पुस्तक मेले में पिज्जा, कॉफी पर पैसे खर्च कर रहे, किताबें महँगी लग रहीं
विश्व पुस्तक मेला में लोगों के पास पंडाल में बिक रहे पिज्जा, कॉफी और महंगी चीजों को खरीदने के पैसे थे किन्तु जब किताबों की बारी आती है तब हमारी जेब हल्की हो जाती है। वजह प्राथमिकता बदलना है।
पूरे सालभर के बाद मेला आया है। मेला वो भी किताबों का। हामिद एक साल से इंतज़ार में था। उसे भी मेले में बोलने का मौका मिलेगा। उससे भी किताबों के लोकार्पण के निमंत्रण मिलेंगे। वो भी लंबा और चमकदार कुर्ता और बंडी पहन कर मेले में जाएगा। हासिद के दोस्त नए नए कपड़ों, किताबों, कवर पेज के साथ मेले में जाने के लिए हुलस रहे थे। लेकिन हामिद की किताब शाम तक उसके हाथ में नहीं आई। परेशान हामिद इधर उधर फोन करने में लगा था। प्रकाशक बार बार समझा रहे थे कोई बात नहीं। यहां कौन लोकार्पणकर्ता पढ़कर आता है। कवर पेज दिखा दीजिए बोलने वाले उसी पर बोलते रहेंगे। हामिद की अम्मी ने कहा अपने साथ झोला लेते जाना। और कुछ हो न हो कम से कम किताबें बटोरने में आसानी होगी। हामिद नहा धोकर मेले के लिए निकल गया। आखि़र उसकी भी तो किताबें आनी थीं। बड़ी मुश्किल से सिंह और वर्मा जी तैयार हुए थे।
किताबों का मेला हर साल की भांति इस वर्ष भी पाठकों को बुला रहा है। न केवल पाठक बल्कि लेखक, प्रकाशक, वितरक आदि के लिए एक ऐसा उत्सव होता है जहां ये तीनों चारों घटक एक ही छत के नीचे मिला करते हैं। लाखों किताबें मेले में आती हैं। उनकी ढुलाई, बिक्री, साजो सज्जा आदि में भी लाखों रुपए खर्च होते हैं। उम्मीद इस बात की होती है कि पाठक और खरीद्दार आएंगे। कम से कम पाठक आएं न आएं संस्थाएं आएंगी तो उनकी एक मुश्त बिक्री संभ्राव हो जाएगी। पिछले साल के मेले पर नोटबंदी का असर साफ देखा और महसूसा गया था। लोगों के पास पंडाल में बिक रहे पिज्जा, कॉफी महंगी चीजों को खरीदने के पैसे थे किन्तु जब किताबों की बारी आती है तब हमारी जे़ब हल्की हो जाती है। वजह प्राथमिकता का है। हमारे जीवन में पढ़ना, किताबें, शिक्षा आदि की जगह धीरे धीरे नहीं बल्कि बहुत तेज़ी से सिमट रही है। हम किताबें भी वैसी खरीदने से नहीं हिचकते जो बताती हो कि सफल वक्ता कैसे बनें। हम कहां अपने पैसे लगाएं कि कम समय में ज़्यादा रिटर्न मिल सके।
बिज़नेस, मैनेजमेंट आदि की किताबें जिस तदाद में बिक रही हैं। उस अनुपात में साहित्य की किताबें कम बिकती हैं। उसमें भी जो मनोरंजन, उमंग, हास्य प्रधान किताबों होती हैं उसको हाथों हाथ पाठक उठा लेते हैं। मसलन कोई किताब विवादास्पद मुद्दे को केंद्र में रखकर लिखी गई है तब भी किताब की बिक्री बढ़ जाती है। समझने की आवश्यकता है कि क्या किताबें महज विवाद पैदा करने, सनसनी फैलाने व बिक्री के लिहाज़ से लिखी जाती हैं। माना जाता है कि साहित्य की भूमिका समाज व पाठक को संवेदनशील बनाना भी होता है। प्रो. कृष्ण कुमार बड़ी शिद्दत से मानते हैं और कई जगहों पर जिक्र भी कर चुके हैं कि साहित्य और खासकर हिन्दी कविता, कहानी का शिक्षण स्कूली स्तर पर जिस लचर तरीके से हो रहा है उसे देख कर बहुत क्षोभ होता है। साथ ही एक पीड़ा भी होती है कि हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में इतने विद्वान लेखक हुए हैं किन्तु उनके पाठों को उतने ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते हैं। प्रो. कुमार मानते हैं कि यदि कहानी कविता को बेहतर तरीके से पढ़ा−पढ़ाया जाए तो काफी हद तक हम हिन्दी को बचाने में सफल हो सकेंगे।
आज की तारीख में जिस संख्या में साहित्य की विभिन्न विधाओं में पुस्तकें लिखी जा रही हैं उनमें कविता, कहानी, उपन्यास ही प्रमुखता पाती हैं। वहीं दूसरी विधाएं लगभग उपेक्षित रह जाती हैं। उसमें भी खासकर बाल साहित्य तो हाशिए पर ही जा चुका है। बाल साहित्य के नाम पर जिस प्रकार की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। उसे देखकर लगता है कि हिन्दी और गैर हिन्दी भाषायी साहित्य जगत् में बाल साहित्य को लेकर गंभीरता छिजती जा रही है। बाल साहित्य के साथ ही कथेत्तर साहित्य की स्थिति भी शोचनीय है। डायरी, यात्रावृतांत, रिपोतार्ज़, संस्मरण आदि में जिस प्रकार की रचनाएं हो रही हैं या तो वे रोशनी में नहीं आतीं या फिर उन्हें समीक्षा की परिधि से ही बेदखल कर दिया जाता है। न केवल इस मेले में बल्कि पिछले कई मेलों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि वे ही किताबें ज़्यादा बिकीं जिन्हें समीक्षक मिले, जिन्हें रोशनी में लाने वाली चर्चाएं मिलीं या फिर बाज़ार में जिनके नामों को खूब बजाया गया। ऐसे में अच्छी से अच्छी किताबें बिना पढ़ी कहीं पड़ी रह जाती हैं। जिन किताबों को समीक्षक मिले, जिन्हें लोकार्पण का अवसर मिला वो कुछ देर के लिए कवर से बाहर झांक पाईं बाकी वहीं कॉर्टन में बंद रह गईं।
हामिद को मेले में किसिम किसिम के लोग मिलेंगे। हामिद की अम्मी ने ताकीद किया था कि बचना ऐसे वैसे लेखकों से जो सब्जबाग दिखाएंगे किन्तु मार्गदर्शन करने के नाम पर तुमसे कुछ चाह रखेंगे। कुछ मदद की मांग करेंगे। किन्तु हामिद न माना। वो उन झोला बटोरू लेखकों की गिरफ्त में आ ही गया। उसकी किताब का लोकार्पण होना था। सो समय पर कोई न आ सका। न वो लेखक जिन्होंने वायदे किए थे। थे तो वे वहीं उसी मेले में किन्तु मंच पर हामिद को साथ होने की पहचान से बचना चाहते थे। सो हामिद मंच पर प्रकाशक और घर के एक दो सदस्यों के साथ नज़र आया। अम्मी भी नहीं आईं क्योंकि उन्हें सिलाई, बुनाई करनी थी। वो तो हामिद का मन रखने के लिए किताब छपवाने को कह दिया था। पैसे भी दे दिए थे। हामिद आज बहुत उदास था। दूसरी ओर दूसरे कुर्ताधारी लेखक, कवि महोदय दूसरे स्टॉल पर हंसते, दांत निपोरते नज़र आए। आएंगे ही क्योंकि उस प्रकाशक ने उनकी कविता की किताब जो छापी थी।
पुस्तक मेले की भीड़ से अनुमान लगाना कठिन है कि जिन किताबों को लोकार्पण यहां इस भीड़ में किया गया वो कितनी दूर तक और किस हद तक जि़ंदा रह पाएंगी क्योंकि भीड़ और मेले के छंटने के बाद किताबें अपनी अपनी आलमारियों में जाकर सो जाएंगी। वह पुस्तकालय या दुकान में किसी कोने में मिला करेंगी। जाहिर है कि जिस तदाद में किताबें मेले में लोकार्पित हो रही हैं उन्हें पाठक भी मिलेंगे या नहीं यह तो पूरा साल व आने वाला वक्त ही तय करेगा। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि किताबें लिखी और छापी जा रही हैं। पाठक भी हैं कि किन्तु उनकी संख्या सीमित है। अमूमन यह देखा गया है कि जिस चाव और ललक से किताबें लिखी गईं यदि उन्हें उनका पाठक न मिले तो न केवल लेखक बल्कि प्रकाशक भी थोड़ा हतोत्साहित होता है।
हालांकि प्रकाशकों और प्रचार के अपने तंत्र और तरीके हैं जिसके जरिए किताबें खपाई जाती हैं। प्रकाशक और किताबों का रिश्ता आज की तारीख में महज उत्पाद का है। जितना अच्छा और मनमोहक तरीके से उत्पादन होगा और उसका प्रचार−प्रसार होगा वह उत्पाद उतना ही बाजार में दौड़ा करेगा। गौरतलब है कि किताबें भीड़ का हिस्सा न तो रही हैं और न ही यह उसकी प्रकृति है। किताब की प्रकृति अपने कंटेंट को पाठकों तक पहुंचाना है। किताबों की दुनिया में प्रवेश बेशक आसान है किन्तु उस कंटेंट को निभाना और निहितार्थों को आकार देना पाठकों के लिए अहम मसला बन जाता है।
बेस्ट सेलर दूसरे शब्दों में कहें तो किताबें कितनी बिकीं और कौन सी किताब ज़्यादा बिकीं इसकी पड़ताल भी मौजू है। किताबों की दुनिया में झांकना और बाहर आ जाना एक बात है और उस किताब की दुनिया को समझना बिल्कुल दूसरी बात। जिस अनुपात में किताबें लिखी जा रही हैं उस अनुपात में उनकी पहुंच पाठकों तक नहीं हो पा रही है। प्रकाशकों और लेखकों को रणनीति बनाने की आवश्यकता है कि कैसे हम किताबों को पाठकों तक सहजता से पहुंचा सकें।
- कौशलेंद्र प्रपन्न
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