हरियाणा में भाजपा की जीत से ज्यादा कांग्रेस की हार और तीसरे-चौथे मोर्चे के जार-जार होने की छिड़ी हुई है चर्चा
हरियाणा में मिली अप्रत्याशित बीजेपी के लिए आने वाले चुनावों के लिहाज से भी एक शुभ संकेत जैसा ही है, जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनाव से होगी। फिर दिल्ली भी इससे प्रभावित होगी, क्योंकि उसके चारों ओर कमल खिला हुआ है।
हरियाणा की चुनावी परीक्षा में बीजेपी जहां 48 सीटें जीतकर पास हो गई, वहीं कांग्रेस को उम्मीदों से कम सीटें महज 37 मिलीं। वहीं, इंडियन नेशनल लोक दल को मात्र 2 सीटें मिलीं, जबकि 3 सीटें निर्दलीय प्रत्याशी जीत ले गए।सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सूबे में सत्ताधारी पार्टियों के बी टीम के रूप में काम कर रहीं आम आदमी पार्टी, जननायक जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आजाद समाज पार्टी आदि को बेहद खराब अंक मिले। हां, इन्होंने राज्य में कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ को थामने में भाजपा की अंदरखाने से मदद की, ताकि भविष्य में कोई भी मजबूत विपक्षी दल उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सके। इस अप्रत्याशित चुनाव परिणाम से जहां भाजपा की बांछें खिल गईं, वहीं कांग्रेस के सियासी हौसले लगातार तीसरी बार पस्त पड़ गए। इस बार तो वह जीती हुई बाजी हार गई। इससे यह साबित हो गया कि अब वह पूरी तरह से परजीवी पार्टी बन गई है। क्योंकि हरियाणा में भी अकेले थी तो हार गई। यही वजह है कि हरियाणा में भाजपा की जीत से ज्यादा कांग्रेस की हार और तीसरे-चौथे मोर्चे के जार-जार होने की चर्चा हर ओर छिड़ी हुई है।
देखा जाए तो हरियाणा में कांग्रेस को शिकस्त देकर भाजपा ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया कि चुनावी रणनीति बनाने में उसके रणनीतिकारों की कोई तोड़ नहीं। हां, इतना जरूर है कि जब कभी भी और जहां कहीं भी वह हारती है तो अपनों की भीतरघात की वजह से और जहां कहीं भी ताल ठोंक कर जीतती है तो आरएसएस के वरदहस्त और अपने कार्यकर्ताओं के अतिउत्साह के चलते, जो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहते हैं। और अब जिस तरह से प्रधानमंत्री पीएम नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा करार दिया है, वह भी उसपर भारी पड़ने वाला है। जिस तरह से भारत के लोकतंत्र, अर्थतंत्र और सामाजिक तानेबाने को कमजोर करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिशें हो रही हैं, उसके मुताल्लिक पीएम मोदी की बातों में दम है। निःसन्देह कांग्रेस उसी मुस्लिम लीग की ट्रू कॉपी बनती जा रही है, जिसके प्रतिरोध स्वरूप उसने राष्ट्र विभाजन तक को स्वीकार किया था।
सच कहूं तो हरियाणा के मामले में चुनावी पंडित जिस तरह से गच्चा खा गए, उससे फिर यह बात स्पष्ट हो गई कि राजनीति में दो जोड़ दो बराबर चार समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए और जो ऐसा करते हैं, सियासत के हाशिये पर चले जाते हैं हुड्डा-शैलजा सरीखे अन्य क्षेत्रीय नेताओं की तरह! जानकारों के मुताबिक, हरियाणा में हैट्रिक लगाते हुए भाजपा वहां तीसरी बार अपनी सरकार बनाएगी। आम चुनाव 2024 में कांग्रेस गठबंधन को मिली तात्कालिक अप्रत्याशित सफलता की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो हाल के वर्षों में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, असम, गुजरात आदि के बाद हरियाणा भी एक ऐसा राज्य बन चुका है, जहां पर बीजेपी ने अपने मजबूत चुनावी प्रबंधन से विरोधी पार्टियों के मंसूबे ध्वस्त कर दिए। वहीं, बिहार, पश्चिम बंगाल, जम्मूकश्मीर जैसे राज्यों में भी उसकी स्थिति सुधरी है।
# हरियाणा में बीजेपी की जीत से दिल्ली, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में मिलेगी मनोवैज्ञानिक बढ़त
हरियाणा में जबरदस्त एंटी इनकंबेंसी के बावजूद बीजेपी का तीसरा बार जीतना बहुत मायने रखता है। क्योंकि उसकी जीत अब इस बात को स्पष्ट करती है कि एससी-ओबीसी मतदाताओं को खींचने में कामयाब रही। भले ही चुनाव नतीजों से पहले एग्जिट पोल में कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी की गई थी और यहां तक कहा गया था कि किसान, जवान और पहलवान बीजेपी से नाराज हैं। इसलिए उससे सत्ता छिन जाएगी, लेकिन मुख्यमंत्री सैनी के आत्मविश्वास के चलते जो असल नतीजे आए, उससे कहानी बिल्कुल पलट गई है। गीता की धरती पर सत्य की जीत हुई। कुरुक्षेत्र वाले भूभाग में कौरवों सरीखी कांग्रेस हार गई।
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बीजेपी ने गत लोकसभा चुनाव से सबक लेते हुए गैर जाट मतदाताओं को गोलबंद करने का काम किया और अपनी रणनीति में वह कामयाब हो गई। खासकर एससी और ओबीसी समुदाय से आने वाले मतदाताओं पर उसने फोकस किया और उनको अपनी तरफ खींचने में कामयाब रही। वहीं, चुनाव से ठीक पहले बीजेपी की सीएम बदलने वाली रणनीति भी गुजरात की तरह ही कामयाब रही। क्योंकि नायब सिंह सैनी, ओबीसी समुदाय से आते हैं, जिनको सीएम बनाने से ओबीसी मतदाताओं के बीच एक सकारात्मक संदेश गया। वहीं, ओबीसी रणनीतिकार दिलीप मंडल को मलाईदार पद देने के बाद उनके समर्थकों ने भी कमल खिलाने का काम किया।
भले ही हरियाणा में जाट मतदाताओं का वोट बैंक बहुत बड़ा है जिनके समर्थन पर कांग्रेस काफी निर्भर रही है, लेकिन उनमें भी दरार डालने में भाजपा सफल रही। जाट मतदाता कितने शक्तिशाली हैं, इसका अंदाजा इस बात से मिलता है कि राज्य में जाट समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री लगभग 33 साल तक शासन कर चुके हैं। हालांकि, वर्ष 2014 में, जब बीजेपी सत्ता में आई तो कांग्रेस के भूपिंदर सिंह हुड्डा को जाना पड़ा, जो जाट समाज से ही आते हैं। क्योंकि बीजेपी ने तब मनोहर लाल खट्टर को सीएम बनाया जो एक पंजाबी खत्री समुदाय से सम्बन्धित हैं। जब 2019 में बीजेपी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई, तो उसने जेजेपी नेता दुष्यंत चौटाला का समर्थन लिया था, जो एक महत्वपूर्ण जाट नेता हैं।
# भाजपा रणनीतिकारों ने एंटी इनकंबेंसी फैक्टर की निकाली तोड़
बीजेपी के लिए यह जीत इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि उसके खिलाफ यहां तगड़ी एंटी इनकंबेंसी लहर थी। जिससे पार्टी भी वाकिफ थी। इसलिये अंतिम समय में पार्टी ने नेतृत्व परिवर्तन किया और मनोहर लाल खट्टर की जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया। वहीं, राज्य बीजेपी अध्यक्ष मोहन लाल बडोली और पूर्व सांसद संजय भाटिया जैसे वरिष्ठ नेताओं तक को विधानसभा चुनावों से दूर रखने का फैसला उनकी रजामंदी से किया। क्योंकि गत लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा था। 2024 के आम चुनावों में, बीजेपी ने 10 में से सिर्फ 5 लोकसभा सीटें जीतीं और महज 46.1 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि कांग्रेस ने बाकी सीटें छीन लीं और 43.7 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। जबकि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी का वोट शेयर 58 प्रतिशत था, जो अब 12 प्रतिशत घटकर 46.1 प्रतिशत रह गया। हालांकि विधानसभा चुनाव के आंकड़े अब बिलकुल अलग तस्वीर पेश करते हैं, जिससे भाजपा को भी सुकून मिली है।
# रिजल्ट का महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली पर ऐसे होगा असर
हरियाणा में मिली अप्रत्याशित बीजेपी के लिए आने वाले चुनावों के लिहाज से भी एक शुभ संकेत जैसा ही है, जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनाव से होगी। फिर दिल्ली भी इससे प्रभावित होगी, क्योंकि उसके चारों ओर कमल खिला हुआ है। इस प्रकार हरियाणा ने बीजेपी को 2024 लोकसभा चुनावों के दौरान देखी गई अप्रत्याशित गिरावट को उलटने का पहला वास्तविक मौका दिया है। क्योंकि यहां की जीत से महाराष्ट्र, झारखंड और अंततः दिल्ली में भी बेहतर प्रदर्शन की नींव रखी जा सकती है। बशर्ते कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पर कतरने वाली सियासत को वह अंदरूनी तौर पर बढ़ावा नहीं दे। क्योंकि हरियाणा में भी सर्वाधिक मांग योगी की ही थी चुनाव प्रचार के दौरान। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में इस वर्ष के आखिर तक चुनाव होने वाले हैं। वहीं, झारखंड में भी जल्द ही चुनाव होंगे। संभव है कि दिल्ली का चुनाव भी इन राज्यों के साथ हो जाए। अगले वर्ष बिहार में भी चुनाव होंगे। इसलिए हरियाणा में जीत से बीजेपी को एक तरीके से आगामी चुनावों में जो नैतिक बढ़त हासिल होगी, वही उसकी वास्तविक पूंजी है।
वहीं, देश पर सर्वाधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस अंततः जीती हुई लड़ाई कैसे हारती है, यह भी हरियाणा के चुनाव परिणाम से समझा जा सकता है। जहां पार्टी युवराज और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की अदूरदर्शिता भरी बयानबाजी ने पूरी पार्टी की लुटिया ही डुबो दी। जातिगत जनगणना, एससी और ओबीसी पॉलिटिक्स, अल्पसंख्यक सियासत पर पार्टी नेतृत्व के अतिरेक निर्णय ने उन सवर्ण जाटों को भी कांग्रेस के ऊपर फिदा होने से रोक दिया, जिनके दम पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा की पूरी सियासत चमक सकती थी। मैं राजनीतिक विश्लेषकों की उन बातों से सहमत नहीं हो सकता कि इस चुनाव में कांग्रेस को भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर जरूरत से ज्यादा भरोसा महंगी पड़ी।
यह ठीक है कि हुड्डा को ज्यादा तरजीह दिए जाने के कारण कुमारी शैलजा विफर उठीं, जिससे कांग्रेस की आंतरिक कलह सार्वजनिक मंचों पर भी सामने आ गई। उनके बाद भले ही राहुल गांधी ने सैलजा और हुड्डा का हाथ मिलवाया, लेकिन उनके प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के दिल आपस में नहीं मिल सके। इससे कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ उपजे राज्यव्यापी गुस्से को भुनाने में कामयाब नहीं हो पाई। जबकि प्रचार के आखिरी चरण में बीजेपी ने अपने कील-कांटे इस प्रकार से दुरुस्त कर लिए कि उसकी जीत सुनिश्चित हो और ऐसा ही हुआ। अंततः भाजपा ने बाजी मार ली।
चर्चा है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस में शुरु से ही पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की चली। जिन्होंने अपने मन के मुताबिक टिकट बांटे। चूंकि हाईकमान से फ्री हैंड मिलने के बाद हुड्डा ने न सिर्फ अपने समर्थकों को टिकट बांटे बल्कि सैलजा समर्थकों को महज 9 कमजोर सीट देकर साइड लाइन कर दिया। इस तरह से उन्होंने अपनी ही पार्टी में अंतर्कलह के बीज रोप दिए। नतीजा सामने है, क्योंकि सैलजा की सार्वजनिक नाराजगी के बाद कांग्रेस के दलित कार्यकर्ता छिटक गए। राहुल की आरक्षण हटाने वाली बयानबाजी ने भी दलितों को कांग्रेस से छिटकने का मौका दिया।
वहीं, भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कारण ही आम आदमी पार्टी से गठबंधन का रास्ता भी लगभग बंद हो गया, जिसकी खीझ में आप ने भी 90 सीटों पर कैंडिडेट उतार दिए। स्पष्ट है कि इंडिया गठबंधन में फूट का संदेश मतदाताओं के बीच अच्छा नहीं गया। आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस के ही वोट काटे। उधर भारतीय राजनीति में कभी तीसरे मोर्चे की भूमिका निभा चुके इंडियन नेशनल लोक दल और उसके बागी धड़े जननायक जनता पार्टी से गठबंधन कर चुकी चौथे मोर्चे की बसपा के अलावा आजाद समाज पार्टी की विपक्ष विरोधी भूमिका से वोटरों में संदेश अच्छा नहीं गया। वहीं, चुनाव प्रचार के दौरान 1 बनाम 35 का नैरेटिव भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कैंप से बाहर आया, जिससे गैर जाट भी कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हो गए। क्योंकि भाजपा भी तो यही चाहती थी। इसलिए उसने इन बातों को खूब चुनावी हवा दी।
वहीं, हरियाणा की बाजी अपने हाथ करने में भाजपा के टीम वर्क का सबसे बड़ा हाथ है। जिसकी सबसे मजबूत कड़ी भाजपा का वह सांगठनिक ढांचा है, जिसकी रणनीति में बूथ प्रबंधन उनकी जीत के ताले की चाबी समझे जाते हैं। भाजपा जानती है कि अपने कोर वोटर को कैसे बूथ तक ले जाया जाए। इसमें आरएसएस उसको बैक सपोर्ट देती है। जबकि अन्य सभी दल अपने प्रचार और संपर्क यात्रा के बाद अपने वोटरों को उनके हवाले कर देते हैं, क्योंकि उनके साथ वह मतदान समय के अंत तक कम ही जुड़े रहते हैं। यही वजह है कि जहां हार जीत का बड़ा अंतर नहीं होता है, वहां भाजपा बाजी मार ले जाती है। वह वैसे सभी विधान सभा को अपने सक्रिय और समर्पित कार्यकताओं के जरिए परिणाम बदलने की ताकत रखती है। इस बार भी उसने यही किया और अपने नेक मकसद में कामयाब रही।
यदि भाजपा रणनीतिकारों की बात करें तो हरियाणा में उन्हें अपने कोर वोटर का पक्का भरोसा था। लेकिन उन्होंने हरियाणा में वोट के बिखराव के कई कारण बनाए, ताकि कांग्रेस और हुड्डा परिवार को कमजोर किया जा सके। जानकार बताते हैं कि इनेलो और जेजेपी को अकेले अपने दम पर चुनाव लड़वाने के पीछे भाजपा की ही अंदरूनी शक्ति काम कर रही थी। इतना ही नहीं, जननायक जनता पार्टी और आजाद समाज पार्टी तथा इनेलो व उसके विभिन्न धड़ों और बसपा के बीच हुए गठबंधन के पीछे भी भाजपा रणनीतिकारों के हाथ होने की चर्चा है। चुनावी समरभूमि से यह बात निकलकर के सामने आ रही है कि इन दोनों गठबंधन का हरियाणा के जाट और दलित वोटों पर कुछ कुछ क्षेत्रों पर खास असर दिखा, जिसके वजह से कांग्रेस अपेक्षित वोट हासिल नहीं कर पाई। रही सही कसर आम आदमी पार्टी ने भी पूरी कर दी, जो वोट के विभाजन का जबरदस्त कारण बनी।
वहीं, कांग्रेस जिस किसान, जवान और पहलवान के मुद्दे के सहारे भाजपा को मात देने की रणनीति बना रही थी, उसे वह अपने मंचों तक ही सीमित रख पाई। यदि वह इस विरोध को जन-जन तक पहुंचाने में कामयाब होती तो आज परिणाम इतना निराशाजनक नहीं आता। वहीं, जवान के मामले में कांग्रेस ने अग्निवीर को मुद्दा बनाया। हालांकि, भाजपा ने उसके हर मिशन की अलग अलग तोड़ निकाली।एक ओर नायाब सिंह सैनी ने अग्निवीरों को राज्य सरकार के द्वारा नौकरी देने की घोषणा कर थोड़ा डैमेज कंट्रोल किया। तो किसानों की नाराजगी को पीएम पेंशन योजना, अनाजों के एमएसपी बढ़ाने तथा अन्य लाभकारी योजना के जरिए मन बदलने की कोशिश की। वहीं, कांग्रेस की गारंटी के जवाब में हिमाचल प्रदेश में उसकी सरकार द्वारा गारंटी देने से हाथ खड़े कर दिए जाने की खूब चर्चा की, जिससे मतदाताओं को राहुल की गारंटी के बजाय मोदी की गारंटी पर ही भरोसा करना पड़ा। वहीं लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस खटाखट 8500 रुपए देने में विफल रही, क्योंकि केंद्र में उसकी सरकार नहीं बन पाई। इससे भी मतदाताओं के बीच उसकी साख गिरी।
भाजपा ने चुनावी रणनीति के तहत हरियाणा के चुनाव को जाट बनाम गैर जाट के रूप में तब्दील कर दिया। उसने गैर जाट को ज्यादा टिकट दिया। मतलब कि ब्राह्मण, वैश्य, पंजाबी और अन्य जातियों के उम्मीदवार को प्राथमिकता दी। इतना ही नहीं, चुनाव प्रचार के दौरान खट्टर की छवि जब आड़े आने लगी तोउसने खट्टर को न केवल मंच पर बुलाना बंद कर दिया बल्कि चुनावी पोस्टर से खट्टर का चेहरा तक गायब कर दिया गया। ऐसा साहसिक पहल करके भाजपा ने राज्य में अपनी स्थिति एक हद तक ठीक कर ली और लाभान्वित हुई।
वहीं, हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच की लड़ाई का भी नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा। क्योंकि चुनाव से ठीक पहले सीएम पद की लड़ाई खुल कर सामने आ गई। इसके लिहाज से भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अलग रणनीति बनाई और अपनी इस रणनीति में कामयाब हुए कि दिल्ली आलाकमान को मना कर अपने पसंदीदा नेताओं को टिकट दिला दी जाए। इस दृष्टि से शैलजा काफी पीछे रह गई, जिसके बाद उन्होंने भितरघात कर डाली। चर्चा यह है कि उनके महज छह-सात समर्थकों को ही टिकट मिल पाया था। वे जानती हैं कि मुख्यमंत्री का खेल तो विधायकों की संख्या से ही तय होगी, जो उनके पास नहीं है। इसलिए वह चुनाव प्रचार से दूर रहीं। उनका यूँ दूर रहना दलित मतों के विभाजन का मौलिक कारण बना। इससे भाजपा के अरमान पूरे हो गए।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
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