Gyan Ganga: भगवान शंकर के दर्शन मात्र से ही सब सामान्य क्यों हो गया?
जैसे ही कामदेव ने अपनी कलायों का प्रभाव फैलाया, उसी समय ऐसा कौतुक घटा, कि समस्त संसार उसके वश में हो गया। जिस समय उस मछली के चिन्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षमभर में ही वेदों की मर्यादा मिट गई।
विगत अंक में हमने बडे़ विस्तार से मंथन किया था, कि कामदेव ने अपनी मृत्यु निश्चित जान कर भी, मात्र लोक कल्याण के लिए देवताओं की सहायता करने की ठानी। वह अपने पूरे प्रभाव के साथ भगवान शंकर की समाधि को भंग करने जा पहुँचा। उसने दूर से देखा, कि भोलेनाथ गहन समाधि में लीन हैं। जिन्हें देखकर किसी का भी मन उनके प्रति सुंदर भावों से भर जाये। लेकिन तब कामदेव ने अपने मन को वश में रखा, और अपनी कलायों का विस्तार आरम्भ किया-
‘तब आपन प्रभाउ बिस्तारा।
निज बस कीन्ह सकल संसारा।।
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू।
छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू।।’
जैसे ही कामदेव ने अपनी कलायों का प्रभाव फैलाया, उसी समय ऐसा कौतुक घटा, कि समस्त संसार उसके वश में हो गया। जिस समय उस मछली के चिन्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षमभर में ही वेदों की मर्यादा मिट गई। ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संगम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य, आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई। विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया। उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब सदग्रंथ रुपी पर्वत की कन्द्राओं में जा छिपे। कहने का तात्पर्य कि ज्ञान, वैराग्य, संयमख, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गए। सारे जगत में खलबली मच गई। हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है? संसार में यह दृष्य आम हो गया, कि जितने भी युवावस्था वाले स्त्री-पुरुष थे, वे सब काम के आधीन हो गए। सबके हृदयों में काम भाव की इच्छा प्रबल हो उठी। लताओं के दर्शन कर जितने भी वृक्षों की डालियाँ थी, वे उनकी ओर झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़ कर सागर की ओर दौड़ीं, और ताल-तलैयाँ भी आपस में कामवश होकर संगम करने लगीं-
‘जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी।
को कहि सकइ सचेतन करनी।।
पसु पच्छी नभ जल थल चारी।
भए काम बस समय बिसारी।।’
अर्थात जब जड़ की यह दशा कही गई, तब आप अनुमान लगा लीजिए, कि चेतन जीवों की अवस्था को कौन कह सकता है। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरन वाले सारे पशु-पक्षी अपने संयोग का समय विस्मरण कर काम के वश में हो गए। सब लोक काम में ऐसे अँधे हुए कि वे अत्यंत व्याकुल हो उठे। चकवा-चकवी कोई रात दिन नहीं देख रहे थे। देव-दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल आदि ये सब तो सदा से ही काम के गुलाम हैं। यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के बिरही हो गए।
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ऐसे में सोचिए कि जब इतने महान योगी और महा तपस्वी भी काम के वश में हो गए, तो पामर मनुष्यों की आखिर बात ही क्या करनी। जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रीयों सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं, और पुरुष सारे संसार को स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कोतुक चलता रहा। किसी के भी हृदय में धैर्य न रहा, कामदेव ने सबके मन हर लिए। केवल वे ही बचे जिनकी रक्षा स्वयं श्रीरघुनाथ जी ने की। कामदेव ने वह सब किया, जो उसे करना चाहिए था। केवल भगवान शंकर ही थे, जिन पर उसने अपने अस्त्र अभी चलाने थे। दो घड़ी तक मानों सब तमाशा चलता रहा। तभी कामदेव भगवान शंकर के समक्ष जा पहुँचा। किंतु उसने जैसे ही भगवान शंकर का दर्शन किया, तो वह डर गया। वह भय से काँपने लगा। जिसका प्रभाव यह हुआ, कि समस्त संसार कामदेव के कामभाव से मुक्त हो गया। तब सारा संसार जैसा था, फिर वैसे का वैसा सरल भाव में हो गया। सब वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले लोग नशा उतर जाने के पश्चात सुखी होते हैं।
भगवान शंकर के दर्शन मात्र से ही सब सामान्य क्यों हो गया, और क्या कामदेव भगवान शंकर की समाधि भंग करने में सफल हो पाता है? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
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