भारत जेनोफोबिक नहीं बसुधैव कुटुंबकम का प्रबल पक्षधर, अपनी गिरेबां में झांकें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन

Joe Biden
ANI
कमलेश पांडे । May 8 2024 1:08PM

बाइडन का यह कहना कि यदि रूस और चीन के साथ जापान प्रवासियों को अधिक अपनाएगा तो आर्थिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करेगा। उन्होंने वहां उपस्थित लोगों से सवालिया लहजे में पूछा भी कि- चीन आर्थिक रूप से इतनी बुरी तरह क्यों रूक गया है?

प्राचीन काल से ही 'वसुधैव कुटुंबकम' और 'सर्वे भवंतु सुखिनः' जैसा उदात्त विचार रखने वाले भारत को यदि कोई जेनोफोबिक यानी विदेशियों से द्वेष रखने वाला ठहराए, तो ये उसकी अपनी मर्जी है, खुदगर्जी है। जी हां, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने पिछले दिनों वाशिंगटन में प्रवासियों की एक बैठक में जब यह कहा कि भारत, चीन, जापान और रूस की जेनोफोबिक (विदेशियों से द्वेष वाली) प्रकृति उनकी आर्थिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार है, तो दुनिया के थानेदार की रणनीतिक विवशता स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही थी। उनकी इस टिप्पणी के गहरे सियासी मायने हैं, जिन्हें वैश्विक कूटनीति के लिहाज से समझने की जरूरत है। क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति जब कुछ बोलता है तो वह अनायास नहीं होता, बल्कि रणनीतिक होता है, जिसके शब्द-शब्द में दुनियावी संघर्ष के सूत्र और पारस्परिक जद्दोजहद के भाव चतुराई पूर्वक गूंथे गए होते हैं। 

बाइडन का यह कहना कि यदि रूस और चीन के साथ जापान प्रवासियों को अधिक अपनाएगा तो आर्थिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करेगा। उन्होंने वहां उपस्थित लोगों से सवालिया लहजे में पूछा भी कि- चीन आर्थिक रूप से इतनी बुरी तरह क्यों रूक गया है? जापान को परेशानी क्यों हो रही है? रूस और भारत क्यों परेशान हैं? क्योंकि वे जेनोफोबिक हैं। वे प्रवासी नहीं चाहते। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि अमेरिका तो शुरू से ही प्रवासियों की भूमि रही है। जब ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज अस्त नहीं होता था, तब से अमेरिका खुद को मजबूत बना रहा था। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ग्रेट ब्रिटेन का रुतबा कम होने लगा और उसके अभिन्न मित्र के रूप में अमेरिका का प्रभुत्व बढ़ने लगा।

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हालांकि जब यूएसए और यूएसएसआर (सोवियत संघ) यानी अमेरिका और रूस में शीतयुद्ध बढ़ा और भारत जब रूस के करीब आया तो अमेरिका ने चीन-जापान से नजदीकियां बढ़ा लीं। वहीं, भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीतियों के चलते जब सोवियत संघ बिखर गया और रूस अपेक्षाकृत कमजोर पड़ गया तो अमेरिका ने भारत पर भी डोरे डाले और रूस-चीन की नजदीकियां बताकर भारत के अभिन्न मित्र बनने का स्वांग रचने लगा। इन तमाम रणनीतिक कसरतों के पीछे अमेरिका का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि वह दुनिया का थानेदार बना रहे।

वहीं, बदलते वैश्विक परिवेश में जब भारत में मोदी सरकार आई और पिछले एक दशक में ताबड़तोड़ रणनीतिक और कूटनीतिक फैसले लेते हुए भारतीय गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को मजबूती पूर्वक अपनाए रखा और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भारतीय हितों को तरजीह देना शुरू किया तो अमेरिका, चीन और रूस का नजरिया भारत के प्रति बदलने लगा। फ्रांस और जापान से भारत के मजबूत रिश्ते भी कइयों को चुभने लगे। यह कड़वा सच है कि एक तरफ रूस यूक्रेन में अमेरिकी चाल में फंस गया तो दूसरी तरफ चीन ताइवान में फंसने को तैयार बैठा है, जबकि भारतीय नेतृत्व ने सूझबूझ से काम लिया और चीन-पाकिस्तान से जुड़े अमेरिकी गेम प्लान में फंसने से इंकार कर दिया। यहीं से अमेरिकी नेतृत्व भारत से चिढ़ने लगा और हाल के दिनों में अपनी अटपटी बयान बाजियों से यह संकेत देने लगा कि वह भारत और उसके मित्र जापान को भी रूस और चीन के तराजू पर ही तौलना चाहता है, जो उसकी रणनीतिक भूल है। भारत का मित्र देश इजरायल जब फिलिस्तीन संघर्ष में उलझा तो अमेरिकी इफ एंड बट से उसे मजबूती नहीं बल्कि कमजोरी मिली। इससे साफ है कि एक मित्र के रूप में दुनिया का थानेदार अमेरिका किसी का भरोसेमंद नहीं है। पाकिस्तान से अफगानिस्तान तक उसकी चालें किसी से छिपी हुई नहीं हैं। 

ऐसे माहौल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा अर्थव्यवस्था के बहाने ही सही, लेकिन भारत समेत रूस, चीन और जापान पर निशाना साधना यह जाहिर करता है कि रूस से लेकर चीन तक और ईरान से लेकर अफ्रीका तक विभिन्न मोर्चे पर घिरे अमेरिका के पास अब मित्रों के साथ शत्रुओं सरीखा व्यवहार करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। ऐसा इसलिए कि उसके मित्र देश अमेरिकी हथियार लॉबी की चालों में अब और फंसना नहीं चाहते। शायद इसलिए उन्हें प्रवासियों की याद आई है, जो अमेरिका के चुनाव में इस बार भी अहम भूमिका निभाने को बेताब नजर आ रहे हैं।

इन प्रवासियों को ही सम्बोधित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि, "आप जानते हैं, हमारी अर्थव्यवस्था के बढ़ने का एक कारण आप और कई अन्य लोग हैं। क्योंकि हम प्रवासियों का स्वागत करते हैं। हम इसके बारे में सोचते हैं। ऐसा इसलिए कि प्रवासी ही हमें मजबूत बनाते हैं। यह कोई मजाक नहीं है। यह अतिशयोक्ति नहीं है। हमारे पास ऐसे श्रमिकों की आमद है, जो यहां रहना चाहते हैं और सिर्फ योगदान देना चाहते हैं।"

गौरतलब है कि प्रवासियों का आना अमेरिकी राजनीति में प्रमुख मुद्दा है। नवंबर 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में यह निश्चित रूप से अहम भूमिका निभाएगा। आंकड़े बताते हैं कि 2021 के बाद से प्रतिवर्ष 20 लाख लोग अवैध रूप से सीमा पार कर अमेरिका में घुसे हैं। अवैध प्रवासियों के आने का यह अब तक का उच्चतम स्तर है। वहीं, अमेरिकी नेतृत्व को यह पता होना चाहिए कि उनके देश में प्रवासी भारतीयों की भी अच्छी खासी तादात है। इसलिए भारत और जापान के बारे में उनको वैसी राय नहीं रखनी चाहिए, जैसा कि वो रूस और चीन के बारे में रखने को आदि हो चुके हैं। अमेरिका का दूरगामी हित इसी बात में निहित है।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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