बिरसा मुंडा का स्मरण धर्मान्तरण के षड्यंत्रों के विरुद्ध जागृति का भी दिवस है
यह वह युग था जब गुलामी के लगातार शिकंजे के कारण उस क्षेत्र में जन जागृति और शिक्षा का नितांत अभाव था। किसी भी आंदोलन के लिए आवश्यक जो धन और संख्या बल चाहिए वह कहाँ था बिरसा के पास। उसने पहले छापामार लड़ाई का सहारा लिया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धर्मान्तरण पर दिया फैसला बहुत सामायिक महत्त्व का है। ईसाई धर्मान्तरण एक सोची समझी साजिश के अंतर्गत पश्चिमी ईसाई देशों की वित्तीय सहायता से चल रहा है। इसमें धर्मान्तरित व्यक्ति की समझ का कोई हवाला होता ही नहीं है। धन, पद, विदेश में शिक्षा और देश के प्रमुख इसे अल्पसंख्यक विद्यालयों में निःशुल्क प्रवेश जैसे अनेक हथकंडे इसे बनाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। सबसे अधिक प्रभाव जनजातीय समाज पर पड़ता है जो निर्दोष, भोला भला और चतुराई के शहरी उपकरणों से अनभिज्ञ होता है। जनजातीय गौरव दिवस मानते हुए इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि प्रायः 11 प्रतिशत जनजातीय समाज में आज 98 प्रतिशत आतंकवाद, देश से विद्रोह हेतु कार्यरत सशस्त्र हिंसक संगठन कार्य कर रहे हैं। आज वीर बिरसा मुंडा के जन्म दिवस पर जनजातीय गौरव दिवस क्यों चुना गया ? क्योंकि बिरसा मुंडा ने पादरियों के षड्यंत्रों, ईसाई धर्मान्तरण के कुटिल प्रयासों का विरोध किया था और मुंडा समाज में तुलसी पूजा, जनेऊ, नशाबंदी, ईश्वर के ध्यान आदि का एक श्रद्धावान हिन्दू के नाते प्रचार किया था। इसी कारण पादरियों ने अंग्रेज़ों से शिकायत कर उनको जेल में डाला और मरवा दिया।
बिरसा मुंडा का स्मरण इसे धर्मान्तरण के षड्यंत्रों के विरुद्ध जागृति का भी दिवस है। उत्तराखंड तो इसे धर्मान्तरण में प्रशिक्षण देने का बड़ा केंद्र बन चुका है। पंजाब विभिन्न कुटिल तरीकों से सिखों के भी ईसाई मत में अंतरण का वीभत्स दृश्य देख रहा है। अरुणाचल प्रदेश 70 प्रतिशत ईसाई हो चुका है। दक्षिण में तो ईसाई पादरियों ने राहुल गाँधी की भारत यात्रा के समय खुलेआम भारत माता पर अभद्र टिप्पणियां कीं थीं।
भारत के जनजातीय वीर नायकों में बिरसा मुंडा का अनोखा और अप्रतिम स्थान है। उनका जन्म 15 नवम्बर, 1875 को वर्तमान झारखंड प्रदेश के कुंटी जिलान्तर्गत उलीहातू गांव में हुआ था। चूंकि उस दिन बृहस्पतिवार था इसलिए मुंडा जनजाति में प्रचलित विश्वास और परंपरा के अनुसार उनका नाम बिरसा रख दिया गया। हिन्दू समाज में अक्सर यह प्रचलन दिखता ही है। सोमवार को जन्मे उसे सामवारी लाल, बुधवार को जन्मे उसे बुधलाल या बुधवारी और मंगल को जन्मे तो मंगल कुमारी या मंगल सिंह।
इसे भी पढ़ें: जनजाति गौरव दिवसः जनजाति समाज के लिए चलाई जा रही आर्थिक विकास की योजनाएं
बिरसा के पिता का नाम था सुगना मुंडा और मां का करमीहातु। अंग्रेजों का भयानक संत्रास और लूट गरीबों का खून चूस रही थी। जनजातीय समाज के लोग भोलेभाले, निर्दोष और प्रकृति की छांव में पलने वाले मानो साक्षात देवतुल्य होते हैं। अंग्रेजों की धूर्तता और कपट वे जानते नहीं। उस समय यह इलाका बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आता था। यह वही बंगाल था, जहाँ अंग्रेजों की कुचाल के कारण भयानक अकाल पड़ा था और 30 लाख भारतीय तड़प-तड़प कर काल के ग्रास बन गये थे।
बिरसा मुंडा का परिवार भी मजदूरी, थोड़ी बहुत काश्तकारी और वनोपाज पर निर्भर था। जब उलीहातु में गरीबी के कारण हालात संभले नहीं तो बिरसा के जन्म से पहले उसके माता-पिता तथा उसका छोटा भाई पसना मुंडा वीरबंकी के पास कुरमदा गांव में काश्तकारी, मजदूरी की आस में चले गए। कुरमदा में बिरसा के भाई कोमता और बहन वसकीर का जन्म हुआ। लेकिन गरीबी उन्हें किसी एक जगह पर रुकने नहीं दे रही थी। वहाँ से बिरसा का परिवार बम्बा गांव की ओर गया जहाँ बिरसा की बहन चंपा का जन्म हुआ। चंपा के बाद बिरसा जन्मे।
बिरसा का प्रारंभिक बाल्यकाल मुंडा परिवार के बालकों की तरह धूल में खेलने और वृक्षों पर मस्ती करने में बीता। प्रकृति की गोद में प्रकृति के बेटे की तरह पलते बिरसा मजबूत कदकाठी और सुंदर सुदर्शन व्यक्तिव में निखरने लगे। वे बांसुरी बजाने में बहुत प्रवीण हो गये, कुशल हो गये। भेड़ें चराते, बांसुरी बजाते, गांव के अखाड़े में कुश्ती के खेल में जोर-आजमाइश करते और बहुत सुंदर मुंडा गीत गाते। उनके साथ जो अन्य मुंडा बालक, उनके अभिन्न मित्र जंगल में भेड़ चराने जाते या कुश्ती में भी साथ रहते, उन्हें कुछ समय बाद बिरसा के बारे में कुछ अजीब अनोखे अनुभव होने लगे। बिरसा अक्सर आत्मा-परमात्मा की बात करते, शुद्धता की बात करते, तुलसी पूजन को महत्व देते और समाज में व्याप्त गांव में ही बनने वाली दारू से दूर रहने की बात कहते। उनको लगता इस बिरसा को हो क्या गया है? यह बाकी मुंडा लोगों की तरह क्यों नहीं व्यवहार कर रहा? इसे अचानक शुद्धता, तुलसी और धर्म की बात क्यों समझ में आ रही है और हमें समझावन की कोशिश कर रहा है जबकि हम में से कोई इस तरह की बात करता नहीं था।
कुछ समय बाद बिरसा सालगा गांव में वहाँ के एक मास्टर श्री जयपाल नाग द्वारा चलाई जा रही पाठशाला में पढ़ने जाने लगे। उन पर विशेषकर अपने मौसी जोनी के संस्कारों का असर पड़ा। वे बहुत धार्मिक और ईश्वर भक्त महिला थीं। शिव, देवी दुर्गा, पार्वती, तुलसी का पूजन और घर में धार्मिक संस्थानों के अनुसार व्यवहार उनकी पहचान थी। जोनी मौसी का बिरसा के मानस पर असर पड़ा ही होगा लेकिन बिरसा के समकक्ष सभी का यही मानना था उसमें किसी ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश हो गया है।
पढ़ाई करते करते बिरसा ध्यान में खो जाते। खेलते-खेलते बिरसा आकाश में शून्य की ओर ताकने लगते। बात करते-करते बिरसा अचानक चुप हो जाते। ऐसा लगता था कि उनके भीतर कोई गहरा तूफान उठ रहा है। यह तूफान किस बात का हो सकता है? यह तूफान था शायद जनजातीय अस्मिता को बचाने का। यह तूफान था खेत-खलिहान और मुलुक पर गोरों के, पादरियों के खूंखार कब्जे का, उनके अध्यापक जयपाल नाग बताते थे कि किस प्रकार अंग्रेजों ने सात समुन्दर पार से आकर उनके खेतों पर कब्जा कर लिया, उनकी फसलों को काट लिया और उन्हें गरीब बना दिया। अंग्रेज पावरी हाफामैन एक खूंखार किरायेदारी का कानून जिसे छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट कहा गया, लेकर आए जिसके अंतर्गत जो जनजातीय लोग अपने खेत के मालिक थे, वे उसी में किरायेदार हो गये। जमीन छिन गयी, फिर धर्म छिनने लगा और फिर बिरसा के मन में एक कोलाहल पैदा कर दिया।
इसे भी पढ़ें: राष्ट्ररक्षा का भाव ही वनवासी समाज का मूल स्वभाव है
उस समय मिडिल से ऊपर की पढ़ाई के लिए अंग्रेजों की कुटिल नीति के कारण केवल ईसाई मिशनरी स्कूल ही चलते थे और उनमें प्रवेश लेने के लिए पहली शर्त होती थी कि अपना धर्म परिवर्तन करो। हिन्दू से ईसाई बन जाओ। छल-बल से और बिरसा को भ्रम में रखते हुए ईसाई मिशनरियों ने बिरसा को जर्मन स्कूल मिशन में भर्ती कर लिया और प्रचारित कर दिया कि वो ईसाई बन गया और उसका नाम डेविड हो गया है। तब तक बिरसा चाईवासा आ गये थे और वहाँ स्वतंत्रता आंदोलन की अग्नि जल रही थी। बिरसा के पिता सुगना मुंडा गहरे हिन्दू धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने ईसाई मिशनरियों के कुटिल षड़यंत्रों को देखते हुए 1890 में बिरसा को जर्मन मिशन स्कूल से निकाल लिया और जनजातीय समूह द्वारा अंग्रेजों और पादरियों के खिलाफ चल रहे सरदार आंदोलन में हिस्सेदारी करने लगे। सरदार आंदोलन का अर्थ था- अपनी जमीन पर अपने स्वामित्व के लिए आंदोलन। जंगल हमारा, जमीन हमारी, जल हमारा (ये अंग्रेज कहाँ से आये)।
15 साल का बिरसा गुस्से में भर कर गांव के नौजवानों को इकट्ठा कर अंग्रेजों द्वारा जनजातियों को अपनी ही जमीनों से बेदखल करने के खिलाफ लड़ने लगा। उसमें पता नहीं कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी थी, वह जहाँ जाता सैंकड़ों लोग उसके पीछे आ जाते। गांव के लड़के झुंड बनाकर उसकी बातें सुनते, गुनते और अंग्रेजों को चुनौती देते।
ये संघर्ष सारी दुनिया में अपनी विशिष्टता और अहिंसक किसान-मजदूर संघर्ष के नाते जाना जाता है तथा अपनी किस्म का अकेला ऐसा उदाहरण है जिसमें दबे-कुचले किसान जनजातियों ने अमानुषिक विदेशी सत्ता की गुलामी अस्वीकार कर सत्याग्रह का आंदोलन किया। अगर यह कहा जाए कि गांधी से पहले गांधी कौन? तो निश्चित रूप से बिरसा मुंडा का नाम लिया जाएा। उनसे पहले जनजातियों का सबसे बड़ा विद्रोह 1766 में पहाड़िया विद्रोह के नाम से जाना जाता है। फिर आया 1857 का विद्रोह अर्थात स्वातंत्रय सगर। उसके बाद 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का विराट सामाजिक विद्रोह जिसे मुंडा भाषा में उलगुलान कहा गया। जनजातियों की जल, जंगल, जमीन छीनकर उन्हें प्राणहीन काया में बदल फेंका जा रहा था, जीवन अर्थहीन बनाया जा रहा था और अंग्रेजों की इस कुटिलता के साथ-साथ विदेशी ईसाई मिशनरी जनजातियों का धर्म छीनने आ गए।
बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की जमींदारी व्यवस्था और राजस्व व्यवस्था को चुनौती दी। इसके साथ ही उन्होंने उन व्यापारी महाजनों के खिलाफ संघर्ष किया जिन्हें विकु कहा जाता था। वे भोलेभाले जनजातीय को कर्जा देते और इतना कर्ज का बोझा बना देते कि जनजातीय के बस में होता ही नहीं था कि वे कर्ज चुका सके।
यह वह युग था जब गुलामी के लगातार शिकंजे के कारण उस क्षेत्र में जन जागृति और शिक्षा का नितांत अभाव था। किसी भी आंदोलन के लिए आवश्यक जो धन और संख्या बल चाहिए वह कहाँ था बिरसा के पास। उसने पहले छापामार लड़ाई का सहारा लिया। पुलिस थानों पर हमला करके उनकी बंदूकें छीन लेते, उनको अपने इलाके से भगा देते। अंग्रेज पुलिस में बिरसा का डर व्याप्त हो गया। यह 1895-96-97 का समय था। उस समय अंग्रेजों ने बिरसा को जिंदा या मुर्दा पकड़वाने के लिए 500 रुपये का पुरस्कार घोषित किया। जो उस समय इतनी ही बड़ी रकम थी जैसे आज 50 लाख हो। बिरसा ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और हजारों जनजातीय नौजवान स्त्री-पुरुषों के साथ अंग्रेजों से लड़ते रहे। 23-24 जनवरी 1900 में अंग्रेजों ने धोखे से बिरसा और उनके तीर-कमानधारी सत्याग्रहियों को डुमरी पहाड़ी पर घेर लिया। बिरसा के साथ हजारों की संख्या में जनजातीय नौजवान थे जिनके पास साधारण जनजातीय शस्त्र यानी भाले और तीर-कमान थे। दूसरी और अंग्रेजों के पास बंदूकों और तोपों का भारी असला था। बंदूकों की गोलियों और तोपों का भारी असला था। बंदूकों की गोलियों और तोप के गोलों से जनजातीय सत्याग्रहियों को भून दिया गया। स्थानीय समाज में स्मृति के स्थानांतरण से चली आ रही मान्यता के अनुसार उस दिन एक हजार से ज्यादा जनजातीय मारे गए थे। यह इसी से प्रमाणित होता है कि अंग्रेजों के अपने अखबार "दि स्टेटसमैन" के 25 जनवरी 1900 के संस्करण में छपा कि इस लड़ाई में 400 जनजातीय मारे गए जो कि निश्चित रूप से कम की गई संख्या ही रही होगी।
लेकिन बिरसा के साथी उस युद्ध से अपने नेता को लेकर किसी दूसरे गांव में पहुंच चुके थे। पर 500 रुपये उस जमाने के लाखों रुपये के बराबर थे और एक देशद्रोही, विश्वासघाती सहयोगी ने ही बिरसा को पकड़वा दिया। बिरसा पर अंग्रेजों की कंगारू अदालत में मुकद्मा चला और यह तय था कि उन्हें फांसी ही दी जाने वाली थी। अचानक 9 जून 1900 की सुबह अंग्रेजों ने सूचना दी कि बिरसा मुंडा, उम्र 25 वर्ष, कालरा के कारण जेल में अंतिम सांस ले चुका है। इस बारे में प्राय: सभी जनजातीय नेता एकमत हैं कि अंग्रेजों ने उन्हें अत्याचार करके मार दिया था और जन विद्रोह के डर से बिरसा की बीमारी से मृत्यु हुई, ऐसा कहा गया। बिरसा के अंतिम क्षणों का अपनी कल्पना से महान साहित्यकार महाश्वेता देवी ने 'जंगल के दावेदार' उपन्यास में बहुत मार्मिक और हृदयग्राही वर्णन किया है- सवेरे आठ बजे बिरसा मुंडा खून की उलटी कर अचेत हो गया, बिरसा मुंडा सुगना मुंडा का बेटा, उम्र 25 वर्ष, विचाराधीन बंदी। तीसरी फरवरी को बिरसा पकड़ा गया था किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था..........क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत-सी धाराओं में मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा जानता था उसे सजा नहीं होगी। डॉक्टर को बुलाया गया, उसने मुंडा की नाड़ी देखी, वो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का 'भगवान' मर चुका था।
इसे भी पढ़ें: राष्ट्रीय समाज के लिए प्रेरणा हैं बिरसा मुंडा
बिरसा अमर हो गए। धरती के आबा, धरती के भगवान बन गए। आज भी जनजातीय समाज में शोषण और धर्मांतरण के विरुद्ध बिरसा मुंडा की जीवन कथा एक शक्तिदायी प्रेरणा का काम करती है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में बिरसा मुंडा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उन्हें राष्ट्रीय चेतना का अग्रदूत बताया।
बिरसा मुंडा पर 1988 में डाक टिकट भी निकला और उनकी जन्मतिथि 15 नवंबर कर्नाटक तथा झारखंड सहित अनेक प्रांतों में जनजातीय सशक्तिकरण दिवस के रूप में मनाय जाती है। अनेक संस्थानों और स्थानों का नाम बिरसा मुंडा पर है। रांची हवाई अड्डा, सिंद्री स्थित इंस्टीट्यूट आफॅ टेक्नोलॉजी पुरूलिया में कृषि विश्वविद्यालय बिरसा मुंडा के नाम पर समर्पित किए गए हैं। संसद भवन के केंद्रीय हाल में भी वे अकेले जनजातीय महापुरुष हैं जिनका तैल चित्र स्थापित है।
जनजातीय समाज आज देश-विदेश में अपनी बहादुरी, विद्वता, तेजस्विता और क्रीड़ा में धुरधंर स्थान प्राप्त करने के कारण समाज में विशिष्ट स्थान बन रहा है। इस जागृति के पीछे बिरसा मुंडा जैसे महापुरुषों का संघर्ष और बलिदान छिपा है।
- तरुण विजय
(लेखक पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में एनएमए के चेयरमैन हैं)
अन्य न्यूज़