Gyan Ganga: भीष्म गीता का प्रवचन कर रहे थे तो द्रौपदी को हँसी क्यों आई?
भक्तमाल में कथा अंतर्यामी और धर्म निष्ठ सेठ की एक कथा आती है, जहाँ भगवान ने उस सेठ के प्रेम के वशीभूत होकर किंकर अर्थात नौकर बनकर काम किया था। भगवान नौकर बनने के लिए भी तैयार हैं। बस कोई बनाने वाला चाहिए।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम:॥
प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों !
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि कुंती भगवान से दुख मांगती है क्योंकि विपत्तियों में प्रभु के दर्शन होते हैं। धन्य है कुंती का जीवन, भगवान से दुख मांगती है ताकि उनका साक्षात्कार होता रहे। आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं।
युधिष्ठिर भीष्म संवाद
महाभारत युद्ध के आरंभ में अर्जुन के मोह निवृति के लिए भगवान कृष्ण ने स्वयम गीता का उपदेश दिया और युद्ध समापन के बाद युधिष्ठिर की मोह निवृति के लिए भीष्म पितामह से उपदेश करवाया, जिसे भीष्म गीता कहते हैं।
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महाभारत युद्ध के पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर भाई-बंधुओं की मृत्यु से बहुत दुखी थे। कहीं प्रजा में विद्रोह न हो जाए इस भय से डरे हुए थे। धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुरुक्षेत्र मे जहां भीष्म पितामह शरशैया पर पड़े थे, वहाँ गए। उनके साथ सभी पांडव, श्रेष्ठ ऋषि और भगवान श्रीकृष्ण भी थे। सभी ने पितामह को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
इस अनोखे दृश्य को देखने के लिए स्वर्ग से देव-गण भी पधारे।
भीष्म पितामह ने सभी का यथोचित सत्कार किया। भगवान कृष्ण की पूजा की, धर्म पुत्रों को देखा। उनकी आँखें प्रेम के आंसुओं से भर गईं। कहा– पांडवो! न्याय और धर्म के मार्ग पर चलते रहने के बाद भी तुम लोगों को इतना कष्ट उठाना पड़ा। धर्म राज युधिष्ठिर, गदाधारी भीम, धनुर्धारी अर्जुन, चक्रधारी कृष्ण इन सबके रहते हुए भी इतनी विपत्ति। ये चक्रधारी कृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, किसी को नहीं मालूम।
युधिष्ठिर ! अब तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो। इस श्री कृष्ण को जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई समझते हो, सारथी बनाने में भी संकोच नहीं किया। वे स्वयं परमात्मा हैं। भगवान दास और किंकर बनने के लिए भी तैयार हैं।
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भक्तमाल में कथा अंतर्यामी और धर्म निष्ठ सेठ की एक कथा आती है, जहाँ भगवान ने उस सेठ के प्रेम के वशीभूत होकर किंकर अर्थात नौकर बनकर काम किया था। भगवान नौकर बनने के लिए भी तैयार हैं। बस कोई बनाने वाला चाहिए। तुम लोगों के प्रेम के अधीन होकर भगवान ने अर्जुन के रथ हाँकने में भी संकोच नहीं किया। इस प्रकार कहते हुए भीष्म ने कृष्ण की तरफ इशारा किया, और कहा---
स देव देवो भगवान प्रतीक्षतां कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम्
प्रसन्नहासारूण लोचनोल्लसत् मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुज:।।
मैंने आपकी बहुत प्रतीक्षा की, अब जब तक मैं प्राण न छोडूं तब तक आप मेरी प्रतीक्षा कीजिए। कृष्ण ने सोचा, अच्छी duty लगाई। इनको तो इच्छा मृत्यु का वरदान मिला है, पता नहीं किस संवत्सर में प्राण छोड़े। भीष्म ने कहा--- मैं लटका हुआ मुँह नहीं देखना चाहता, मैं आपका मुसकुराता हुआ मुखमंडल देखना चाहता हूँ। कृष्ण ने अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेरी। मुस्कान देखते ही भीष्म का हृदय आनंद से भर गया। चुभते हुए बाणों का सारा दर्द गायब हो गया। अब भीष्म ने युधिष्ठिर की ओर इशारा किया, पूछो, क्या पुछना चाहते हो? युधिष्ठिर ने शर शैया पर पड़े भीष्म पितामह से सबके सामने धर्म के संबंध मे कई रहस्य पुछे। तत्वों को जानने वाले भीष्म ने धर्म, अधर्म, राग-वैराग्य, दान धर्म, राज धर्म, स्त्री धर्म और भगवत धर्म की अच्छी तरह से व्याख्या की।
दान धर्मान् राजधर्मान मोक्ष धर्मान विभागश:
स्त्री धर्मान् भगवत्धर्मान् समास व्यास योगत:।।
इसको भागवत में भीष्म गीता कहते हैं। भीष्म गीता का प्रवचन कर ही रहे थे कि वहाँ मौजूद द्रौपदी को हँसी आ गई। सबके सामने इस तरह से कुलवधू का हँसना, किसी को अच्छा नहीं लगा। भीष्म ने पूछ दिया, तुमने इन सभी महानुभावों के सामने इस तरह से हँसकर मर्यादा का उलंघन किया है। हंसने का कारण स्पष्ट करो। द्रौपदी ने नम्रता पूर्वक निवेदन किया। पितामह! भरी सभा में दु;शासन मेरा चीर हरण कर रहा था, उस समय आप भी वहाँ मौजूद थे, लेकिन कुछ नहीं कहा और आज इस तरह का उत्कृष्ट उपदेश दे रहे हैं। सच कहा गया है-
पर उपदेश कुशल बहुतेरे जे आचरहि ते नर न घनेरे।
आपके चरित्र में विरोधाभास देखकर मुझे हँसी आ गई। मेरे इस अपराध को क्षमा करें महाराज। भीष्म का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। कहा- दुर्योधन का दूषित अन्न खाने से मेरी बुद्धि भी दूषित हो गई थी। अब अर्जुन के बाणों से क्षत-विक्षत हुए मेरे शरीर से निकली रक्त-धारा में मेरी कलुषित बुद्धि भी निकल गई है।
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भागवत का एक सुंदर-सा संदेश दूषित अन्न हमारे तन-मन को दूषित कर देता है, हमे बचना चाहिए। भीष्म पितामह धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे, की उत्तरायण का समय आ गया। शास्त्रों में वर्णित है कि उत्तरायण मे मृत्यु का फल मोक्ष है। दक्षिणायन में स्वर्ग का द्वार बंद रहता है और उत्तरायण में खुल जाता है। ऐसी शास्त्रीय मान्यता है। आज कितना अच्छा संयोग है। समय भी उत्तरायण और सामने कृष्ण भी उत्तरायण उत्तरा के गर्भ मे जाकर परीक्षित की रक्षा करने वाले भगवान भी तो उत्तरायण हैं। माघ शुक्ल पक्ष एकादशी का दिन था। अब इससे अधिक शुभ घड़ी कब आएगी? पितामह की इच्छा पूरी हुई। एकादशी का दिन था। इसलिए उन्होंने 11 श्लोकों मे पुष्पिताग्रा छंद में भगवान की स्तुति की। भगवान की अर्चना पुष्प से करनी चाहिए इसलिए भीष्म पितामह ने अपने वचनों के सुमन भगवान कृष्ण को समर्पित किए।
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
-आरएन तिवारी
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