CAA का विरोध करने वाले नेताओं को इतिहास नहीं करेगा माफ

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अजय कुमार । Jan 1 2020 4:07PM

कुछ नेताओं द्वारा अपनी सियासी रोटियां सेंकने के लिए सरकार के प्रत्येक फैसले के खिलाफ जहर उगलना और उसे संविधान विरोधी बता कर बखेड़ा खड़ा करने को जनता समझती है और इतिहास गवाह है कि ऐसे नेताओं का राजनीतिक हिसाब जनता ने पूरी शिद्दत के साथ किया भी है।

विदेशी पैसे से पल रहे देश के मुट्ठी भर लोग और चंद नेता अगर सड़क पर आगजनी और हो−हल्ला मचाकर यह सोचते हैं कि वह भारत के भाग्य विधाता बन जाएंगे तो उन्हें अपने मन से यह गलत फहमी निकाल देनी चाहिए। कोई भी देश लोकतांत्रिक तरीके से चलता है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार और उसके बनाए कानून का पालन करना देश के प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी और कर्तव्य दोनों ही हैं। अगर सरकार के किसी फैसले से कोई खुश नहीं है तो भी उसे विरोध का रास्ता लोकतांत्रिक तरीके से ही चुनना अथवा न्याय की शरण में जाना होगा, जहां दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। कुछ नेताओं द्वारा अपनी सियासी रोटियां सेंकने के लिए सरकार के प्रत्येक फैसले के खिलाफ जहर उगलना और उसे संविधान विरोधी बता कर बखेड़ा खड़ा करने के दुष्प्रचार को जनता अच्छी तरह से समझती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर सरकार कोई गैर संवैधानिक कानून बनाती है तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा कर उसे चुनौती दी जा सकती है। कई बार सरकार के गैर संवैधानिक फैसलों को सुप्रीम कोर्ट पलट भी चुका है। इसके कई बड़े उदाहरण हैं। आज भले ही कांग्रेस मोदी सरकार के तमाम फैसलों को संविधान विरोधी बता कर उसका विरोध कर रही हो लेकिन सच्चाई तो यही है कि इस मामले में कांग्रेस की सरकारें ज्यादा बदनाम रहीं हैं। भले ही बात पुरानी हो, लेकिन इस बात को भुलाया नहीं जा सकता है कि अतीत में समय−समय पर कांग्रेस सरकारों के कई संविधान विरोधी निर्णय को सुप्रीम कोर्ट पलट चुका है। इस मामले में इंदिरा गांधी की सरकार का इतिहास काफी खराब रहा है।

सबसे पहले साल 1967 में शीर्ष अदालत ने गोलकनाथ मामले में एक अहम फैसला देते हुए कह दिया था कि संसद के पास यह अधिकार नहीं है कि वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीन सके या उनसे छेड़छाड़ भी कर सके। उस समय नेहरू जी की मृत्यु के बाद केन्द्र में इंदिरा गांधी की नई−नई सरकार बनी थी, लेकिन इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट का फैसला चुभ गया। इसके बाद 24 अप्रैल 1973 की वह महत्वपूर्ण तारीख आई जो आज भी भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। यही वह दिन था, जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने भारतीय न्यायिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय लिखा था। इसी दिन वह ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया था जो आज भी सुप्रीम कोर्ट के लिए सबसे महत्वपूर्ण नजीर बना हुआ है।

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46 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' मामले में जो फैसला सुनाया था उससे तत्कालीन इंदिरा सरकार की चूलें हिल गईं थीं। देश के इतिहास में यह पहला और आखिरी मौका था जब किसी मामले की सुनवाई के लिए 13 जजों की पीठ का गठन किया गया। इस पीठ ने अक्टूबर 1972 और मार्च 1973 के बीच लगभग 70 दिनों तक इस मामले की सुनवाई की। सैंकड़ों नजीरों और 71 देशों के संविधानों का अध्ययन करने के बाद इस पीठ ने 24 अप्रैल 1973 को कुल 703 पन्नों का फैसला सुनाया। यह फैसला क्या था और इतनी बड़ी पीठ के गठन की जरूरत ही क्यों पड़ी थी, इसे समझने के लिए उस वक्त के राजनीतिक माहौल को समझना बेहद जरूरी है।

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री बनने के साथ ही इंदिरा गांधी की सुप्रीम कोर्ट से तनातनी शुरू हो गई थी। इंदिरा गांधी सब कुछ अपने नियंत्रण में कर लेना चाहती थीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट लगातार उनके इन मंसूबों पर पानी फेरता रहा। सुप्रीम कोर्ट एवं इंदिरा सरकार के बीच लम्बे समय तक शह−मात का खेल चलता रहा। गोलकनाथ मामले के लगभग ढाई साल बाद इंदिरा गांधी ने देश के 14 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला लिया। इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और कुछ ही महीनों के भीतर कोर्ट ने सरकार के इस फैसले को असंवैधानिक करार दे दिया। इसके एक साल बाद जब इंदिरा गांधी ने रजवाड़ों को मिलने वाले 'प्रिवी पर्स' समाप्त करने का फैसला लिया तो उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहरा दिया।

उक्त तीनों ही बड़े मामलों में इंदिरा गांधी को लगातार सुप्रीम कोर्ट में हार झेलनी पड़ी। इससे बौखलाई इंदिरा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों पर लगाम कसने की तैयारी शुरू कर दी। इंदिरा सरकार ने एक−एक कर संविधान में संशोधनों के जरिये सुप्रीम कोर्ट के उक्त तीनों फैसलों को पलट दिया। गोलकनाथ केस, बैंकों के राष्ट्रीयकरण और रजवाड़ों को मिलने वाले 'प्रिवी पर्स' के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसले दिए थे, उन्हें संविधान संशोधनों के जरिये एक−एक कर रद्द कर दिया गया। इतना ही नहीं, इन संशोधनों से विधायिका को यह भी शक्तियां मिल गईं कि वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों में संशोधन करने के साथ ही उन्हें निरस्त भी कर सकती थी। इंदिरा गांधी इन संशोधनों के जरिये लगभग निरंकुशता की ओर बढ़ने लगी थी।

केशवानंद भारती का मामला काफी गंभीर था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह तय करने की थी कि क्या संसद के पास संविधान को किसी भी हद तक संशोधित करने का अधिकार है। क्या संसद चाहे तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है और उन्हें छीन भी सकती है ? गोलकनाथ मामले में 11 जजों की पीठ यह फैसला दे चुकी थी कि संसद मौलिक अधिकारों से छेड़छाड़ नहीं कर सकती, लिहाजा इसी मुद्दे पर कोई नया फैसला लेने के लिए 11 जजों से भी बड़ी पीठ के गठन की जरूरत थी। इसीलिए मुख्य न्यायाधीश सर्व मित्र सीकरी की अध्यक्षता में देश के इतिहास में पहली और आखिरी बार 13 जजों की एक बेंच का गठन हुआ और केशवानंद भारती मामले की सुनवाई शुरू हुई।

दरअसल, तब सुप्रीम कोर्ट और तत्कालीन इंदिरा सरकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन से संबंधित प्रावधान को लेकर आमने−सामने आ गए थे। इस अनुच्छेद को ऊपरी तौर पर पढ़ने से लगता है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्तियां हैं, जबकि यह अनुच्छेद ऐसा कुछ नहीं कहता था कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती, लेकिन 70 के दशक में जिस तरह से इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में लगातार संशोधन किये, उससे यह सवाल पैदा हुआ कि क्या संविधान अप्रत्यक्ष तौर से संसद के इस अधिकार के सीमित होने की बात करता है ? इसी सवाल का जवाब केशवानंद भारती मामले में 13 जजों को खोजना था।

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करीब 70 दिनों की बहस के बाद 24 अप्रैल 1973 को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। यह फैसला 7−6 के न्यूनतम अंतर से दिया गया। यानी सात जजों ने पक्ष में फैसला दिया और छह जजों ने विपक्ष में। इस फैसले में छह के मुकाबले सात के बहुमत से जजों ने गोलकनाथ मामले के फैसले को पलट दिया यानी अब न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो।

केशवानंद भारती मामले में आए इस फैसले से स्थापित हो गया कि देश में संविधान से ऊपर कोई भी नहीं है, संसद भी नहीं। यह भी माना जाता है कि अगर इस मामले में सात जज यह फैसला नहीं देते और संसद को संविधान से किसी भी हद तक संशोधन के अधिकार मिल गए होते तो शायद देश में गणतांत्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित नहीं रह पाती।

इंदिरा की तरह राजीव गांधी ने भी मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत के चलते सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने में हिचक नहीं दिखाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने जब अपने महत्वपूर्ण फैसले में एक मुस्लिम महिला शाहबानो को तलाक के बदले उसके शौहर से प्रत्येक माह गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था तो कठमुल्लाओं के सामने नतमस्तक हुई राजीव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का गुजारा भत्ता देने का फैसला पलट दिया था, जिस पर राजीव सरकार की काफी किरकिरी हुई थी। वैसे कहा यह गया कि अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर का ताला खुलवाने के चलते कुछ मुस्लिम नेता तत्कालीन प्रधामनंत्री राजीव गांधी से नाराज हो गए थे, जिन्हें मनाने के लिए ही उनकी सरकार ने शाहबानो को मामूली-सा गुजारा भत्ता नहीं मिलने दिया था। अफसोस की बात यह है कि जिस गांधी परिवार का इतिहास ही संविधान विरोधी कृत्य करने का है, उसी परिवार द्वारा संविधान बचाने का ढिंढोरा पीटने का नाटक किया जा रहा है ताकि मुस्लिम वोटरों को कांग्रेस के पाले में लाया जा सके जो तीन दशकों पूर्व कांग्रेस से नाराज होने के बाद उसके पास अभी तक लौटा नहीं है, जबकि मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सपा−बसपा कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बना चुके हैं। सीएए का विरोध करने वाले नेताओं में चाहें ममता बनर्जी हों या फिर प्रियंका वाड्रा, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव आदि सब मुसलमान वोटरों को भेड़−बकरी की तरह हांकना चाहते हैं। वैसे भी मुसलमानों में व्याप्त अशिक्षा, कट्टरता हमेशा इस कौम के विकास की राह में आड़े आती रही है।

  

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी इस बात का अहसास है कि तुष्टिकरण की सियासत करने वाले तमाम दलों के नेता और कथित बुद्धिजीवी गैंग के सदस्य समय−समय पर उनकी सरकार को लेकर भ्रांति फैलाते रहे हैं। आजादी के बाद से मुस्लिम वोट बैंक की सियासत करने वाले चंद नेताओं और देश में रहकर देश के साथ गद्दारी करने वाले ओवैसी जैसे लोग नागरिकता संशोधन कानून, एनपीए और एनआरसी का विरोध अपने सियासी रोटियां सेंकने के लिए कर रहे हैं। ऐसे में मोदी सरकार और भाजपा नेताओं की जिम्मेदारी तो बनती ही है कि वह उक्त कानूनों को लेकर लोगों की शंकाओं को दूर करे, इसके साथ−साथ जनता को अपने जनप्रतिधियों पर भी दबाव बनाना चाहिए कि वह पार्टी हित से ऊपर उठकर इसका समर्थन करें। अगर कुछ लोगों को खुश करने के लिए हमारे जनप्रतिनिधि मौन साधे रहेंगे तो उन्हें देश और जनता कभी माफ नहीं करेगी।

ऐसे नेता जो सियासी नफा−नुकसान के चलते अपनी अंतरात्मा की आवाज नहीं सुन रहे हैं, उनके लिए मध्य प्रदेश के पठारिया विधानसभा क्षेत्र से बसपा विधायक रामाबाई परिहार सबसे सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने पार्टी लाइन से ऊपर उठ देशहित की बात सोची और सीएए, एनपीआर और एनआरसी का समर्थन किया जिसके चलते बसपा सुप्रीमो ने उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखा दिया। बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने ट्वीट करते हुए कहा− "पठारिया से बीएसपी विधायक रामाबाई परिहार को नागरिकता कानून का समर्थन करने के चलते पार्टी से निलंबित किया गया है। उनके पार्टी के किसी भी कार्यक्रम में शामिल होने पर रोक लगाई गई है।" जन प्रतिनिधियों को समझना चाहिए कि कुछ खास मौकों पर चुप रहने वालों को इतिहास कभी माफ नहीं करता है।

-अजय कुमार

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