस खुलकर कह चुकी है कि वह इंडी गठबंधन में बसपा को भी देखना चाहती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उत्तर प्रदेश में बसपा का ठीकठाक वोट बैंक है। दलितों में उनकी अच्छी खासी पैठ है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब सपा-बसपा मिलकर चुनाव लड़े थे, तब बसपा को 19.88 फीसदी वोट मिले थे, जो सपा से कुछ ज्यादा ही थे। सपा को 18.11 फीसदी मत हासिल हुए थे।
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बहरहाल, गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी शामिल होगी या नहीं, इसको लेकर अभी तस्वीर साफ नहीं है। हालांकि गैर बीजेपी गठबंधन वाले नेता और अन्य वर्ग के लोग बसपा को इंडी गठबंधन में शामिल करने की मांग लगातार उठा रहे हैं। परंतु अखिलेश अपनी बात पर अड़े हैं। गौरतलब है कि पिछले दिनों दिल्ली में गठबंधन की बैठक में भी जब इस पर बात हुई तो सपा ने आपत्ति जताई थी। सपा ने दो टूक कह दिया था कि बसपा आएगी तो वह बाहर निकल जाएगी। अब यूपी कांग्रेस से मांग उठी है कि गठबंधन में बसपा को भी शामिल किया जाए। दरअसल, कांग्रेस पार्टी भाजपा को 2024 में शिकस्त देने के लिए अपनी तरकश के हर तीन आजमाना लेना चाहती है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दलित वोटरों में मायावती की पैठ को देखते हुए उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व से कहा है कि मायावती साथ आईं तो दलित वोट मिलना आसान हो जाएगा। यूपी में 20 प्रतिशत आबादी दलितों की है।
मायावती की चर्चा चलने लगी तो बसपा के सांसद मलूक नागर आगे आये और उन्होंने कांग्रेस को आईना दिखाना शुरू कर दिया और मांग की कि पार्टी प्रमुख मायावती को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया जाए। उनसे पूछा गया था कि इंडी गठबंधन में शामिल होने के लिए पार्टी की क्या कोई शर्त होगी? उन्होंने कहा कि कांग्रेस को हमारे पार्टी के विधायकों को ले जाने के लिए मायावती जी से माफी मांगनी चाहिए और उन्हें इंडी गठबंधन का पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। नागर ने यह भी कहा कि अगर कांग्रेस दलित चेहरा चाहती है तो मायावती से बेहतर कोई पीएम कैंडिडेट नहीं मिल सकता है। नागर ने कहा कि उनकी पार्टी का यूपी में 13.5 प्रतिशत दलित वोट शेयर है। उन्होंने यह भी दावा कर दिया कि मायावती को पीएम फेस बनाया जाता है तो हम 60 से ज्यादा सीटें जीत सकते हैं। खैर, इससे इतर इंडी गठबंधन के भीतर अभी यूपी की सीटों के बंटवारे पर मंथन चल रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख बता रहे हैं कि यूपी में कांग्रेस कितनी सीटों पर लड़ेगी और रालोद को कितनी सीटें दी जायेंगी। कांग्रेस को करीब 15 और रालोद को पांच से छह सीटें दिये जाने की संभावना है। सपा करीब 58 सीटों पर लड़ना चाहती है, लेकिन बसपा के गठबंधन में शामिल होने से सभी दलों की सीटों में कटौती निश्चित है। पिछले दिनों विपक्ष की बैठक के बाद मायावती ने सामने आकर कहा था कि भविष्य में देश में जनहित में कब किसको किसकी जरूरत पड़ जाए, कहा नहीं जा सकता है। दरअसल, मायावती को भी पता है कि भाजपा के जनाधार को देखते हुए बसपा के लिए बेहतर प्रदर्शन कर पाना चुनौती होगी। पिछली बार 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 10 सीटें मिली थीं। अपने दम पर शायद इस बार उतनी सीटें न मिलें, ऐसे में बसपा भी चाहेगी कि वह गठबंधन में आकर अच्छा प्रदर्शन कर सके।
2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था। इसे करीब 40 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा को करीब 20 प्रतिशत, सपा को 19 और रालोद को 1.69 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा के बारे में देखा गया है कि वह बहुत पहले अपने उम्मीदवार घोषित कर देती है लेकिन इस बार उसने प्रभारी भी नहीं बनाए हैं। बसपा के लोग मान रहे हैं कि हो सकता है कि गठबंधन को लेकर जल्दी स्थिति साफ हो।
उधर, बसपा को इंडी गठबंधन से दूर रखने की समाजवादी कोशिश की बात की जाये तो सपा कम से कम सीटों का बंटवारा करना चाहती है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव जानते हैं कि जब गठबंधन में सीटों का बंटवारा होगा तो 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे इसका आधार बनेंगे और उन चुनावों में बसपा को सपा से अधिक वोट और सीटें मिली थी, जिसके चलते उसकी दावेदारी भी ज्यादा मजबूत होगी। बसपा किसी भी सूरत में सपा से कम सीटों पर लड़ने को तैयार नहीं होगी। इसीलिए अखिलेश बसपा को गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने देना चाहते हैं, इसके लिए अखिलेश यादव यहां तक कहने लगे हैं कि यदि बसपा को गठबंधन में शामिल किया गया तो वह गठबंधन से अलग भी हो सकते हैं।
दरअसल, अखिलेश चाहते हैं कि 2022 के विधानसभा चुनाव के आधार पर लोकसभा सीटों का बंटवारा हो, जिसके नतीजे कांग्रेस और बसपा के लिए बेहद निराशाजनक रहे थे। 2007 में प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार का मुख्यमंत्री पद संभाल चुकीं मायावती की पार्टी को 15 साल बाद 2022 में मात्र एक विधान सभा सीट मिली थी। समाजवादी पार्टी कुछ भी दलील दे, लेकिन कांग्रेस की दिली तमन्ना यही है कि बसपा को भी गठबंधन का हिस्सा बनाया जाये। जो सही भी है, यदि बसपा भी इंडी एलायंस का गठबंधन का हिस्सा होती है तो यूपी में कई लोकसभा सीटों पर बीजेपी की जीत का समीकरण गड़बड़ा सकता है।
उधर, सपा की बात की जाये तो उसके लिये भी राह आसान नही नजर आ रही है। उसके अपने ही उसका साथ छोड़ते जा रहे हैं। हालत यह है कि इंडिया गठबंधन में शामिल होकर पीडीए का झंडा थामने में लगे अखिलेश यादव से अब परंपरागत यादव वोट बैंक भी खिसक रहा है। सालों से मुलायम सिंह यादव की सरपरस्ती में चल रही अखिल भारतीय यादव महासभा में दो फाड़ हो गया है। यूपी में यादव तबके ने यादव मंच बना कर सपा की सियासत की छाया से खुद को अलग कर लिया है। यादव महासभा का सपा से मोह भंग होना अखिलेश यादव के लिए झटके के तौर पर देखा जा रहा है। ओबीसी कुनबे को इकट्ठा करने में जुटे अखिलेश यादव को आगामी लोकसभा चुनाव से पहले ये बड़ा झटका लगा है। दरअसल, अखिल भारतीय यादव महासभा का हमेशा सपा को समर्थन मिलता रहा है लेकिन बीते कुछ सालों के दौरान सपा और महासभा के बीच खटपट बढ़ी है।
-अजय कुमार
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