नीरज का जाना...जैसे कलम की स्याही सूख गयी, गीत माला की लड़ी टूट गयी
नीरज जी नहीं रहे, हिंदी काव्य मंचों के लिए यह बिजली गिर जाने जैसी खबर है। जैसे गीति काव्य का कोई सूरज अस्त हो गया, कि जैसे गाते गाते कोई सिसकने लगा, कि जैसे रोते-रोते कोई अचानक सुन्न हो गया, कि जैसे गीत माला की लड़ी टूट गयी, जैसे दुपहरी में सांझ हो गयी, कि जैसे कलम की स्याही सूख गयी। भरोसा ही नहीं हो रहा, सचमुच वह कारवां गुजर गया।
नीरज जी नहीं रहे, हिंदी काव्य मंचों के लिए यह बिजली गिर जाने जैसी खबर है। जैसे गीति काव्य का कोई सूरज अस्त हो गया, कि जैसे गाते गाते कोई सिसकने लगा, कि जैसे रोते-रोते कोई अचानक सुन्न हो गया, कि जैसे गीत माला की लड़ी टूट गयी, जैसे दुपहरी में सांझ हो गयी, कि जैसे कलम की स्याही सूख गयी। भरोसा ही नहीं हो रहा, सचमुच वह कारवां गुजर गया।
वह कहते थे- मेरा जीवन और मेरी पहचान केवल कविता है, गीत मेरी आत्मा है। मेरा तो अस्तित्व ही कवितामय है। बचपन से ही इसको मैंने अपनी साधना माना है, तप माना है, तपस्या माना है। इसी को मैंने अपना संपूर्ण जीवन दे दिया है, इसलिए कवि के अतिरिक्त मेरा और कोई स्वरूप याद नहीं किया जाएगा। हालांकि मैंने ज्योतिष में भी बहुत अध्ययन किया है, लेकिन ज्योतिषी के रूप में मुझे याद नहीं किया जाएगा। मुझे सिर्फ और सिर्फ एक कवि के रूप में याद किया जाएगा। आज से अब वह सच में यादों में ही होंगे। नीरज नहीं रहे। जी हाँ- गोपालदास नीरज नहीं रहे। गुरुवार को प्रख्यात गीतकार राजेश राज ने फेसबुक पर उनके लिए कुछ लिखा लेकिन उस पोस्ट के क्रम में ही सन्नाटे की खबर आने लगी। यह खबर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नयी दिल्ली से आ रही थी- गीतों के राजकुमार नहीं रहे।
पाठ्यक्रमों से लेकर फिल्मों तक, किताबों से लेकर मंचों तक दुनिया में बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं जो यह स्वीकार करते हैं कि नीरज को पढ़ने और सुनने केलिए उन्होंने हिंदी सीखी है। लोकमानस के अप्रतिम कवि गोपालदास सक्सेना 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध, (जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है) में इटावा जिले के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था। बताते हैं कि मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता गुजर गये। गोपाल ने 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्होंने शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। इसके बाद उनको काफी समय तक कोई रोजगार नहीं मिला। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया। जाहिर है अभी संघर्ष ने पीछा नहीं छोड़ा था।
कुछ ही समय के बाद उन्होंने मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व कई तरह के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
इसी दौर में वह हिंदी काव्य मंचों पर जाने लगे थे। कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई 'उमर की नई फसल' के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा। राज कपूर के वह प्रिय गीतकार रहे। इसी दौरान उनको तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड भी मिले।
मुंबई की ज़िन्दगी से भी नीरज जी का मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। तब से अब तक वहीं रहकर स्वतन्त्र रूप से मुक्ताकाशी जीवन व्यतीत कर रहे थे। इतनी बड़ी आयु में भी वे देश विदेश के कवि-सम्मेलनों में उसी ठसक के साथ शरीक होते रहे। वह खुद कहा करते थे- यौवन में जो ऊर्जा होती है, जो भावनाएं होती हैं वही सृजन में प्रयुक्त होती हैं। जैसे जैसे आदमी बूढ़ा होता है वैसे वैसे सृजन की शक्ति भी कम होती चली जाती है। कविताएं बहुत कम लिख पाता हूं अब, पहले एक महीने में 60-70 कविताएं लिखता था। 70 के दशक के बाद कविता लिखना कम हो गया, फिर दोहे लिखने लगा, मुक्तक लिखना शुरू कर दिये, हाईकू लिखना शुरू कर दिये, छोटी कविताएं लिखने लगा। जैसे जैसे वृद्धावस्था आती है ऊर्जा कम हो जाती है, और याद रखियेगा- ऊर्जा ही सृजन की शक्ति होती है। जब युवा था, तब तो मैं था ही युवाओं के लिए लेकिन आज भी मेरे चाहने वाले लाखों करोड़ों में हैं। जितना मैं छपता हूं अपनी पीढ़ी में उतना कोई नहीं छपता।
नीरज जी से जब भी उनके सबसे प्रिय रचना के पूछा जाता था तब वह कहते थे- एक दोहा मुझे बहुत पसंद है:
आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य।
मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य।
वह मानते थे कि पिछले जन्म का कोई पुण्य था जिसने कवि बना दिया। इन द बिगनिंग वाज वर्ड एंड वर्ड वाज थॉट। सृष्टि विचारों से बनती है...और कवि विचार सृजन करता है। जब किसी विचार में स्वयं को डुबो दिया जाता है, खो जाया जाता है, तब कविता का जन्म होता है। जब मैं कविता लिखताहूं, तब न हिंदू होता हूं, न मुसलमान होता हूं। सिर्फ शुद्ध-बुद्ध चैतन्य होता हूं। कविता ऐसे ही लिखी जा सकती है।
हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश के अनुसार नीरज की कालक्रमानुसार प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं:
संघर्ष (1944)
अन्तर्ध्वनि (1946)
विभावरी (1948)
प्राणगीत (1951)
दर्द दिया है (1956)
बादर बरस गयो (1957)
मुक्तकी (1958)
दो गीत (1958)
नीरज की पाती (1958)
गीत भी अगीत भी (1959)
आसावरी (1963)
नदी किनारे (1963)
लहर पुकारे (1963)
कारवाँ गुजर गया (1964)
फिर दीप जलेगा (1970)
तुम्हारे लिये (1972)
नीरज की गीतिकाएँ (1987)
पुरस्कार एवं सम्मान
विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार
पद्म श्री सम्मान (1991), भारत सरकार
यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
पद्मश्री सम्मान , भारत सरकार
पद्म भूषण सम्मान (2007), भारत सरकार
फिल्म फेयर पुरस्कार
नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुररकृत गीत हैं-
1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
मन्त्रीपद का विशेष दर्जा
उत्तर प्रदेश सरकार ने नीरजजी को भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया था ।
गीत
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है
माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!
-संजय तिवारी
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