जब-जब अधर्म की वृद्धि होती है, धरती पर आते हैं श्रीकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं:- ‘‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार आदि आठ प्रकार की मेरी प्रकृति है। यह प्रकार मेरी जड़ प्रकृति है। जिससे सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, वह मेरी प्रकृति चेतन है।''''
भादों (भाद्रपद) की अष्टमी के दिन सोलह कलाओं से युक्त भगवान श्रीकृष्ण ने मृत्युलोक में अवतार लिया था। भगवान श्रीकृष्ण के रूप में श्रीविष्णु जी का यह अवतार समयानुकूल था। श्रीमद्भगवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने अवतार लेने के बारे में इस प्रकार बतलाया है:-
‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्यूत्थानंमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।’’
(अर्थात्-भगवान श्रीकृष्ण बतलाते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वुद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ यानी साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। मैं साधुओं (भक्तों) का उद्धार करने के लिए, पापी लोगों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।)
भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की कथा पौराणिक ग्रन्थों में प्रचुर मात्रा में मिलती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय द्वापर युग में अधर्म, अत्याचार, अनाचार और अपराध अपनी चरम सीमा को पार कर गए तो धरती माता (पृथ्वी) खून के आँसू रोने लगीं और चहुं ओर त्राहि-त्राहि मच गई। एक दिन विवश होकर धरती माता ने गौ (गाय) का रूप धारण किया और ब्रह्मलोक जा पहुंचीं। धरती माता को ब्रह्मलोक में देखकर सभी देवगण हतप्रभ और चिंताग्रस्त हो गए। धरती माता ने जब सभी देवताओं को अपनी व्यथा सुनाई तो सभी स्तब्ध रह गए। कोई हल निकलता न देख स्वयं ब्रह्मा जी ने सभी देवों को भगवान् विष्णु की शरण में जाने को कहा। ब्रह्मा जी के नेतृत्व में धरती माता सहित सभी देवता क्षीर सागर तट पर जा पहुंचे और भगवान् विष्णु की स्तुति करना शुरू कर दिया। उनकी स्तुति से भगवान विष्णु अति प्रसन्न हो गये। भगवान विष्णु ने अपनी मधुर और मोहक वाणी से सबको आशीर्वाद दिया और उनसे यूं आने का प्रयोजन पूछा। तब धरती माता ने अपनी व्यथा सुनाई। भगवान विष्णु पृथ्वी की पीड़ा जानकर अत्यन्त दुःखी हुए। उन्होंने तत्काल धरती माता को वचन दिया कि उसके दुःखों का विनाश करने के लिए वे स्वयं आपके आंचल में अवतार लेंगे। उसके बाद वचनानुसार भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया।
द्वापर के अंत में मथुरा नगरी के राजा उग्रसेन के दुष्ट पुत्र कंस का कहर चरम सीमा पर जा पहुंचा था। धर्म नाम की कोई चीज शेष नहीं रह गई थीं। सब तरफ अधर्म, पाप और अत्याचार का बोलबाला था। भक्तजनों का बहुत बुरा हाल था। ऐसे में भगवान विष्णु ने अवतार लेने का निश्चय किया। अपनी अलौकिक माया से उन्होंने कंस की कारागार में बंद देवकी-वसुदेव के यहां जन्म लिया, मथुरा से गोकुल पहुंचे, अपनी लीलाओं का प्रदर्शन किया, पुतना-बकासुर आदि असंख्य मायावी असुरों का संहार किया, गोपियों संग रासलीला रचायी और कंस को यमलोक पहुंचाकर देवकी-वसुदेव को कारागार से मुक्ति दिलवाई। इसके बाद धर्म की स्थापना हुई और धरती माता की पीड़ा भी शांत हुई।
भगवान श्रीकृष्ण ने हरियाणा की पावन भूमि कुरूक्षेत्र में अपने सखा अर्जुन को गीता उपदेश में स्वयं को सृष्टि के कण-कण में व्याप्त होने का रहस्य बताया था। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं:-
‘‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार आदि आठ प्रकार की मेरी प्रकृति है। यह प्रकार मेरी जड़ प्रकृति है। जिससे सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, वह मेरी प्रकृति चेतन है। इन दोनों प्रकृतियों से ही भूत उत्पन्न होते हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ। अर्थात् प्रभव भी मैं हूँ और प्रलय भी मैं।
''मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरूषों में पुरूषत्व हूँ। मैं पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ। मैं सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज, बुद्धिमानों की बृद्धि और तेज हूँ। मैं बलवानों का आसक्ति कामनाओं से रहित बल और सब भूतों में धर्म के अनुकूल काम हूँ।
क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषधि, मन्त्र, घृत, अग्नि और हवन रूपी क्रिया भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का धाता एवं कर्मों के फल देने वाले पिता, माता, पितामह, पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद, और यजूर्वेद भी मैं ही हूँ। प्राप्त होने योग्य परमधाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ को देखने वाला, सबका वास स्थान, शरण लेने योग्य, पुत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ।''
मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ। निश्चय करने की शक्ति, यर्थार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, सन्तोष, तप-दान, कीर्ति और अपकीर्ति आदि ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं।
सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चैदह मनु, ये मुझमें भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ। मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवन शक्ति हूँ। मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा उन्चास वायु देवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ। मैं एकादश रूद्रों में शंकर हूँ, यक्ष-राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरू पर्वत हूँ। पुरोहितों में बृहस्पति, सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ।
मैं महर्षियों में भृगु, शब्दों में ओंकार, यज्ञों में जपयज्ञ, स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ। मैं वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल मुनि हूँ। घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मैं ही हूँ। मैं शस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, शास्त्रोक्ति रीति से सन्तान उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।
मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरूण देवता हूँ। पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज हूँ। मैं दैत्यों में प्रहल्लाद, गणकों में समय, पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरूड़ हूँ। मैं पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में श्री राम तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में भागीरथी गंगा हूँ। सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ। विद्याओं में आत्मविद्या (ब्रह्मविद्या) हूँ। मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा और क्षमा हूँ।’’
सर्वव्यापक एवं सर्वकल्याणकारी भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर भक्तजन उपवास रखते हैं, जिसे ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत’ कहा जाता है। पुराणों में इस ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत’ की महिमा बड़ी अपार बतलाई गई है। ‘स्कन्द पुराण’ के अनुसार जो व्यक्ति ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत’ करता है वह उत्तम पुरूष की पदवी हासिल करती है, सभी सुख एवं ऐश्वर्य उसे प्राप्त होते हैं और लक्ष्मी जी उसके यहां स्थिर रहती है। ‘विष्णु पुराण’ के अनुसार जो व्यक्ति ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत’ करता है, उसके तीन जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
- राजेश कश्यप
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