Gyan Ganga: माता अदिति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें क्या वरदान दिया
बलि ने कहा- हे ब्राह्मण कुमार आपके पाँव पखारने से मेरे सारे पाप धूल गए, मेरा त्रिकाल वंश पवित्र हो गया। सम्पूर्ण पृथ्वी कृत्य कृत्य हो गई। अब आप को मुझसे जो चाहिए माँग लीजिए। हाथी, घोडा, सोना, चाँदी, राज-पाठ आज्ञा करें प्रभु क्या दूँ।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में फिर से डुबकी लगाएँ।
पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि, अपने पुत्रों को इधर-उधर भटकते हुए और दैत्यों को स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान देखकर देवताओं की माता अदिति को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होने अपने पति कश्यप की आज्ञा के अनुसार भगवान की स्तुति करते हुए कहा--- हे प्रभों ! आप सभी यज्ञों के स्वामी हैं और आप ही स्वयं यज्ञ भी हैं। आपके चरण कमलों का आश्रय लेकर लोग इस संसार सागर को पार कर जाते हैं। आपका कीर्तन भी भवसागर से पार लगा देता है। जो आपकी शरण में आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। हे भगवन ! आप दीनों के स्वामी हैं, आप हमारा और हमारे पुत्रों का कल्याण कीजिए।
आइए ! आगे की कथा में चलते हैं।
शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! अदिति की स्तुति सुनकर कमलनयन भगवान प्रकट होकर बोले- हे देव जननी ! मैं तुम्हारी चीर कालीन इच्छा जानता हूँ। राक्षसों ने तुम्हारे पुत्र देवताओ को स्वर्ग से खदेड़कर स्वर्ग पर आधिपत्य जमा लिया है। इस समय दैव उनके अनुकूल हैं उनको परास्त करना मुश्किल है, किन्तु मैं तुम्हारे पयोव्रत अनुष्ठान से प्रसन्न हूँ। अत; मैं अंश रूप से महर्षि कश्यप के वीर्य मे प्रवेश करूँगा और तुम्हारे पुत्र के रूप मे अवतार लेकर तुम्हारे पुत्रो की रक्षा करूँगा। इस प्रकार आशीर्वाद देकर प्रभु अंतर्ध्यान हो गए। शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा- समय पूर्ण होने पर अदिति मैया के गर्भ से वामन भगवान का प्राकट्य हुआ।
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बोलिए वामन भगवान की जय---
उसी समय राक्षसों के राजा बलि अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। वामन भगवान ने भी यज्ञ शाला देखने की इच्छा से वहाँ के लिए प्रस्थान किया।
श्रुत्वाश्वमेघै: यजमानमुर्जितम बलिम भृगुणामुपकल्पितैस्तत:
जगाम तत्राखिलसार संभृतो भारेण गां सन्नमयन्पदेपदे ॥
जैसे ही उन्होने यज्ञ शाला में प्रवेश किया, यज्ञ करने वाले भृगु वंशी ब्राह्मण सबके सब नि;स्तेज हो गए मानो साक्षात सूर्य का अवतरण हुआ। हथ में छत्र-दंड और कमंडलु कमर में मूँज की मेखला गले में यज्ञोपवीत बगल में मृगचर्म और सिर पर जटा इतने सुंदर बौने ब्राह्मण को देखकर दैत्य राज बलि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने उत्तम आसन दिया, चरण पखारकर पुष्प, चावल, चन्दन से पूजन किया और विनम्र भाव से पूछा- कहिए ब्राह्मण देव ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?
स्वागतं ते नमस्तुभ्यम् ब्रह्मन् किं करवाम ते।
ब्रह्मर्षिणां तप: साक्षात मन्ये त्वार्य वपुर्धरम ॥
बलि ने कहा- हे ब्राह्मण कुमार आपके पाँव पखारने से मेरे सारे पाप धूल गए, मेरा त्रिकाल वंश पवित्र हो गया। सम्पूर्ण पृथ्वी कृत्य कृत्य हो गई। अब आप को मुझसे जो चाहिए माँग लीजिए। हाथी, घोडा, सोना, चाँदी, राज-पाठ आज्ञा करें प्रभु क्या दूँ। (दान देने का अहंकार) वामन भगवान ने कहा- दैत्येंद्र ! आप मुंह मांगी वस्तु देने वालों में सर्व श्रेष्ठ हैं यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ फिर भी अपनी अवश्यकता के हिसाब से अपने पैरों से तीन पग भूमि मांगता हूँ।
पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र संमितानि पदा मम।।
राजा बलि ने कहा- ब्राह्मण बटुक ! आप बातें तो बूढ़ों की तरह करते हैं किन्तु तुम्हारी बुद्धि अभी भी बच्चो की तरह है। खैर अभी तुम बालक हो इसलिए अपना हानि-लाभ नहीं समझते। अरे ! मैं त्रिभुवन पति हूँ। द्वीप का द्वीप दे सकता हूँ और आप केवल तीन पग धरती माँग रहे हैं। यह कहाँ की समझदारी है। अरे !
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ब्रह्मचारी जी ! एक बार जो मेरे पास माँगने आ गया उसे फिर किसी से माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। भगवान वामन ने कहा- दान देने वालों में शिरोमणि बलि महाराज ! असंतोषी ब्राह्मण का तेज वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे कि जल से अग्नि। इसलिए मैं तीन पग ही माँगता हूँ। इतने से ही मेरा काम चल जाएगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिए जितने की जरूरत हो। संतोष; परमं सुखम। बलि ने हँसते हुए कहा- ठीक है मेरा काम आपको समझने का था, आगे आपकी मर्जी। बलि ने तीन पग भूमि देने के लिए संकल्प हेतु जल-पात्र उठाया। राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य अपनी योग-विद्या से सब कुछ जानते थे। उन्होने तुरंत बलि को रोका—
एष वैरोचने साक्षाद् भगवान्विष्णुरव्यय:
कश्यपाददितेर्जातो देवानां कार्यसाधक:।।
हे विरोचन पुत्र बलि ! रुक जाओ संकल्प मत करो। इस ब्राह्मण बटुक को साधारण मत समझो। यह साक्षात विष्णु का अवतार है। ये तुमसे सब कुछ छल करके ले लेंगे और देवराज इन्द्र को दे देंगे। अपने तीन पग से ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड को माप लेंगे और तुम देखते ही रह जाओगे इसलिए ऐसी मूर्खता मत करो। इस ब्राह्मण को मना कर दो। ऐसा मत सोचो कि मना कर देने से लोक में तुम्हारी निंदा होगी। क्योंकि–
स्त्रीषु नर्म विवाहे च वृत्यर्थे प्राण संकटे
गोब्राह्मण हिंसायाम् नानृतम् स्यात जुगुप्सितम ॥
स्त्रियों को प्रसन्न करने के लिए, हास-परिहास में, विवाह शादी में कन्या आदि की प्रशंसा करते समय, अपनी जीविका की रक्षा के लिये, प्राण संकट उपस्थित होने पर, गाय ब्राह्मण की रक्षा तथा सज्जन-साधु को मृत्यु से बचाने के लिये असत्य का सहारा लेना भी निन्दनीय नहीं होता है।
राजा बलि ने कहा- गुरुदेव! मैं प्रह्लाद जी का पौत्र हूँ। एक बार देने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ अत: देकर ही रहूँगा। कृपया मुझे मत रोकिए। इस प्रकार गुरु-शिष्य में बहुत देर तक तर्क-वितर्क हुआ। अंत में शुक्राचार्य ने क्रोध में आकर राजा बलि को शाप दे दिया। मेरी आज्ञा का उलंघन किया, जा तू श्री हीन हो जा।
क्रमश: अगले अंक में --------------
जय श्री कृष्ण -----
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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