Gyan Ganga: जब भगवान श्रीराम पिता की तरह हनुमानजी पर लुटा रहे थे प्यार
और प्रभु अनुकूल हों तो हृदय की पीड़ा भला कैसे रह सकती थी। श्री हनुमान जी अपने बीते काल के समस्त कष्टों को बिसर गए और अब श्रीराम जी से कुछ मांगने की बारी थी। वैसे तो समस्त संसार ही धार्मिक स्थानों पर कुछ न कुछ मांगता ही है।
गतांक से आगे...भगवान श्रीराम जी को यूं प्यार लुटाते देख श्री हनुमान जी के हृदय में हर्ष व उल्लास की लहर दौड़ पड़ी। शाम को नौकरी से लौटे पिता को देख जैसे बालक चहचहा उठता है और पिता भी दुलारता हुआ उसे गोद में उठा लेता है। ठीक इसी तरह हनुमान जी को भी लग रहा था मानो श्री राम जी ने उन्हें गोद में उठा लिया हो। गोद में उठाकर पिता अपने स्नेह−दुलार के प्रसंग को यहीं थोड़ी विराम दे देता है। बच्चे को पूछता है कि बताओ बेटा तुम्हें क्या चाहिए। और बेटा भी कुछ न मांगे भला ऐसा कैसे हो सकता है। श्री हनुमान जी ने भी देखा कि आज प्रभु भी एक पिता समान मेरे अनुकूल हैं−
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देखि पवनसुत पति अनुकूला।
हृदयँ हरष बीती सब सूला।।
और प्रभु अनुकूल हों तो हृदय की पीड़ा भला कैसे रह सकती थी। श्री हनुमान जी अपने बीते काल के समस्त कष्टों को बिसर गए और अब श्रीराम जी से कुछ मांगने की बारी थी। वैसे तो समस्त संसार ही धार्मिक स्थानों पर कुछ न कुछ मांगता ही है। और मांगने के साथ ही एक व्यापारिक-सा व्यवहार भी करता है कि हे प्रभु! हम आपको सवा पांच रुपए का प्रसाद चढ़ाएँगे। बस एक बार आप मेरी पांच करोड़ रुपए की लॉटरी लगवा दीजिए। वाह! क्या बात है? हमने भगवान को कितना नादान समझ लिया है। भगवान को अगर हमारे सवा पांच रुपए का ही लालच हो तो क्या वे इसके लिए हमें पांच करोड़ रुपए चुकाएँगे? क्या वे इतना घाटे का सौदा कर सकते हैं? सज्जनों भगवान को कंकर देकर हीरा ऐंठने की मूर्खता हम कर ही कैसे सकते हैं? तभी तो आज हम सब कुछ होते हुए भी मन से दरिद्र हैं। प्रभु को रुपए से या भाव लगाकर नहीं खरीदा जा सकता। लेकिन अगर हृदय भक्तिमय भावों से भरा है तो बिकने के लिए मानो सदा ही तैयार बैठे हैं। क्योंकि प्रभु और उसके भक्त में भाव ही केन्द्र बिंदु हुआ करता है−
भाव के भूखे प्रभु हैं, भाव ही इक सार है।
भाव से उसको भजे जो, भव से बेड़ा पार है।
जब हम 'भाव शून्य' होते हैं तो हमारी झोली में भी केवल 'शून्यता' ही आती है। अतएव हम प्रभु के समक्ष जाकर भी खाली के खाली रह जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि प्रभु हमारे मांगने पर देते ही नहीं हैं। लेकिन विडंबना यह भी है कि हमारा मांगना भी तो मात्र केवल अपने स्वार्थ तक ही जुड़ा होता है। कहीं कोई परमार्थ की रत्ती भर भी भावना नहीं होती। तो प्रभु भला हम पर कैसे प्रसन्न होंगे। हमारी प्रार्थना भी तो भयंकर कपट पूर्ण होती है।
जैसे एक तथाकथित भक्त भगवान के समक्ष हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु! आप समस्त संसार के खज़ाने भर दो। सब झोलियों में खज़ाने उड़ेल दो। यह देख प्रभु को बड़ी प्रसन्नता हुई कि वाह! कितना अच्छा भक्त है। स्वयं के लिए कुछ मांग ही नहीं रहा। लेकिन अगली पंक्ति सुनते ही प्रभु का भ्रम टूट गया क्योंकि वह दिखावटी भक्त बोला−'प्रभु! आप सब को सब कुछ देना, लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखना कि जब सब खजाने बांटेगे तो शुरुआत मेरे से ही करना। वरना कुछ करना ही मत।' भगवान भी यह देखकर जीव के दुर्भाग्य को चाह कर भी बदल नहीं पाते हैं।
लेकिन यहाँ श्री हनुमान जी भी मांग रहे हैं। स्वार्थ के लिए नहीं अपितु परमार्थ के लिए, दूसरों के लिए−
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई।।
तेहि सम नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे।।
अर्थात हे प्रभु! वहाँ ऊपर पहाड़ी पर हम वानरों के राजा सुग्रीव रहते हैं। वे आपके दास हैं। और आप से विनती है कि आप जाकर उनसे मित्रता कीजिए। और उन्हें दीन समझ कर समस्त ओर से अभय कर दीजिए।
देखिए यहाँ श्री हनुमान जी स्वयं के लिए कुछ भी न मांगकर केवल सुग्रीव के लिए ही मांगते हैं। और सुग्रीव के लिए राजा शब्द संबोधन करते हुए तुरंत कह देते हैं कि प्रभु! वे केवल हम वानरों व वनवासियों के राजा हैं। लेकिन आप के तो दास ही हैं। मानो श्री हनुमान जी सुग्रीव का व्यक्तित्व प्रभु के सम्मुख रखना चाह रहे थे कि भले ही वे राजा हैं लेकिन राजाओं वाला अहंकार उनमें कहीं किंचित मात्रा भी नहीं और साथ ही वे आपके परम भक्त भी हैं।
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वाह! श्री हनुमान जी परमार्थ की कितनी पावन भावना का पालन कर रहे हैं। उनका प्रयास केवल एक ही है कि कोई जीव बस कैसे भी करके प्रभु से मिल पाए। फिर भले ही इसमें कुछ थोड़ा बहुत झूठ भी हो तो भी कोई बात नहीं। झूठ की बात हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वास्तव में सुग्रीव वर्तमान काल में 'राजा' नहीं अपितु 'निष्काषित राजा' हैं। इसका कारण है कि किष्किन्ध के राज्य पर तो अभी बालि का कब्जा था और उसने सुग्रीव की पत्नी पर भी जबरन अपना अधिकार जमा लिया था। और हकीकत में सुग्रीव का श्री राम जी के प्रति कोई दास वाला भाव भी नहीं था। क्योंकि वह तो श्री राम जी को बालि द्वारा भेजे गए कोई शत्रु प्रतीत हो रहे थे। लेकिन तब भी श्री हनुमान जी ने सुग्रीव के दास होने की घोषणा कर दी थी। परंतु शीघ्र ही श्री हनुमान जी को शायद इस गलती का अहसास हुआ और सोचा कि स्वामी तो दास की गलती पर क्रोधित हो दण्ड भी दे सकते हैं। और सुग्रीव ने कोई गलती कर ही देनी है। और नाहक ही लेने के देने पड़ जाएंगे। तो क्यों न मैं सुग्रीव के संबंध में लौकिक व्यवहार का तरीका ही बदल हूँ। क्योंकि मैं सुग्रीव को दास के साथ−साथ 'कपिपति' अर्थात् वानरों का राजा भी कह चुका हूँ। क्योंकि श्रीराम−सुग्रीव दो राजाओं के मध्य मित्राता का संबंध भी तो न्याय संगत ही है। सुग्रीव को श्री राम मित्र के रूप में ले लेंगे तो मित्र भाव की तो रीति ही यह है कि इसमें तो बड़ी से बड़ी गलती भी दण्ड की परिधि में नहीं आती। और न ही व्यवहार में स्वामी−दास की तरह कोई नीति पूर्वक, पारंपरिक मर्यादा का निर्वाह करने की आवश्यक्ता होती है। आसन आमने−सामने या बराबर भी लग सकते हैं। इसलिए श्री हनुमंत सुग्रीव जैसे पात्रा को भी प्रभु के समानान्तर मित्रावत् भाव में लाने को सज हो उठते हैं। और साथ में कह भी देते हैं−
'दीन जानि तेहिं अभय करीजे' अर्थात वे बड़े ही डरे−सहमे हुए हैं कि कहीं बालि उनका वध ही न कर दे। तो कृप्या आप उन्हें अभयदान अवश्य दीजिएगा।
सज्जनों श्री हनुमंत जी जीव को प्रभु से जोड़ने की भावना व उसके आध्यात्मिक, शारीरिक व मानसिक कष्ट निवृत करने के लिए और क्या−क्या करते हैं। विस्तार सहित अगले अंक में जानेंगे...क्रमशः...
-सुखी भारती
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