जम्मू-कश्मीर विधानसभा में गिलानी को श्रद्धांजलि देने वाले विधायकों को शर्म आनी चाहिए
हम आपको याद दिला दें कि पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता और जम्मू-कश्मीर में करीब तीन दशकों तक अलगाववादी मुहिम का नेतृत्व करने वाला सैयद अली शाह गिलानी जब मरा था तो पाकिस्तान गम में डूब गया था लेकिन कश्मीर में किसी ने भी जरा-सा भी दुख नहीं जताया था।
कट्टरपंथी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी जिसने जम्मू-कश्मीर को वर्षों तक आतंकवाद और अलगाववाद के घेरे में जकड़े रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पाकिस्तानी शह पर काम करने वाले जिस गिलानी ने कश्मीर के युवाओं के हाथों में पत्थर पकड़ा कर उनका भविष्य बर्बाद किया। जिस अलगाववादी गिलानी ने कश्मीर में बंद के कैलेंडर जारी करवाये। जिस कट्टरपंथी गिलानी ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज और भारतीय संविधान के विरुद्ध नारे लगवाये, जिस पाकिस्तान प्रेमी गिलानी ने कश्मीर को विकास और शांति से दशकों तक दूर रखने में अहम भूमिका निभाई, उसी को जम्मू-कश्मीर विधानसभा में श्रद्धांजलि दिया जाना बेहद चौंकाने वाला घटनाक्रम है। यह सही है कि वह जम्मू-कश्मीर विधानसभा का सदस्य रहा है। कोई भी सदन अपने सदस्य या पूर्व सदस्य के निधन पर उसे श्रद्धांजलि देता ही है लेकिन ऐसा करते समय देश के साथ खड़े रहने वालों और देश का विरोध करने वालों के बीच का अंतर तो देखा ही जाना चाहिए। गिलानी की वजह से हमारे कई सुरक्षा बलों को शहादत देनी पड़ी थी, निर्दोषों को जान गंवानी पड़ी थी इसलिए ऐसे व्यक्ति को श्रद्धांजलि देने वाले विधायकों को शर्म आनी चाहिए।
हम आपको याद दिला दें कि पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता और जम्मू-कश्मीर में करीब तीन दशकों तक अलगाववादी मुहिम का नेतृत्व करने वाला सैयद अली शाह गिलानी जब मरा था तो पाकिस्तान गम में डूब गया था लेकिन कश्मीर में किसी ने भी जरा-सा भी दुख नहीं जताया था। पाकिस्तान इस बात से बहुत निराश हुआ था कि उसके हाथों में खेलने वाला और उसके एक इशारे पर कश्मीर में सभी गतिविधियों को ठप करवा देने वाला गिलानी इस दुनिया से चला गया लेकिन गिलानी की मौत के बाद कश्मीर में ना तो कोई प्रतिक्रिया हुई थी ना ही उसकी बरसी पर उसे कोई याद करता है। इसलिए सवाल उठता है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में ऐसे देशविरोधी शख्स को श्रद्धांजलि क्यों दी गयी?
इसे भी पढ़ें: वाजपेयी का नजरिया अपनाया गया होता तो जम्मू-कश्मीर की यह हालत नहीं होती: Omar
हम आपको याद दिला दें कि गिलानी की एक सितंबर, 2021 को मौत हो गई थी। गिलानी की मौत के साथ ही कश्मीर में भारत-विरोधी और अलगाववादी राजनीति के एक अध्याय का अंत हो गया था। गिलानी के परिचय की बात करें तो आपको बता दें कि उसका जन्म 29 सितंबर 1929 को बांदीपुरा जिले के एक गांव में हुआ था। उसने लाहौर के ‘ओरिएंटल कॉलेज’ से अपनी पढ़ाई पूरी की। ‘जमात-ए-इस्लामी’ का हिस्सा बनने से पहले उसने कुछ वर्ष तक एक शिक्षक के तौर पर नौकरी भी की। कश्मीर में अलगाववादी नेतृत्व का एक मजूबत स्तंभ माने जाने वाला गिलानी भूतपूर्व राज्य में सोपोर निर्वाचन क्षेत्र से तीन बार विधायक रहा। उसने 1972, 1977 और 1987 में विधानसभा चुनाव जीता हालांकि, 1990 में कश्मीर में आतंकवाद बढ़ने के बाद वह चुनाव-विरोधी अभियान का अगुवा हो गया था। वह हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के संस्थापक सदस्यों में से एक था, जो 26 पार्टियों का अलगाववादी गठबंधन था। लेकिन बाद में उन नरमपंथियों ने इस गठबंधन से नाता तोड़ लिया था, जिन्होंने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए केन्द्र के साथ बातचीत की वकालत की थी। इसके बाद 2003 में गिलानी ने तहरीक-ए-हुर्रियत का गठन किया। हालांकि, 2020 में गिलानी ने हुर्रियत की राजनीति को पूरी तरह अलविदा कहने का फैसला किया और कहा था कि 2019 में अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को खत्म करने के केंद्र के फैसले के बाद दूसरे स्तर के नेतृत्व का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा।
जहां तक गिलानी से जुड़े विवादों की बात है तो वह एक नहीं कई थे। भारत विरोधी गतिविधियों के लिए कुख्यात गिलानी का पासपोर्ट 1981 में जब्त कर लिया गया था और फिर पासपोर्ट केवल एक बार 2006 में हज यात्रा के लिए लौटाया गया था। गिलानी के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय, पुलिस और आयकर विभाग में कई मामले लंबित थे। गिलानी कश्मीर को बंद रखने वाले कैलेंडर निकालने के लिए जाना जाता था। वह घोषित करता था कि कब-कब कश्मीर घाटी बंद रहेगी लेकिन अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद से गिलानी की भारत विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लग गया था। हम आपको यह भी याद दिला दें कि पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने गिलानी के निधन पर अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल के जरिए शोक व्यक्त करते हुए ऐलान किया था कि ‘‘पाकिस्तान का ध्वज आधा झुका रहेगा और हम एक दिन का आधिकारिक शोक मनाएंगे।''
बहरहाल, देखा जाये तो पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से सम्मानित किया जा चुका गिलानी भारत में किसी तरह के सम्मान का हकदार नहीं है इसलिए उन विधायकों से सवाल पूछा जाना चाहिए जिन्होंने विधानसभा में गिलानी का गुणगान किया। सवाल पूछा जाना चाहिए कि गिलानी का महिमामंडन कर वह युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या गिलानी को सराह रहे विधायक उसकी अलगाववादी नीतियों, बंद के आयोजनों और सुरक्षा बलों पर पत्थर फिंकवाने की राजनीति का समर्थन करते हैं? कश्मीर बड़ी मुश्किल से शांत हुआ है। कश्मीर में दशकों बाद विकास की बयार बह रही है। जनता ने विधायकों को इसलिए चुना है कि वह विकास की रफ्तार को तेज करवायें और उनकी समस्याओं का समाधान करें लेकिन यदि विधायक अलगाववादियों का महिमामंडन करेंगे तो इस क्षेत्र के पुराने दौर में जाने का खतरा बढ़ जायेगा।
-नीरज कुमार दुबे
अन्य न्यूज़