मैनचेस्टर हमला आतंकवाद के प्रति दोहरा रवैया रखने वालों को चेतावनी
मैनचेस्टर में हुए धमाकों के बाद एक बार फिर सवाल उठ रहे हैं कि क्या आतंकियों से निपटने में पश्चिमी विकसित देश भी सक्षम नहीं हैं? इन हमलों ने पुन: अमेरिका और पश्चिम के आतंकवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय अभियानों पर भी प्रश्न उठा दिया है।
23 मई की सुबह दुनिया ब्रिटेन में हुए जबरदस्त आतंकवादी हमलों से गूँज से उठी। घटना मैनचेस्टर के अरीना में सोमवार रात पॉप सिंगर अरियाना ग्रांडे के कॉन्सर्ट के दौरान हुई। इसमें 22 लोगों की मौत हुई तथा 60 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। यह हमला मैनचेस्टर एरिना में टिकट विंडो के पास हुआ। मैनचेस्टर एरिना यूरोप के बड़े इन्डोर स्टेडियम में शामिल है, जो 1995 में खुला था। यहाँ कई बड़े-बड़े कॉन्सर्ट और गेम्स हो चुके हैं।
इस हमले की भयावह तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखीं, जिसमें कॉन्सर्ट के दौरान एक स्थान पर पहले तेज चमकती रोशनी दिख रही है तथा फिर जोरदार धमाका होता है। इस हमले के बाद भारी भीड़ में लोग जान बचाने के लिए एक दूसरे के ऊपर ही कूद कर भागने का प्रयास कर रहे थे तथा भयावह चीख-पुकार की स्थिति थी। पुलिस प्राथमिक तौर पर आत्मघाती आतंकवादी हमला मानकर संपूर्ण मामले की जाँच कर रही है।
आतंकवादियों ने मूलत: भारी भीड़-भाड़ वाले स्थान को एक सॉफ्ट टारगेट के रूप में चुना, जहाँ जान माल की हानि ज्यादा से ज्यादा हो तथा दुनिया में भय का वातावरण बने। कॉन्सर्ट में भाग लेने वाले अधिकांश युवा थे तथा वहाँ पूर्णतः संगीतमय माहौल था। ऐसे स्थानों में जहाँ सुरक्षाकर्मियों के लिए सुरक्षा उपलब्ध कराना कठिन होता है वहीं जहां जनहानि की संभावना अधिक हो, वह स्थान आतंकवादियों के लिए सॉफ्ट टार्गेट होते हैं।
ब्रिटेन में अगले माह होने वाले ठीक आम चुनाव से पूर्व यह हमला कर आतंकवादियों ने लोकतंत्र के महापर्व को भी बाधित करने की कोशिश की है। सभी राजनीतिक दलों ने अभी चुनाव प्रचार अभियान बंद कर दिया है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने बयान जारी कर कहा है कि यह एक भय उत्पन्न करने वाला आतंकवादी हमला है। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ट्वीट कर कहा कि मैं मैनचेस्टर हमलों से दुखी हूँ। मैं इन हमलों की कड़ी निंदा करता हूँ और पीड़ित परिवारों के प्रति हमारी संवेदना है। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भी कहा है कि इस हमले से कनाडा के लोग सदमे में हैं और पीड़ित और उनके परिवारों के प्रति संवेदना है।
क्या पश्चिमी विकसित देश भी आतंकियों से निपटने में सक्षम नहीं हैं??
मैनचेस्टर में हुए धमाकों के बाद एक बार फिर सवाल उठ रहे हैं कि क्या आतंकियों से निपटने में पश्चिमी विकसित देश भी सक्षम नहीं हैं? इन हमलों ने पुन: अमेरिका और पश्चिम के आतंकवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय अभियानों पर भी प्रश्न उठा दिया है।
अमेरिका 2001 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमलों के बाद नाटो सेनाओं के साथ विश्वभर में हस्तक्षेप करता रहा है। लेकिन अगर सूक्ष्मतापूर्क देखा जाए तो यह आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष कम और वर्चस्व तथा संसाधनों की लूट की लड़ाई ज्यादा थी। 2003 में सद्दाम हुसैन पर अमेरिका और ब्रिटेन ने आरोप लगाया कि वहाँ खतरनाक रासायनिक हथियार हैं। सद्दाम हुसैन को गिरफ्तार कर अमेरिका द्वारा संचालित न्यायालय द्वारा फांसी की सजा दी गई, लेकिन अमेरिका कभी इराक में तथाकथित रासायनिक हथियारों को तो ढ़ूंढ़ ही नहीं पाया। हाँ, इराक को हमेशा के लिए राजनीतिक एवं संघर्षात्मक हिंसा के लिए छोड़ दिया, जो आगे चलकर खूँखार आतंकवादी संगठन आईएसआईएस का क्षेत्र बन गया। इस मामले से पश्चिम की आतंक के विरुद्ध आधी-अधूरी लड़ाई को समझा जा सकता है।
अमेरिका के लिए मध्यपूर्व अपने ऊर्जा संसाधनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण था। भूराजनीतिक रूप से भी अहम था क्योंकि यह यूरोप तथा एशिया को जोड़ता है। रूस ने भी इस क्षेत्र में प्रवेश कर लिया तथा दोनों महाशक्तियों के बीच जोर आजमाईश प्रारंभ हो गई। अगर सीरिया मामले को ही देखें तो आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को लेकर अमेरिका एवं रूस दो ध्रुवों पर खड़े हैं। रूस वहाँ बशर अल असद को समर्थन दे रहा है तो वहीं अमेरिका विद्रोहियों को। रूस ने असद विद्रोहियों पर कार्यवाही की तो विरोध में अमेरिका ने असद को कमजोर करने के लिए सीरिया पर गंभीरतम रासायनिक हमला कर दिया। इस तरह से आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष संभव नहीं है। सीरिया में रासायनिक हमलों के बाद सीरियाई युद्ध पर एकीकृत दृष्टिकोण के लिए जी-7 के विदेश मंत्रियों की इटली में अप्रैल में 2 दिवसीय बैठक हुई, जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। इसके विपरीत डोनाल्ड ट्रंप और व्लादीमिर पुतिन के संबंध और खराब ही हुए।
इस तरह अमेरिका और ब्रिटेन ने नाटो सेनाओं के साथ मिलकर मध्यपूर्व और अफगानिस्तान में भी हस्तक्षेप किया। लेकिन आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में सदैव आतंकवाद से लड़ना गौण और दूसरे राष्ट्रीय हित प्राथमिक रहे। मई 2011 को अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मार दिया। इसके बाद भी दुनिया भर में आतंकी वारदात को अंजाम देने से बाज नहीं आ आ रहे हैं। पहले जब भारत आतंकी वारदात की बात करता था तो विकसित माने जाने वाले अधिकांश देश इसे तवज्जो ही नहीं देते थे। लेकिन जब आतंकियों ने पाँव पसारे तो अमेरिका के साथ यूरोप को भी निशाना बनाने से नहीं चूके। मैनचेस्टर में हुए आतंकी हमलों के बाद अमेरिका, ब्रिटेन सहित पश्चिमी देशों के आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष पर प्रश्न उठाना लाजिमी है।
भारत जब पाकितान के हाफिज सईद, मौलाना मसूद अजहर जैसे आतंकियों की बात करता है, तो चीन सुरक्षा परिषद में वीटो का प्रयोग करता है। लेकिन क्या उसके बाद यही पश्चिमी देश चीन पर समुचित दबाव डालते हैं? यह स्पष्ट रूप से नजर आता है कि आतंक के खिलाफ पश्चिमी देशों के युद्ध के साथ कारोबार, साम्राज्यवाद तथा नव उपनिवेशवाद की शुरुआत हो गयी है। आतंकवाद जैसी वैश्विक समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि विश्व समुदाय आतंकवाद पर दोहरा रवैया रखना बंद करे। आतंकवाद की जन्मभूमि एवं पालन-पोषणकर्ता राष्ट्र पाकिस्तान पर जोरदार अवाज उठाएँ।
आईएसआईएस जैसे आतंकवादी संगठनों के प्रति भी पश्चिमी देशों का प्रारंभिक रवैया काफी गैर गंभीर था। कुछ खुफिया एजेंसियों का तो यह भी दावा था कि पश्चिमी राष्ट्र आईएसआईएस को प्रोत्साहन देकर 10 डॉलर प्रति बैरल से भी सस्ते तेल खरीदकर अपनी ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत कर रहे थे। जब यह संगठन उन देशों के निवासियों की भी निर्ममतापूर्वक हत्या करने लगा, तब पश्चिम की भूमिका बदली।
वास्तव में आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को संपूर्ण विश्व समुदाय को मिलकर लड़ना होगा। अब महाशक्तियों को आतंकवाद के नाम पर शक्ति संघर्ष के स्थान पर एकीकृत सोच अपनानी होगी। आतंकवाद पूरे विश्व में कहीं भी हो यह मानवता के ऊपर जोरदार धब्बा है। विश्व समुदाय को चाहे आतंकवादी संगठन हों या पाकिस्तान जैसे देश जो आतंकवाद को खुलकर प्रायोजित करते हैं, उनसे कठोरता से निपटना होगा, नहीं तो आतंक के विरुद्ध संघर्ष समुचित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकेगा।
राहुल लाल
(लेखक कूटनीतिक मामलों के जानकार हैं।)
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