सामाजिक समरसता के लिए लगातार सक्रिय संघ
संघ को संकुचित अर्थों में हिंदुत्व का समर्थक बताया जाता रहा है। ऐसा करते वक्त सावरकर के उस विचार को भुला दिया जाता है, जो यह बताता है कि भारत वर्ष में जो भी जन्मा है, वह हिंदू है। तीन देशों की सीमाओं में बंट चुके भारत में मौलिक रूप से कोई गैर हिंदू है ही नहीं।
मौजूदा दौर में शासन की सबसे बेहतरीन व्यवस्था जिस संसदीय लोकतंत्र को माना गया है, उसकी एक कमजोरी है। वोट बैंक की बुनियाद पर ही उसका समूचा दर्शन टिका है, इसलिए समाज को बांटना और उसके जरिए भरपूर समर्थन जुटाना उसकी मजबूरी है। यही वजह है कि कभी वह जानबूझकर, तो कभी अनजाने में समाज को बांटने की कोशिश करती नजर आती है। राजनीति के इन संदर्भों पर जब गौर करते हैं तो उसके ठीक उलट वैचारिकी से आगे बढ़ता हुआ एक संगठन दिखता है। निश्चित तौर पर वह संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। शतकीय यात्रा की ओर बढ़ रहा संघ हिंदू समाज को एक रखने के ध्येय वाक्य से रंच मात्र भी पीछे नहीं हटा।
लेकिन राजनीति को जब भी मौका मिलता है, वह संघ को अपने दायरे में खींचने और उसको सवालों के कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करने लगती है। राजनीति को संघ को सवालों के घेरे में लाने का मौका हाल ही में मथुरा में दिए सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के बयान से मिला है। दत्तात्रेय होसबोले ने हिंदू समाज को एक रखने के संदर्भ में योगी आदित्यनाथ के बयान ‘कटोगे तो बंटोगे’ का समर्थन किया है। योगी आदित्यनाथ ने पहली बार यह विचार अगस्त महीने में लखनऊ में कल्याण सिंह की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में जाहिर किया था। उन दिनों बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार का तख्तापलट की घटना ताजा थी। उसके बाद वहां के अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं पर चौतरफा हमले और अत्याचार जारी थे। उसका हवाला देते हुए आदित्यनाथ ने हिंदू समाज को इस नारे के जरिए एक रहने का संदेश दिया था। चूंकि भारतीय राजनीति का एक बड़ा हिस्सा अब भी सेकुलरवाद के चश्मे से ही दुनिया को देखता है, लिहाजा उसके निशाने पर आदित्यनाथ का यह बयान आना ही था। आदित्यनाथ का यह बयान राजनीति की दुनिया के उनके विरोधियों को घोर सांप्रदायिक लगना ही था। और जब इस बयान का दत्तात्रेय होसबोले का भी साथ मिल गया तो सांप्रदायिकता के छद्म विचार के आवरण में राजनीति करने वाली ताकतों को मौका मिलना स्वाभाविक है।
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संघ को संकुचित अर्थों में हिंदुत्व का समर्थक बताया जाता रहा है। ऐसा करते वक्त सावरकर के उस विचार को भुला दिया जाता है, जो यह बताता है कि भारत वर्ष में जो भी जन्मा है, वह हिंदू है। तीन देशों की सीमाओं में बंट चुके भारत में मौलिक रूप से कोई गैर हिंदू है ही नहीं। पाकिस्तान के पत्रकार वसीम अल्ताफ का ट्वीट दीपावली के दिन एक्स पर चर्चा में रहा। जिसमें उन्होंने लिखा था कि काश उनके भी पूर्वज कुछ और तनकर खड़े रहते तो उन्हें भी होली और दीपावली जैसे उत्साह वाले त्योहार मनाने को मिलते। अपने इस ट्वीट के जरिए एक तरह से वे जाहिर कर रहे थे कि उनके पूर्वज भी हिंदू ही थे। संघ इसी विचार को मानता है, भारतीय यानी हिंदू। भारतीय समाज को कभी सांप्रदायिकता के आवरण में बांटा गया तो कभी जाति की संकीर्ण सोच के बहाने। संघ अपने जन्म से ही दोनों ही वैचारिकी का विरोध करता रहा है। इसके बावजूद उस पर कभी ब्राह्मणवादी होने तो कभी कुछ का आरोप लगता रहा है। किसी भी संगठन के किसी भी व्यक्ति के निजी तौर पर अपने विचार हो सकते हैं, उसकी सोच का असर उसके व्यक्तित्व पर पड़ सकता है। लेकिन वैचारिक रूप से संघ में ऊंच-नीच, भेदभाव की सोच नहीं रही है।
महात्मा गांधी ने भी संघ के 1934 के वर्धा के शिविर का दौरा किया था। संघ के उस शिविर में छूआछूत और ऊंचनीच का भाव न देखकर गांधी जी बहुत प्रभावित हुए थे। उन दिनों गांधी जी छूआछूत के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उन्होंने तब माना था कि संघ के ऐसे प्रयास भारतीय समाज में बराबरी का भाव लाने में सफल हुए। राजनीति अक्सर महात्मा गांधी को लेकर संघ पर आरोप लगाती है कि वह महात्मा गांधी को नहीं मानता। संघ को सामाजिक रूप से बांटने को लेकर जब भी हमला किया जाता है, अक्सर गांधी विचार का ही सहारा लिया जाता है। हालांकि संघ ने कभी ऐसी कोई मंशा जाहिर नहीं की। उलटे गांधी संघ के समानता के विचारों से प्रभावित रहे। जिसकी तसदीक उनके द्वारा ही प्रकाशित हरिजन पत्रिका के 28 सितंबर 1947 के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, गांधी जी ने दिल्ली में सफाईकर्मियों की बस्ती में हुए संघ के एक कार्यक्रम में 16 सितंबर 1947 को हिस्सा लिया था। इस रिपोर्ट में लिखा है,"गांधी जी ने कहा कि वे कई साल पहले वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में गए थे, जब संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। स्वर्गीय श्री जमनालाल बजाज उन्हें शिविर में ले गए थे और वे (गांधी) उनके अनुशासन, अस्पृश्यता की पूर्ण अनुपस्थिति और कठोर सादगी से बहुत प्रभावित हुए थे।"
पहले कर्नाटक और बाद में बिहार में हुई जाति जनगणना के बाद राजनीति का एक हिस्सा पूरे देश में जाति जनगणना कराने को लेकर अभियान छेड़े हुए है। भारत में पहली बार जाति जनगणना 1931 में हुई थी। अंग्रेजों ने इसका इस्तेमाल भारत में अपने राज बचाने की कोशिश के रूप किया था। शायद दूसरे विश्व युद्ध और स्वाधीनता आंदोलन की तेजी की वजह से 1941 में जनगणना नहीं हुई। आजादी के बाद 1951 की जनगणना की जब तैयारी चल रही थी तो राजनीति के एक हिस्से ने जाति जनगणना की मांग रखी थी। लेकिन जनगणना के प्रभारी मंत्री के नाते तत्कालीन स्वराष्ट्र मंत्री सरदार पटेल ने इस मांग को खारिज कर दिया था। पटेल का मानना था कि जाति जनगणना से सामाजिक तनाव बढ़ेगा और अंतत: वह विखंडन को ही बढ़ावा देगा। कुछ ऐसी ही सोच संघ की भी है। हालांकि कुछ दिनों पहले संघ के प्रचार प्रमुख सुनील अंबेडकर ने जाति जनगणना का समर्थन किया था। जिससे माना गया था कि संघ भी जाति जनगणना के पक्ष में है। ऐसी सोच रखने वालों ने अंबेडकर के विचार के अगले हिस्से पर ध्यान नहीं दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रशासनिक कार्यों के लिए ऐसे आंकड़े जुटाए जा सकते हैं, लेकिन उनका राजनीतिक दुरूपयोग नहीं होना चाहिए।
गांधी जी के बाद संघ शायद अकेला संगठन है, जिसके कार्यक्रम नियमित रूप से वंचित और मलिन बस्तियों में होते रहते हैं। समाज के हाशिए पर पड़े व्यक्तियों और समुदायों से बिना किसी भेदभाव के संघ लगातार संवाद करता रहता है। मलिन और वंचित बस्तियों में रोजगार और शिक्षा के साथ ही सफाई को लेकर संघ और उसके कार्यकर्ता आए दिन जुटे रहते हैं। संघ परिवार और समाज को हर मुमकिन मौके पर जोड़ने की कोशिश करता है। ‘कटेंगे तो बंटेंगे’ के विचार को उसका समर्थन दरअसल उसकी इसी चिरंतन सोच का विस्तार है। इसे समझने के लिए दत्तात्रेय होसबोले के उस बयान को एक बार फिर देखना चाहिए। होसबोले ने कहा है कि ‘कटेंगे तो बंटेंगे’ मुहावरा हिंदू समाज की एकता के बारे में इसी भावना को व्यक्त करने का एक और तरीका है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदुओं का एकजुट होना सभी के लिए फायदेमंद होगा। हिंदुओं की एकता संघ की आजीवन प्रतिज्ञा है। हिंदू एकता व्यापक मानवीय एकता के लिए है। जो देश के सर्वोत्तम हित में है। लगे हाथों होसबोले ने चेतावनी भी दी कि हिंदुओं को विभाजित करने की कोशिश में कई ताकतें जुटी हैं, जिनको हटाने के लिए संघ और समाज सामूहिक रूप से कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
आखिर में नहीं भूलना चाहिए कि हिंदू एकता समाज और जन कल्याण का भी महत्वपूर्ण टूल है। अंतर सिर्फ इतना है कि राजनीति इस टूल को तोड़ने की कोशिश करती है और संघ इसे बचाने का।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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