राम मंदिर, ज्ञानवापी, मथुरा...यह हिंदुत्व के नव उल्लास का दौर चल रहा है
राममंदिर बन चुका है। साल 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस विवाद का अंत हुआ। वैसे हमें याद रखना चाहिए कि अयोध्या के राममंदिर को 1528 में बाबर के सेनापति मीर बकी ने तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई थी।
राममंदिर आंदोलन के उफान के दिनों में विश्व हिंदू परिषद ने एक नारा दिया था, अभी तो ये झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है। सेकुलर जमात समेत राममंदिर के तमाम विरोधी संघ परिवार को निशाना बनाने के लिए इस नारे को भी जरिया बनाते थे। राम भक्तों को उम्मीद तो थी कि एक न एक दिन उनके आराध्य राम का मंदिर जरूर बनेगा, लेकिन उसके जल्द साकार होने की उम्मीद नहीं थी। जब राममंदरि के ही जल्द बनने की गुंजाइश नहीं दिखती थी, तब काशी और मथुरा के देवस्थानों की मुक्ति का सपना भी दूर की कौड़ी लगता था। बीती 22 जनवरी को राम मंदिर साकार हो चुका है, काशी के ज्ञानवापी परिसर का सर्वे हो चुका है और वहां के तलघर स्थित व्यास मंदिर की पूजा-अर्चना की न्यायिक राह भी खुल गई है। इन घटनाओं से उम्मीद बढ़ चली है कि जल्द ही काशी का विश्वेश्वर मंदिर भी मध्यकालीन आक्रांता के क्रूर निशानों से मुक्त हो जाएगा। इसी तरह मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर अवैध कब्जे पर न्यायिक सुनवाई जारी है।
बदले हालात में सेकुलरवादी खोल में गंग-जमुनी संस्कृति की धारा बहाते रहे इतिहासकारों के सुर भी बदलने लगे हैं। खुले तौर पर ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार करने के उहापोह से और बौद्धिक बेईमानी से वे बाहर निकलने लगे हैं। वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब खुलेआम स्वीकार कर चुके हैं कि मध्यकाल में काशी, मथुरा और अयोध्या पर मुगल आक्रांताओं ने कब्जा किया था। वैसे इसे स्वीकार करने के लिए उन्हें विशेष रूप से अयोध्या और वाराणसी में मिले पुरातात्विक साक्ष्य और प्रमाण ने भी मजबूर किया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर अयोध्या की जब पुरातत्व सर्वेक्षण ने खुदाई की तो वहां मंदिर होने के अकाट्य प्रमाण मिले।
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इसी तरह वाराणसी की सत्र अदालत के निर्देश पर जब ज्ञानवापी मंदिर का पुरातात्विक सर्वेक्षण हुआ तो वहां भी शिवलिंग मिला, हिंदू मंदिर के भित्ति चित्र मिले, मस्जिद की दीवारों पर सनातनी आस्था के प्रतीक मिले। इन तथ्यों के आलोक में कोई निर्लज्ज इतिहासकार ही होगा, जो मध्यकालीन आक्रांताओं के क्रूर आक्रमणों और कब्जे को नकार पाएगा। इतिहासकारों के अनुसार, अकेले औरंगजेब के ही राज में देश के एक हजार मंदिर तोड़े गए। औरंगजेब का शासन 1658 से 1707 यानी कुल 9 साल रहा। अपने शासनकाल में औरंगजेब ने मंदिरों को तोड़ा और उनकी जगहों पर मस्जिदें बनवाईं। काशी की ज्ञानवापी और मथुरा की मस्जिद औरंगजेब के हिंदुत्व विरोधी कार्य की देन है। वैसे तोड़े गए मंदिरों की संख्या को लेकर इतिहासकारों की एक राय नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि हजारों मंदिर तोड़े गए।
राममंदिर बन चुका है। साल 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस विवाद का अंत हुआ। वैसे हमें याद रखना चाहिए कि अयोध्या के राममंदिर को 1528 में बाबर के सेनापति मीर बकी ने तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई थी। जिस ज्ञानवापी मंदिर को लेकर इन दिनों चर्चा है, उसके बारे में कहा जाता है कि काशी का विश्वनाथ मंदिर प्राचीन काल से ही है। इतिहासकारों के अनुसार, 1100 ईसा पूर्व राजा हरिश्चंद्र और फिर सम्राट विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार कराया था। जिसको 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटा और उसे तोड़ दिया। बाद में इसे हिंदू राजाओं ने बनवाया, लेकिन 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने इसे फिर तोड़ दिया। फिर 1585 ई. में राजा टोडरमल की मदद से पं. नारायण भट्ट ने यहां भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। 1632 में इसे तोड़ने के लिए शाहजहां ने सेना भेजी, लेकिन भारी विरोध की वजह से मंदिर नहीं तोड़ा जा सका। लेकिन यहां के 63 मंदिर तोड़ दिए गए। औरंगजेब ने सत्ता संभालने के बाद 18 अप्रैल 1669 को मंदिर पर आक्रमण बोला और उसे तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई। बाद में 1777 से 80 के दौरान महारानी अहिल्याबाई होलकर ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। इतिहासकारों के मुताबिक, औरंगजेब ने यहां बने प्राचीन केशव मंदिर को तोड़कर उसी जगह 1660 ईस्वी में शाही ईदगाह मस्जिद बनवाई। इस पर कब्जे को लेकर 1770 में गोवर्धन में मुगल और मराठा सेनाओं की भिड़ंत हुई, जिसमें इसमें मराठाओं की जीत हुई। विजय के बाद मराठा लोगों ने फिर से यहां मंदिर बनवाया। लेकिन मस्जिद का एक हिस्सा कायम रहा। अब इसको लेकर भी न्यायिक सुनवाई शुरू हो चुकी है। इसी तरह गुजरात के सोमनाथ मंदिर को भी पहले गजनवी ने लूटा और तोड़ा। जिसका आजादी के फौरन बाद सरदार पटेल की पहल पर जीर्णाद्धार हुआ। राम मंदिर के लिए करीब साढ़े चार सौ साल तक संघर्ष चला। कई बार खून बहा। आजाद भारत में भी कम से कम तीन बार राममंदिर के लिए खून बहा। लेकिन उसके विवाद को सुलझाने की राह न्यायिक मंदिर से निकली। हालांकि यह तथ्य भी स्वीकार करने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि अगर छह दिसंबर को बाबरी ढांचा गिराया नहीं गया होता तो शायद न्यायिक राह भी इस तरह नहीं खुलती। लेकिन राममंदिर विवाद के पटाक्षेप में जिस तरह न्याय के मंदिर ने भूमिका निभाई है, उससे ही उम्मीद बनी है कि मथुरा और ज्ञानवापी के विवाद को सुलझाने और मध्यकालीन आक्रांताओं की निशानी को दूर करने में अदालत की मददगार होगी।
ज्ञानवापी के सर्वे के बाद मिले साक्ष्यों के बाद यह आशा और बलवती ही हुई है। कृष्ण जन्मभूमि विवाद को लेकर जिस तरह सुनवाई आगे बढ़ रही है, उससे लगता है कि जल्द ही मथुरा में कान्हा की किलकारी की अनुगूंज सुनाई देगी, कृष्णलीलाओं वाला मंदिर यहां मूर्त होगा और भक्तों को कान्हा लुभाने लगेंगे। इतिहासकार इरफान हबीब ने भले ही यह स्वीकार कर लिया हो कि मध्यकाल में मुगलों ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा, लेकिन लगे हाथों यह कहने से भी वे नहीं रूके कि पांच सौ साल पुराने विवाद को सुलझाने के लिए तोड़े गए मंदिर को वापस देने से विवाद ही बढ़ेगा। यानी एक तरह से हबीब जैसे सेकुलर जमात के लोग भावी विवाद और संघर्ष को थामने के साथ ही मुस्लिम समुदाय के अधिकारों को संरक्षित करने की बौद्धिक कोशिश कर रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहनराव भागवत इन दिनों बार-बार कह रहे हैं कि काशी, मथुरा और अयोध्या की पुनर्स्थापना के बाद हिंदू समुदाय को अतीत के बाकी विवादों को भूल जाना चाहिए। सामाजिक समभाव के लिए यह विचार भले ही जरूरी हो, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि राममंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनरूद्धार के बाद देशभर में मुगलों द्वारा तोड़े गए मंदिरों के उद्धार की भावना बलवती हो सकती है। जिन मंदिरों की जगह पर मस्जिदें खड़ी हैं, उनके खिलाफ भी जनमानस का दबाव बढ़ेगा। इतिहासकारों के लिखे शब्दों में उन मंदिरों का रिकॉर्ड दर्ज भले ही ना हो, लेकिन श्रुति परंपरा में गांव-गांव तक हिंदू मंदिरों पर बनी मस्जिदों की कहानियां लोक स्मृति में पैठी हुई हैं। उन्हें भुला पाना सामूहिक स्मृतियों के लिए आसान नहीं होगा। इसलिए यह तय मानिए कि जबरिया तोड़े गए मंदिरों की आवाज गांव-गांव से उठेगी। इससे संघर्ष का नया दौर भी शुरू हो सकता है। अयोध्या में राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद जिस तरह लोकभावना का ज्वार उमड़ा पड़ा है, उससे हिंदुत्व की अलग तरह की धारा बह रही है। जिसमें जातियों के विभाजन की लकीर धुंधली पड़ गई है। राम के नाम पर जाति और वर्ग का बंटवारा कमजोर पड़ा है। साफ है कि राम की धारा बह रही है। वैसे राम की कोई अलग धारा नहीं है, जो राम की धारा है, वही कृष्णराग भी है
और शिव का तांडव भी। सनातनी संस्कृति में राम, कृष्ण और शिव एक ही हैं। समाजवादी राममनोहर लोहिया तो हिंदुत्व की इन तीनों धाराओं का अपने ढंग से सांस्कृतिक विवेचन कर चुके हैं और इस बहाने हिंदू समाज और सनातनी संस्कृति के एकत्व की उन्होंने व्याख्या की है। हिंदुओं की लोक स्मृति में हजारों-हजार साल से एकत्व की यह धारा कायम है। इसका नव जागरण होना स्वाभाविक है। नवजागरण की यह धारा हिंदुत्व के नव उत्साह का प्रतीक है। इसके जरिए अगर गांव-गांव पुनरूद्धार की सोच विकसित हो तो उसे कौन रोक पाएगा। भक्ति और आस्था के दीवानों को भला कोई वक्त रोक पाया है। ऐसे में काशी और मथुरा भी जल्द मुक्त हो जाएं तो आश्चर्य कैसा?
-उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं
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