90 अंकों से ज्यादा वाले हों या कम वाले, शिक्षा पर सभी का समान हक़
जो नब्बे के नीचे हैं उनका भी शिक्षा पर उतना ही हक़ है जितना नब्बे के पार वालों का है। संभावनाएं और भी हैं बस ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी आंखों और महत्वाकांक्षाओं को खोलकर देखें और सर्च करें।
हरिवंश राय बच्चन जी की प्रसिद्ध कविता की पंक्ति उधार लेना चाहता हूं, इस पार प्रिय तुम तो, मय है, उस पार न जाने क्या होगा...। हाल ही में बारहवीं के रिजल्ट आए। रिजल्ट को देखकर एकबारगी महसूस हुआ अंकों का खेल भी क्या निराला है। नब्बे से ज़्यादा हासिल करने वाले बच्चों की संख्या बताया जाता है तकरीबन सत्तर हज़ार है। बाकी जो बचे वे इत्यादि हैं। उनकी गिनती तीन में न तेरह में होगी। वे किसी कोने में सुबकते मिलेंगे। उन्हें मालूम है। बल्कि एहसास कराया गया है कि नब्बे नहीं लाए तो क्या लाए। तुम्हें कहीं कोई नहीं पूछेगा। बच्चन जी की काव्य पंक्ति में रद्दो बदल कर दुहराता हूं कि नब्बे से न जाने क्या होगा। उस पर प्रिये कॉलेज हैं, कोर्स हैं, इंस्टीट्यूट हैं, नब्बे के इस पार पास कोर्स हैं। अंकों के पहाड़ पर चढ़ाई इतनी आसान बनायी गयी है कि यदि बच्चे थोड़े सचेत हुए तो सहजता से अस्सी और नब्बे का बाड़ा पार कर लेंगे। इसके लिए निरंतर अभ्यास और रूचि को बनाए रखना होगा। इन अंकीय पहाड़ों की चढ़ाई को 2004 के बाद और आसान बना दिया गया। अब कोई भी इस पहाड़ पर चढ़कर परचम लहरा सकता है। लेकिन उतरने के बाद किसी को याद भी नहीं रहते। साल दो साल मीडिया की वजह से आंकड़ों में जिंदा रह लेते हैं फिर गुमनामी और कोर्स के चक्कर में आप भी भूल जाते हैं कि आपने रिकॉड भी ब्रेक किया था। एक बच्ची को नब्बे पार अंक हासिल करने पर बधाई दी। तो सुनने को मिला क्या अंकल यह भी कोई मार्क्स है। फला को नाइन्टी एट आए हैं। मुझे इस नाइन्टी फोर लेकर क्या करना मुझे तो मेडिकल में जाना है।
जिन्हें सौ के बेहद करीब अंक आए वे भी दुखी हैं और जिन्हें अस्सी के पास मिले वे तो मायूस हैं ही। उन्हें कम से कम दिल्ली विश्वविद्यालय के बेहतर माने जाने वाले कॉलेजों में दाखिला मिलना मुश्किल है। उन्हें न तो अच्छे कॉलेज मिलेंगे और न इच्छित कोर्स ही। वे कहां जाएंगे। उनके लिए कौन सी दुकान है जहां ये बच्चे पढ़ेंगे? धैर्य न खोएं यदि आपकी ज़ेब में पैसे हैं, आंखों में उदासी के साथ ही सपने कुलांचे मार रहे हैं तो कॉलेज भी हैं। कोर्स भी हैं। बस एक बार एप्रोच करने की आवश्यकता है। दिल्ली से सटे कई निजी विश्वविद्यालयों की दुकानें सजी हुई हैं। जहां पैसे खर्च कीजिए और मन माफिक कोर्स में पढ़िए। सावधान रहिएगा!!! जिस बीए पास या ऑनर्स का खर्च दिल्ली विश्वविद्यालय में बीस से तीस हज़ार है वहीं उन संस्थानों में लाखों खर्च करने होंगे। एक बीए की डिग्री आपको कम से कम बीस से तीस लाख की पड़ेगी।
आर्थिक उदारीकरण ने समाज और राजनीति को गहरे प्रभावित तो किया ही। साथ ही शिक्षा को जितना नुकसान पहुंच सकता था उतनी हानि हुई। सरकारी संस्थानों को डिफ्ंक्शनल घोषित कर निजी शैक्षिक संस्थानों को पनपने दिया गया। यह प्रकारांतर से प्राथमिक और उच्च शिक्षण संस्थानों की जड़ में मट्ठा डालने का काम 1989−90 के आस−पास शुरू हो चुका था। सरकार जिसकी भी थी लेकिन उसका खामियाजा आज समाज को उठाना पड़ रहा है। जिस रफ्तार से शिक्षा महंगी हुई है उसे देखते हुए लगता है कि 2030 तक शिक्षा का अधिकार आम से सिमट कर हाशिए पर चला जायेगा। जहां सिर्फ वही तालीम हासिल करेंगे जिसकी जेब मोटी है। बाकी स्किल इंडिया को प्रमोट करेंगे, कैम्पेन को हवा दे रहे होंगे। कौशल भारत के निर्माण में आठवीं के बाद काम में लग जाएंगे। ऐसे बच्चों व युवाओं को उच्च शिक्षा तक पहुंचने ही नहीं दिया जाएगा जो सच्चे मायने में शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी हैं, या फिर दिलचस्पी रखते हैं। गौरतलब है कि हमने 2030 का वर्ष विशेष संदर्भ में इस्तमाल किया है। यह वर्ष सतत् विकास लक्ष्य यानी सस्टेनेबल डेवलप्मेंट गोल 2030 के नाम से मनाने की घोषणा की गयी है। हमने यह घोषणा की है कि इस वर्ष तक सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि मुहैया करा देंगे। यह मत भूलें कि यह घोषणा है कि हम पूरा करें या इसे और आगे बढ़ाएं यह हम तय किया करेंगे।
जो नब्बे के नीचे हैं उनका भी शिक्षा पर उतना ही हक़ है जितना नब्बे के पार वालों का है। संभावनाएं और भी हैं बस ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी आंखों और महत्वाकांक्षाओं को खोलकर देखें और सर्च करें। क्या दुनिया मेडिकल और इंजिनियरिंग तक ही महदूद होती है? क्या कोर्स और लाइफ महज इन्हीं कोर्सों तक सिमट जाती है? ऐसा कत्तई नहीं है। पारंपरिक कोर्स के बाहर निकल कर मंथन करने और अपने आप को अन्य कोर्स के लिए तैयार करना भी ज़रूरी है। बल्कि एक कदम आगे बढ़कर देखा जाए तो कोर्स तक किसी की भी जि़ंदगी बंधी नहीं होनी चाहिए। नई नई संभावनाओं की तलाश बच्चों को करने की आवश्यकता है। एक सवाल यह उठ सकता है कि यदि आपको कॉमर्स, अंग्रेजी, हिस्ट्री आदि नहीं मिलती तो दुनिया रूक नहीं जाती। बल्कि आगे बढ़कर अन्य कोर्स में प्रयास करने की आवश्यकता है।
महज कोर्स व कॉलेज के पीछे भागने व निराश होने की आवश्यकता नहीं बल्कि आप स्वयं से और स्वयं के लिए किस प्रकार की लाइफ की उम्मीद करते हैं यह ज़्यादा मायने रखती है। इस लिहाज़ से हमें अपने जीवन के लिए बेहतर रास्ते चुनने चाहिएं बजाय कि कोर्स और कॉलेज के पीछे समय जाया किया जाए। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि हम स्वयं में स्पष्ट हो जाएं कि हमें क्या करना है? हमें किस तरह लाइफ में आगे बढ़ना है। हालांकि आज के बच्चे बारहवीं तक आते आते काफी कुछ रिसर्च कर चुके होते हैं उन्हें काफी हद तक यह भी स्पष्ट समझ बन चुकी होती है कि उन्हें क्या बनना है। यह अलग बात है कि बच्चों की रूचियां और इच्छाएं कई बार अभिभावकों की रूचियों से तय हुआ करती हैं। लेकिन उसी शिद्दत से बच्चे अपनी रूचियों को भी तवज्जो देते हैं। ऐसे बच्चों की भी संख्या कम नहीं है जिन्हें मालूम होता है कि बारहवीं के बाद किस दिशा में जाना है। वहीं हक़ीकत यह भी है काफी बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की भी है जो अभी भी अभिभावकों के कंधे पर ही टंगे होते हैं। उन्हें यह चिंता ज़रा भी नहीं होती कि आखिर पढ़ना और जीवन की राह उन्हें खुद तय करनी होती हैं।
-कौशलेंद्र प्रपन्न
(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी एक्सपर्ट)
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