Gyan Ganga: भगवान राम और सुग्रीव के बारे में आखिर क्या सोच रहे थे हनुमानजी

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सुखी भारती । Nov 21 2023 3:02PM

आश्चर्य है, कि श्रीहनुमान जी थे तो सुग्रीव के दास। यह वही सुग्रीव है, जो कि बालि से भयग्रस्त है। अपनी पत्नि के मोह में पागल है। राज छिन जाने का भी उसे दुख है। यह समस्त अवगुण होने पर भी, श्रीहनुमान जी सुग्रीव की सेवा में लगे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरित मानस के रूप में, समाज को अमृत का एक सागर दे रहे हैं। जिसमें आप जितने गोते लगा सकते हो, आपको लगा लेने चाहिए। इस पावन ग्रंथ में अनेक मोती माणिक्य व बहुमूल्य रत्न हैं। हालाँकि एक वर्ग के लिए यह काला अक्षर भैंस बराबर भी हो सकता है। लेकिन वे भी अगर श्रीरामाचरित मानस को थोड़ा बहुत भी पढ़ लेंगे, तो कुछ न कुछ तो उन्हें भी, निश्चित ही, प्राप्त हो ही जाना है। कुछ न कुछ ही क्यों, उन्हें इतना प्राप्त हो जाना है, कि इतना तो वे सात पुष्तों तक भी प्राप्त न कर पायें। जैसे जौहरी की दुकान का कूड़ा भी अगर कोई रोज़ साफ करे, तो उस कूड़े में भी लाखों की संभावनायें छुपी होती हैं।

गोस्वामी जी बालकाण्ड के आरम्भ में जो संतों की महिमा में चौपाईयां लिख रहे हैं, उसमें अब वे संतों द्वारा की जाने वाली सतसंग की महिमा का वर्णन कर रहे हैं।

सतसंग विषय को लेकर गोस्वामी जी इतने उच्च भाव से सकारात्मक हैं, कि वे तो यहाँ तक कह रहे हैं, कि अगर आकाश, धरा अथवा जल में, जहाँ कहीं भी, किसी भी जीव ने उन्नितयां की हैं, तो वे सब सतसंग के प्रभाव का ही फल है-

‘जलचर थलचर नभचर नाना।

जे जड़ चेतन जीव जहाना।।

मति कीरति गति भूति भलाई।

जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।।

सो जानब सतसंग प्रभाऊ।

लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।’

अर्थात कहीं भी, किसी भी जीव ने, जिस भी समय में और जिस भी यत्न से अगर बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति और भलाई पाई है, सो सब सतसंग के ही प्रभाव से पाई समझना चाहिए। वेदों में लोक में इनकी प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय नहीं है।

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गोस्वामी जी ने सर्वप्रथम जिस प्राप्ति का वर्णन किया है, वह है ‘बुद्धि’। श्रीहनुमान जी को बहुत बुद्धिमान माना जाता है। निश्चित ही वे सदा ही सतसंग में रत रहते हैं। लेकिन रावण भी अपने आप को कम बुद्धिमान नहीं आंकता। कारण कि जब वह भगवान शंकर की तपस्या कर रहा है, तो यही वरदान माँगता है- ‘हे शम्भू आप मुझे अमरता का वरदान दें।’ लेकिन भगवान शंकर ने कहा, कि अमरत्व का वरदान तो किसी को भी नहीं मिल सकता। क्योंकि जो जीव संसार में आया है, उसे एक न एक दिन अपना सरीर छोड़ कर जाना ही पड़ता है।

तब रावण ने बहुत बुद्धि लड़ाई और अपने मतानुसार अमरत्व के वरदान का रास्ता ढूंढ़ ही लिया। रावण भगवान शंकर से बोला- ‘हे प्रभु! अगर आपने मुझे अमरता का वरदान नहीं देना, तो इतना वरदान तो दीजिए ही, कि मुझे वानर और मनुष्य को छोड़ कर कोई भी न मार पाये।’ अब यहाँ रावण ने अपने आप में तो वही वरदान माँगा, जिससे कि वह स्वाभाविक ही अमरत्व को प्राप्त हो। क्योंकि वानरों और मनुष्यों को तो वह अपना भोजन ही मानता था। उसने सोचा, कि इन्हें तो हम खेल खेल में, यूँ ही पकड़ कर खा लिया करते हैं, तो वे भला मेरे लिए क्या खतरा होंगे?

निश्चित ही हम देखेंगे, कि रावण की बुद्धि उसे सदमार्ग की ओर थोड़ी न लेकर गई। अंततः तो उसका पतन ही हुआ। लेकिन वास्तविक बुद्धिमान तो हमारे श्रीहनुमान जी निकले। जब वे श्रीराम जी से प्रथम भेंट करने उपस्थित हुए, तो वे ब्राह्मण का रुप धारण करके गए थे। वे प्रभु से उच्च कोटि की संस्कृत में वार्ता कर रहे हैं। ताकि प्रभु को लगे, कि मैं सचमुच एक ब्राह्मण ही हूँ।

आश्चर्य है, कि श्रीहनुमान जी थे तो सुग्रीव के दास। यह वही सुग्रीव है, जो कि बालि से भयग्रस्त है। अपनी पत्नी के मोह में पागल है। राज छिन जाने का भी उसे दुख है। यह समस्त अवगुण होने पर भी, श्रीहनुमान जी सुग्रीव की सेवा में लगे हैं। वहाँ कभी उन्होंने अपना वानर रुप नहीं छुपाया। वहाँ वे जैसे हैं, वैसे ही हैं। लेकिन श्रीरघुनाथ जी, जिनके समक्ष तो कभी नकली रूप अपनाना ही नहीं चाहिए, वे आज उन्हीं श्रीनारायण के समक्ष झूठे रूप में जा पहुँचे। एक लंबी वार्ता के पश्चात, जब प्रभु ने अपना वास्तविक परिचय प्रगट किया, तो प्रभु श्रीराम बोले, ‘हे हनुमान आप बातें तो बड़े ज्ञानी ब्राह्मण जैसी कर रहे थे। लेकिन आपने हमें पहचाना क्यों नहीं?’

यहाँ श्रीहनुमान जी भी अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। वे सोचते हैं, कि प्रभु मुझे उलाहना दे रहे हैं, कि मैंने उन्हें नहीं पहचाना। अगर यही मेरा दोष है, तो यही दोष तो श्रीरघुनाथ जी का भी तो है। मैं तो चलो माया मे फंसा जीव था। लेकिन आप तो मायापति थे न? कम से कम आप ही मुझे पहचान लेते। निश्चित ही यह मेरे हृदय की कुटिलता है कि मैं आपके समक्ष महाज्ञानी बनने का स्वाँग करता रहा। मैं आपको छोड़कर सुग्रीव जैसे मोही व्यक्ति का दास बना बैठा हूँ, तो क्या मैं भी मोही नहीं हुआ? आपके होते हुए भी मैं यहाँ वनों में भटक रहा हूँ, यह मेरे मंद बुद्धि होने का प्रमाण नहीं तो और क्या है? मुझमें इतने रोग होने पर भी आप मुझसे अब तक दूर रहे। क्या ऐसे रोगी पुत्र को कोई पिता, ऐसे भूला रहता है? मैं मायाधीन था, समझ आता है। लेकिन आप तो ब्रह्म थे न? आप भला हमें क्यों भूल गए? हमें देखते ही आपने क्यों नहीं पहचाना? क्या यह दुख की बात नहीं है?

यहाँ श्रीहनुमान जी ने सारा दोष प्रभु पर ही मढ़ दिया और एक प्यारा-सा संवाद निर्मित कर दिया। प्रभु को श्रीहनुमान जी की यह चतुरता भा गई और उन्होंने श्रीहुनमान जी को हृदय से लगा लिआ। यहाँ विचार कीजिए कि रावण ने बुद्धि का प्रयोग किया और प्रभु से दूर हो गया, लेकिन श्रीहनुमान जी ने बुद्धि का प्रयोग किया, तो प्रभु ने उन्हें अपनी छाती से लगा लिया। इसलिए बुद्धि तो श्रीहनुमान जी की ही मानी जायेगी, क्योंकि उनकी बुद्धि, वास्तव मे सुबुद्धि है। दूसरी और रावण की बुद्धि तो बस मूर्खता ही है। जिसे हम कुबुद्धि कहते हैं। आगे गोस्वामी जी ‘कीर्ति’ शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं, कि सतसंग से कीर्ति मिलती है। इस विषय पर हम अगले अंक में चर्चा करेंगे। (क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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