Gyan Ganga: भगवान शंकर की समाधि को भंग करने में कामदेव किस दुविधा में फंसे हुए थे?

Lord Shankar
ANI
सुखी भारती । Dec 27 2024 11:56AM

संसार में अधिकतर लोग ऐसी ही मानसिक पीड़ा से पीड़ित रहते हैं। सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग। वे कितने ही कार्य, केवल इस लिए नहीं करते, कि उन्हें वह कार्य करने चाहिए थे। बल्कि इसलिए करते हैं, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे, तो लोग क्या कहेंगे?

हमने विगत अंक में भी देखा, कि कामदेव जैसे ही भगवान शंकर के बिल्कुल समीप पहुँचता है, वह भयभीत हो जाता है। उसकी समस्त कलायें धरी की धरी रह जाती हैं। वह सोचता है, कि भगवान शंकर की समाधि भंग तो होने से रही। हाँ! हतना अवश्य है, कि मेरे प्राणों की समाधि निश्चित ही हो जायेगी। कारण कि जिस योगी की समाधि इतनी गहन व विराट हो, उसे संसार में मुझ जैसे करोड़ों कामदेव मिल कर भी पराजित नहीं कर सकते। तब कामदेव ने सोचा, कि अगर वापिस लौटता हूं, तो मुझे लज्जा आती है। क्योंकि सभी देवता मेरा उपहास करेंगे। और कहेंगे कि वाह कामदेव! उतर गया परउपकार का नशा? पहले तो ऐसे डींगे मार रहे थे, कि अभी भोले नाथ को कानों से पकड़ कर हमारे समक्ष ला खड़ा करोगे। उनके पास क्या गये, सारी हेंकड़ी ही निकल गई? न बाबा न! मुझे इस प्रकार जग हँसाई नहीं करवानी है-

‘फिरत लाज कछु करि नहिं।

मरनु ठानि मन रचेसि उपाई।।’

निश्चित ही कामदेव बड़ी दुविधा में फँस कर रह गया है। इस समय उसके मन में पर उपकार की भावना दूर मन के किसी कोने में सुस्ताने चली गई है। अब है, तो केवल उसकी अपने सम्मान की बात पर सुई अटकी पड़ी है। अर्थात मैं पीछे हटुँगा तो लोग क्या कहेंगे? मेरी जग हँसाई होगी। मैं कहाँ कहाँ मुँह छुपाता फिरुँगा। 

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संसार में अधिकतर लोग ऐसी ही मानसिक पीड़ा से पीड़ित रहते हैं। सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग। वे कितने ही कार्य, केवल इस लिए नहीं करते, कि उन्हें वह कार्य करने चाहिए थे। बल्कि इसलिए करते हैं, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे, तो लोग क्या कहेंगे? रावण भी तो इसीलिए ही श्रीराम जी के समक्ष झुक नहीं पाया। जबकि उसे भी यह ज्ञान था, कि श्रीराम जी मात्र एक साधारण मनुष्य नहीं हैं। लेकिन रावण स्वयं से ही भागता रहा। जब श्रीराम जी ने खर और दूषण का वध किया, तो रावण के मन में सबसे पहले यही भाव प्रस्फुटित हुए थे, कि खर दूषण तो मेरे समान ही बलवान थे। उन्हें भगवान के सिवा भला कौन मार सकता है-

‘खर दूषन मोहि सम बलवंता।

तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।।

सुर रंजन भंजन महि भारा।

जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।।

तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ।

प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ।।’

इसका अर्थ यह हुआ, कि ईश्वर का अवतार हो चुका है। लेकिन दूसरे ही पल उसके मन ने उसे झंकझोरा। ‘अरे पागल! तू ऐसा मूढ़ कैसे हो सकता है? अरे तुमसे बड़ा भगवान भला इस संपूर्ण जगत में कौन हो सकता है? एक चींटी भी हाथी को मार दिया करती है। तो इसका अर्थ यह तो नहीं, कि वह भगवान हो गई। जगत में ऐसी न विश्वास करने योग्य कुछ छटनायें कभी कभार हो जाती हैं। जो कि आज खर दूषण के संबंध में भी हो गईं।’

रावण ने जब मन की यह बात सुनी, तो उसने निर्णय किया, कि मैं पहले उन दोनों वनवासियों से युद्ध करुँगा। अगर वे साधारण राजपुत्र हुए, तो मैं उन दोनों को रण मैं जीत कर, उनकी पत्नि को हर लूँगा। और अगर वे सचमुच भगवान हुए, तो निश्चित ही मेरे इस दुस्साहस के कारण मुझे मुत्यु दण्ड मिलेगा, और मैं मोक्ष को प्राप्त होउँगा-

‘जौं नररुप भूपसुत कोऊ।

हरिहउँ नारि जीति रन दोउर्।।’

रावण को यह भय था, कि अगर मैं ऐसे ही श्रीराम जी के चरणों में गिर गया, और बाद में पता चला, कि वे कोई अवतार नहीं, बल्कि एक साधारण राजा के पुत्र हैं, तो मेरी जग हँसाई होगी। इस उधेड़बुन में रावणर कोई सही निर्णय कर ही नहीं कर पाया।

कामदेव भी लोकलाज के चक्कर में फँस यही निर्णय करता है, मैं पीछे नहीं हटुँगा, भगवान शंकर की समाधि भंग करने का प्रयास करुँगा ही करुँगा। भले ही इसमें मेरे प्राण ही क्यों न जा रहे हों। (क्रमशः)

- सुखी भारती

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