बाज़ारवाद के इस दौर में ग्राहक राजा नहीं बल्कि गुलाम बन चुका है

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यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके लिए (ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए) ये कंपनियां मार्केटिंग और पब्लिसिटी का इस हद तक सहारा ले रही हैं कि आज एडवरटाइजिंग अपने आप में एक तेजी से बढ़ता हुआ उद्योग बन चुका है।

आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वो है बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद का दौर। अब पहला प्रश्न यह कि इसका क्या मतलब हुआ? परिभाषा के हिसाब से यदि इसका अर्थ किया जाए तो वो ये होगा कि आज उपभोक्ता (यानी किसी भी वस्तु का उपयोग करने वाला) ही राजा है। खास बात यह है कि बाज़ारवाद के इस दौर में उपभोगता की जरूरत से आगे बढ़कर उसके आराम को केंद्र में रखकर ही वस्तुओं का निर्माण किया जा रहा है।

मोबाइल है तो यूजर फ्रेंडली। कोई ऐप है तो उसका इस्तेमाल करने वाले की उम्र यानी बच्चे, युवा, अथवा वयस्क के मानसिक विकास, उसकी जरूरतों और क्षमताओं को ध्यान में रखकर उसे कस्टमर फ्रेंड्ली बनाया जा रहा है। अगर रोबोट है तो ह्यूमन फ्रेंड्ली। और पूंजीवाद के इस युग में तो मनुष्य के उपभोग के लिए सामान बनाने वाली विभिन्न कंपनियां उसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं।

यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके लिए (ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए) ये कंपनियां मार्केटिंग और पब्लिसिटी का इस हद तक सहारा ले रही हैं कि आज एडवरटाइजिंग अपने आप में एक तेजी से बढ़ता हुआ उद्योग बन चुका है।

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अब दूसरा प्रश्न यह है कि इसके क्या मायने हैं? नहीं वो नहीं है जो आप सोच रहे हैं कि पूंजीवाद के इस दौर में आप यानी ग्राहक एक राजा हैं। ये तो हमें एक ग्राहक के रूप में एहसास कराया जा रहा है लेकिन सत्य इसका उलट है। सत्य तो यह है कि उपभोगतावाद के इस दौर में हम बाज़ारवाद के गुलाम बनकर रह गए हैं। क्यों चौंक गए न ?

चलिए जरा खुल कर बात करते हैं, इसे एक साधारण से उदाहरण से समझते हैं। सच बताइए जब हमारा बच्चा घर की रोटी या दाल चावल या सब्जी के बजाए मैग्गी की जिद करता है और हम यह जानते हुए कि हमारे बच्चे की सेहत के लिए मैगी ठीक नहीं है फिर भी हम मैगी खरीदते ही नहीं हैं बल्कि उसे खाने भी देते हैं तो क्या हम अपने मर्जी के राजा बनकर खरीदते हैं?

नहीं नहीं ऊपरी तौर पर नहीं बल्कि जरा गहराई और ईमानदारी से विषय पर सोचिए। अगर आप सोच रहे हैं कि आप अपने बच्चे की जिद के आगे नतमस्तक हो रहे हैं तो माफ कीजिएगा आप गलत हैं। उस कंपनी ने आपके बच्चे को माध्यम बनाकर आपको अपना उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर कर दिया।

यह तो एक उदाहरण है। सोचेंगे तो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे कितने ही उदाहरण हमें मिल जाएंगे। लेकिन बात सिर्फ इतनी-सी नहीं है कि उपभोक्तावाद के इस दौर में हमारी खाने पीने की आदतें प्रभावित हो रही हैं। बात इससे काफी आगे बढ़ चुकी है।

क्योंकि बात अब एक व्यक्ति के तौर पर, एक परिवार के तौर, पर एक समाज के तौर पर हमारे मूल्यों, हमारी नैतिकता, हमारे व्यक्तित्व, हमारे आदर्शों के कभी "कूल" बनने के नाम पर तो कभी "चिल आउट" के नाम, पर कभी "अपने लिए जीने" के नाम पर तो कभी "हाँ मैं परफेक्ट नहीं हूँ" के नाम पर हमारे विचारों के प्रभावित होने तक पहुंच गई है।

परिणामस्वरूप सदियों से चली आ रही हमारी पारिवारिक और सामाजिक संरचना के मूल विचार भी प्रभावित होने लगे हैं। क्योंकि बाज़ारवाद के इस दौर में हम एक उपभोक्ता के रूप में उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के लिए पैसा कमाने का एक साधन मात्र हैं। एक बच्चे के रूप में, एक युवा के रूप में, एक पुरुष के रूप में एक महिला के रूप में एक बुजुर्ग के रूप में हम उनके लिए एक टारगेट कस्टमर से अधिक कुछ नहीं हैं। अपने लक्ज़री उत्पादों को बेचने के लिए किसी समाज को विलासिता की ओर आकर्षित करना बाज़ारवाद की स्ट्रेटेजी का हिस्सा होता है। कोई आश्चर्य नहीं आज इस तरह के वाक्य बहुत प्रचलन में हैं कि ''हाँ मैं परफेक्ट नहीं हूँ" या "मैं जैसी हूँ या जैसा हूँ मुझे वैसे ही स्वीकार करो"।

आज की पीढ़ी तो इन वाक्यों के प्रति आकर्षित भी होती है और सहमत भी। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि जो बाज़ारवाद अपने भौतिक सुखों को देने वाली वस्तुओं को खरीदने के लिए हमें "ये दिल मांगे मोर" या "डर के आगे जीत है" जैसे संघर्षशील बनने का जज्बा देता है, वो ही बाज़ारवाद जब बात हमारे व्यक्तित्व के विकास की आती है, हमारे नैतिक उत्थान की आती है, हमारे भीतर पारिवारिक या सामाजिक मूल्यों के विकास की आती है तो जो "मैं जैसा हूँ या जैसी हूँ वैसा ही स्वीकार करो" या फिर "मैं एक साधारण मनुष्य हूँ भगवान नहीं" जैसे विचार परोस देता है। वो बाज़ारवाद जब बच्चों और माँ से सम्बंधित कोई उत्पाद बेचता है तो अपने विज्ञापन में महिला को एक "परफेक्ट मॉम" से लेकर "सुपर मॉम" तक के रूप में दर्शाता है लेकिन वही बाज़ारवाद जब अपना कोई विलासितापूर्ण उत्पाद बेचता है तो महिला के लिए "हाँ मैं परफेक्ट नहीं हूँ" या फिर "इट्स ओके नॉट टू बी परफेक्ट" का विचार देता है।

अब आप कहेंगे कि इन वाक्यों में क्या दिक्कत है। इन वाक्यों में दिक्कत ये है कि ये वाक्य अधूरे हैं और अधूरे वाक्यों के रिक्त स्थान को हर कोई अपने हिसाब से भरने के लिए स्वतंत्र है। वैसे भी कहते हैं कि ज्ञान के न होने से इतना नुकसान नहीं होता जितना कि अधूरे ज्ञान होने से होता है। इन वाक्यों के साथ भी यही हो रहा है। सम्पूर्ण विश्व में आप किसी भी देश या संस्कृति में देखें तो हम पाएंगे कि एक मानव के रूप में जन्म लेने वाला हर व्यक्ति निरंतर अपने उत्थान अपनी तरक्की की सोचता है। वो अपनी पूरी जीवन यात्रा में रोज कुछ नया सीखता है और आगे बढ़ता है। सोशल स्टेटस की बात हो या भौतिक सुखों की, मनुष्य आगे बढ़ना चाहता है। घर बड़ा चाहिए, गाड़ी बड़ी चाहिए, बैंक बैलेंस बड़ा चाहिए लेकिन जब व्यक्तित्व के विकास की बात आए, नैतिक मूल्यों के विकास की बात आए तो इट्स ओके नॉट टू बी परफेक्ट! बात जब व्यक्तिगत या पारिवारिक या फिर सामाजिक मूल्यों की आए तो मैं भगवान नहीं इंसान हूँ!

जब इस प्रकार के अधूरे वाक्य समाज के आगे परोस दिए जाते हैं तो इन वाक्यों के रिक्त स्थान मनुष्य को, परिवार को और समाज को उनके मूल्यों से रिक्त कर देते हैं। फलस्वरूप उपभोक्तावाद की संस्कृति का मूल्य हम कुछ ऐसे चुकाते हैं कि हमारे नैतिक और सामाजिक मूल्य बाज़ारवाद के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम इन वाक्यों के रिक्त स्थान को सही शब्दों और सही विचारों से भरे। हम कहें कि "हां मैं परफेक्ट नहीं हूँ लेकिन मैं परफेक्ट बनने की कोशिश तो कर ही सकता हूँ।"

हम सोचें कि हाँ, इट्स ओके नॉट टू बी परफेक्ट "बट इट्स नॉट ओके नॉट इवन ट्राय टू बिकम परफेक्ट।" क्योंकि मानव जीवन का सार इन शब्दों में सिमटा है, "इस धरती पर जन्म लेते समय हर जीव अज्ञानी होता है लेकिन अपने जीवन काल में ज्ञान अर्जित करके अपनी बुद्धि को ज्ञान और विवेक की नई ऊंचाइयों तक ले जाने का कर्म योग करने वाला जीव ही सही मायनों में मानव कहलाने का अधिकारी होता है।"

-डॉ. नीलम महेंद्र

(लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)

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