मेडिकल टूरिज्म में तो दबदबा था ही, अब दवाओं के लिए भी दुनिया भारत पर निर्भर
भारत जेनेरिक दवाओं के मामले में विश्व में काफ़ी आगे है। दरअसल जेनेरिक दवाओं की ब्रांडेड संरचना ब्रांडेड दवाओं के अनुसार ही होती है। लेकिन वो रासायनिक नामों से ही बेची जाती है ताकि जनता को कोई उलझन न रहे।
विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारतीय प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी एवं भारतीय जनता का अभी हाल ही में आभार प्रकट किया है क्योंकि भारत ने अमेरिका को कोरोना वायरस को नियन्त्रित करने हेतु हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्वाइन नामक दवा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराई है। यह दवा ब्राज़ील एवं श्रीलंका के साथ ही विश्व के कई अन्य देशों को भी उपलब्ध कराये जाने पर इन देशों के राष्ट्रपतियों ने भी भारत का आभार जताया है। दवा क्षेत्र में भारत आज विश्व में कई विकसित देशों से भी बहुत आगे निकल आया है। यह सब अचानक नहीं हुआ है। भारत को, दवा क्षेत्र में, विश्व में प्रथम पंक्ति में ला खडा करने के पीछे केन्द्र सरकार की कई योजनाओं की मुख्य भूमिका रही है। आप यह जानते ही हैं कि स्वास्थ्य, दुनिया के सामाजिक और आर्थिक विकास में सर्वोपरि महत्व का क्षेत्र है। यही वजह है कि दवा उद्योग को आर्थिक विकास की प्रक्रिया में एक प्रमुख उद्योग के रूप में भी देखा जाता है। भारतीय दवा उद्योग वैश्विक फार्मा सेक्टर में एक उल्लेखनीय स्थान हासिल कर चुका है और हाल के वर्षों में इसमे उल्लेखनीय विकास हुआ है।
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नवम्बर एवं दिसम्बर 2019 में जब चीन में कोरोना वायरस फ़ैला था तब यह अनुमान लगाया जा रहा था कि कोरोना वायरस को लेकर चीन के हालात अगर शीघ्र ही बेहतर नहीं हुए तो इसका असर भारत के दवा उद्योग पर पड़ सकता है क्योंकि, भारतीय दवा उद्योग के लिये कच्चा माल विशेष रूप से चीन से ही आता है। सक्रिय औषधि अवयवों (Active Pharmaceutical Ingredients - API) के लिये भारतीय कम्पनियां विशेष रूप से चीन पर ही निर्भर हैं। सक्रिय औषधि अवयव वो दवा रसायन है जो, भारतीय औषधि उदयोग, दवाईयां बनाने के लिये इस्तेमाल करता है। भारत के API और अन्य लवणों के कुल आयात में चीन की 65 से 70 प्रतिशत हिस्सेदारी है। ICRA के मुताबिक भारत कुछ विशेष दवाओं जैसे पेरासिटामाल, आदि दवाओं के रसायनों के लिये तो 80 से 90 प्रतिशत आयात पर निर्भर है। कोरोना वायरस से दुनिया के दवा उद्योग पर भारी असर पड़ा है।
अगर चीन से कारोबार की बात की जाये तो देश में जितने भी एन्टीबायोटिक्स, स्टीरोइड्स एवं मूलभूत जीवन रक्षक औषधियां निर्मित होती हैं, इनका रसायन भारत, चीन से आयात होता है। ऐसा नहीं है कि देश का फ़ार्मा उद्योग मुस्तैद नहीं है। भारत में भी ये रसायन बनाये जा सकते हैं। यदि चीन से इनका आयात पूरी तरह से बन्द हो जाये तो भारत किसी भी हालात से निपटने में सक्षम है। वर्तमान हालातों से निपटने के लिये तो भारत सरकार ने फ़ौरी तौर पर कई जरूरी दवाओं, जिनमें मूलभूत जीवन रक्षक दवाएं भी शामिल हैं, पर भारत से निर्यात पर रोक लगा दी है।
भारतीय दवाओं का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इसके पीछे मुख्य कारण है भारतीय दवाओं की गुणवत्ता एवं भारतीय कम्पनीयों की साख। भारतीय कम्पनीयों ने विदेशी दवा बाजार में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की है। आकार के हिसाब से भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा बाजार है। वहीं कीमत के लिहाज से भारत दुनिया का 13वां सबसे बड़ा दवा बाजार है। दुनिया में बीमारीयों के टीकों की 50 प्रतिशत मांग भारतीय दवाइयों से पूरी होती है। अमेरिका में दवाओं की 40 प्रतिशत पूर्ति भारतीय दवाओं से होती है। वहीं ब्रिटेन में कुल दवाओं की 25 प्रतिशत पूर्ति भारतीय दवाओं से होती है। आज भारतीय फ़ार्मा उद्योग का कुल आकार लगभग 40 अरब अमेरिकी डालर का हो गया है। 2015-2020 के बीच भारतीय दवा उद्योग के 22.4 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ आगे बढ़ने की सम्भावना व्यक्त की गई है। भारत से 200 देशों को दवायें निर्यात की जा रही हैं। भारत से वर्ष 2017-18 में 17.27 अरब अमेरिकी डॉलर के मूल्य की दवाओं का निर्यात किया गया था जो वर्ष 2018-19 में बढ़कर 19.14 अरब अमेरिकी डॉलर एवं वर्ष 2019-20 में 22 अरब अमेरिकी डॉलर हो जाने की सम्भावना है।
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वर्ष 2017 में USFDA ने भारतीय कम्पनियों के 304 नये दवा आवेदनों को मंजूरी दी थी। इससे अमेरिकी जेनेरिक दवाओं के 70-80 अरब अमेरिकी डॉलर के बाजार में भारतीय जेनेरिक दवाओं की मौजूदगी 30 प्रतिशत और भारतीय दवाओं का मुनाफ़ा 10 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है। इसके अलावा बायो मेडिसिन, बायो सर्विस, जैव कृषि, जैव उद्योग और बायो इन्फ़ोर्मेशन के क्षेत्र के कुल मिलाकर 30 प्रतिशत विकास के साथ वर्ष 2025 तक 100 अरब अमेरिकी डालर तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही है।
भारतीय कम्पनीयों को विदेशों में यदि जेनेरिक दवाओं के निर्यात की इजाजत नहीं मिलती है तो वे वहां की स्थानीय कम्पनियों को खरीद लेती हैं और अपनी पैठ इन देशों में बना लेती हैं क्योंकि जेनेरिक ब्रांडेड दवाएं तुलनात्मक रूप से बहुत सस्ती होती हैं। भारतीय दवा उद्योग के विकास में केन्द्र सरकार की नीतियां भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं। भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी दवा कंपनियों के अधिग्रहण सम्बंधी नियमों को आसान बनाया गया है जिसके फ़लस्वरूप, भारतीय दवा उद्योग ने 2017 में 1.47 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य की 46 छोटी-बड़ी विदेशी दवा कम्पनियों का अधिग्रहण एवं विलय किया था। इससे अमेरिका समेत दुनिया के अन्य देशों में भारतीय दवा उद्योग का निर्यात बढ़ाने में मदद मिली है। उम्मीद है भारतीय दवा उद्योग साल 2020 तक विश्व के शीर्ष तीन दवा बाज़ारों में और मूल्य के लिहाज़ से 6वां सबसे बड़ा आकार वाला देश होगा। केन्द्र सरकार के फ़ार्मा विजन 2020 का मक्सद भारत के दवा उद्योग को विश्व में मुख्य स्थान दिलाना है। फ़ार्मा विजन को प्रभावी बनाने के लिये अनुसंधान एवं इनोवेशन पर काफ़ी ध्यान दिया जा रहा है। ग्रीन फ़ील्ड फ़ार्मा परियोजनाओं के लिये ऑटोमेटिक रूट के अन्तर्गत 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी जा चुकी है। जब कि ब्राउन फ़ील्ड फ़ार्मा परियोजनाओं में ऑटोमेटिक रूट के तहत 74 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है। 74 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से अधिक की राशि के लिये सरकारी अनुमति की आवश्यकता रखी गई है।
भारत जेनेरिक दवाओं के मामले में विश्व में काफ़ी आगे है। दरअसल जेनेरिक दवाओं की ब्रांडेड संरचना ब्रांडेड दवाओं के अनुसार ही होती है। लेकिन वो रासायनिक नामों से ही बेची जाती है ताकि जनता को कोई उलझन न रहे। क्रोसिन और कालपोल, ब्रांडेड दवाओं के वर्ग में आती हैं जबकि जेनेरिक दवाओं में इनका नाम पैरासिटामाल है। जेनेरिक दवाओं और दूसरी दवाओं में क्या अन्तर है ? आईये, इसे समझने का प्रयास करते हैं। जब कोई कम्पनी कई सालों की रिसर्च के बाद किसी दवा की खोज करती है तो उस कम्पनी को उस दवा के लिये पेटेंट मिलता है जिसकी अवधि 10 से 15 वर्ष की रहती है। पेटेंट अवधि के दौरान केवल वही कम्पनी इस दवा का निर्माण कर बेच सकती है, जिसने इस दवा की खोज की है। जब दवा के पेटेंट की अवधि समाप्त हो जाती है तब उस दवा को जेनेरिक दवा कहा जाता है। यानि, पेटेंट की अवधि समाप्त होने के बाद कई अन्य कंपनियां उस दवा का निर्माण कर सकती हैं। परन्तु इस दवा का नाम और कीमत अलग-अलग रहती है। ऐसी स्थिति में दवा जेनेरिक दवा मानी जाती है। भारतीय बाज़ार में केवल 9 प्रतिशत दवाएं ही पेटेंटेड श्रेणी की हैं और 70 प्रतिशत से अधिक दवाएं जेनेरिक श्रेणी की हैं।
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जेनेरिक दवाएं सबसे पहले भारतीय कंपनियां ही बनाती हैं। अमेरिका एवं यूरोपीयन बाज़ार को सबसे सस्ती जेनेरिक दवाएं भारतीय कम्पनियां ही उपलब्ध कराती हैं। चीन के मुकाबले भारतीय जेनेरिक दवाएं ज्यादा गुणवत्ता वाली मानी जाती हैं और कीमत में भी सस्ती होती हैं। पूरे विश्व में विदेशों को कुल निर्यात हो रही दवाओं में भारत का हिस्सा 20 प्रतिशत है। जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं की तुलना में बहुत सस्ती होती हैं, इसीलिये केन्द्र सरकार ने जेनेरिक दवाओं को सस्ते मूल्यों पर उपलब्ध कराने हेतु भारत में जन औषधि केन्द्रों की स्थापना की है। इन केन्द्रों पर 600 से ज्यादा जेनेरिक दवाइयां सस्ते दामों पर मिलती हैं एवं 150 से ज्यादा सर्जिकल सामान भी सस्ती दरों पर उपलब्ध है।
दुनिया भर में भारतीय जेनेरिक दवाओं पर विश्वास बढ़ा है और ये देश अब भारत से ज्यादा से ज्यादा आयात करने लगे हैं। अमेरिकी बाज़ार के जेनेरिक दवाओं में भारत की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। यूएसएफ़डीए के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 में दुनिया भर के 323 दवाइयों की टेस्टिंग की गई थी। इस टेस्टिंग में भारत की सभी दवाएं पास हुई थीं। इसके साथ ही, भारत में उत्पादन ईकाइयों के मानकों को सही ठहराते हुए अमेरिकी एफ़डीए ने भारत की ज्यादातर उत्पादक ईकाइयों को अमेरिका में निर्यात की अनुमति दे दी है। इससे जेनेरिक दवाइयों के बाज़ार में भारतीय कम्पनियों का दबदबा लगातार बढ़ रहा है।
-प्रहलाद सबनानी
(सेवानिवृत्त उप-महाप्रबन्धक, भारतीय स्टेट बैंक)
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