Gyan Ganga: विभीषण की बात मानने पर क्यों मजबूर हो गया था रावण ?
रावण ने सुना, तो एक बार के लिए तो वह सोच में पड़ गया। इसलिए नहीं कि उसे श्रीविभीषण जी की सीख बहुत सुहानी लगी थी। अपितु रावण यह सुन कर मन ही मन प्रसन्न हो रहा था, कि चलो मेरी प्रभुता का गुणगान, किसी ने तो किया।
भगवान श्रीराम जी अपने भक्तों पर आँच भला कैसे आने दे सकते हैं। वे तो हैं ही सृष्टि नायक। वे जब चाहें, जिसे चाहें, उसे अपनी कृति में कोई पात्र निभाने को दे सकते हैं। वे चाहें तो चींटी को भी ताज पहना सकते हैं। और उनकी इच्छा हो, तो वे वन के राजा सिंह से भी मूषक की स्तुति करवा सकते हैं। उनकी दिव्य लीलायें विचित्र से भी विचित्र हैं। श्रीहनुमान जी को निःसंदेह, अब लंका का प्रत्येक वानर मारना चाहता था। कारण कि श्रीहनुमान जी ने अपने नन्हें से लंका प्रवास में, अनेकों राक्षसियों के सुहाग को उजाड़ दिया था। और अब तो राक्षसराज रावण का भी आदेश हो चुका था, कि इस वानर को पकड़ का मारो। राक्षस भले ही बजरंग बली महाराज जी से अतिअंत भयभीत थे। लेकिन श्रीहनुमान जी को प्राणहीन देखना, सभी के हृदय की तीव्र अच्छा थी। मानों कि राक्षस, श्रीहनुमान जी को मारने के लिए दौड़ ही पड़े थे। लेकिन ठीक उसी अवसर पर श्रीविभीषण जी का आगमन हो जाता है। और श्रीविभीषण जी रावण के हाथ-पैर जोड़ने लगते हैं। वे रावण को दृढ़ भाव से कहते हैं, कि हे नाथ! आप तो नीति के प्रकाण्ड ज्ञाता हो। फिर भला आप से यह भूल कैसे हो सकती है। आपने तो चारों वेदों को कंठस्थ किया हुआ है। नौ व्याकरणों का आपने सार जाना है। फिर भला आपके हाथों से यह अनीति पूर्वक कार्य, आखिर हो ही कैसे सकता है? आप तीनों लोकों के स्वामी हो। समस्त सुर-असुर, किन्नर, भूत-पिशाच इत्यादि, आपको आदर्श मानते हैं। वे भला आपसे क्या शिक्षा लेंगे। इसलिए एक दूत को मार कर, वह भी एक वानर को, निःसंदेह इससे संपूर्ण जगत में आपकी कीर्ति की हानि ही होगी। इसलिए मेरी विनति है, कि आप दूत को कतई न मारें। हाँ, आपको लगता है, कि दूत ने आपके सम्मान को अधिक चोट पहुँचाई है, तो आप किसी अन्य दण्ड पर विचार कर सकते हैं-
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‘नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।’
रावण ने सुना, तो एक बार के लिए तो वह सोच में पड़ गया। इसलिए नहीं कि उसे श्रीविभीषण जी की सीख बहुत सुहानी लगी थी। अपितु रावण यह सुन कर मन ही मन प्रसन्न हो रहा था, कि चलो मेरी प्रभुता का गुणगान, किसी ने तो किया। वरना यह वानर तो मुझे ऐसे लताड़ रहा था, कि एक बारगी तो मुझे भी ऐसा प्रतीत होने लगा था, कि मेरी तो कुछ औकात की नहीं। दुष्ट कपि के शब्द-बाण ऐसे तीक्षण थे, कि मुझे भीतर ही भीतर छलनी किए जा रहे थे। यूँ लग रहा था, जैसे लंका का राजा मैं नहीं, अपितु यह वानर है, और मैं तो एक बंदी हूँ। लेकिन यह तो भला हो मेरे प्रिय भाई का, कि उसने मुझे मेरी वास्तविक्ता से पुनः परिचय करवाया। कुछ भी है, भाई तो फिर भाई ही होता है। इसे पता है, कि मेरा वास्तविक बल व सामर्थ्य क्या है। भला वानर क्या जाने, कि मेरी प्रभुता क्या है। निश्चित ही मुझे मेरे भाई की ही माननी चाहिए। जैसा नीति प्रिय न्याय मेरा भाई, मुझसे चाहता है, मैं ठीक वैसा ही करूँगा। मैं इस वानर को मृत्यु दण्ड तो रहने ही देता हूँ। रावण को क्या पता था, कि श्रीविभीषण जी ने उसकी प्रशंसा थोड़ी न की थी। बल्कि उसकी झूठी प्रशंसा करके, उसे फुलाया भर था। ताकि रावण फूल के कुप्पा हो जाये। और श्रीहनुमान जी को मृत्यु दण्ड के निर्णय को टाल दे। प्रभु कृपा से हुआ भी ऐसा ही। रावण ने अपना इरादा बदल दिया। और चौड़ा होकर बोला, कि ठीक है, हम इस वानर को मृत्यु दण्ड नहीं देंगे। लेकिन दण्ड ऐसा भी तो होना चाहिए न, कि वानर को सदैव अपनी गलती का अहसास होना चाहिए। सुना है, कि वानर को अपनी पूँछ अतिशय प्रिय होती है। क्यों न मैं इस वानर को बिना पूँछ के कर दूँ। हाँ, यह वाकई में उचित रहेगा। और रावण उसी समय पर आदेश करता है, कि वानर को अंग-भंग करके वापस भेज दिया जाये-
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‘सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर।।
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।’
मैं आदेश देता हूँ, कि तेल में कपड़ा डुबोकर, उस कपड़े को इस वानर की पूँछ पर बाँध दिया जाये। यह सुनते ही सभी राक्षसगण इतने प्रसन्न हुए, कि शायद इतने प्रसन्न तो वे तब नहीं हुए थे, जब उन्होंने श्रीहनुमान जी को मृत्यु दण्ड मिलने का आदेश सुना था।
श्रीहनुमान जी रावण का यह आदेश सुन कर क्या सोचने लगते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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