भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम ब्राह्मणों के कुल गुरु हैं
भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। वह अपने साधकों−उपासकों तथा अधिकारी महापुरुषों को दर्शन देते हैं। इनकी साधना−उपासना से भक्तों का कल्याण होता है। पौराणिक मान्यता है कि वह आज भी महेन्द्राचल पर्वत पर तपस्यारत हैं।
भगवान परशुराम को भगवान विष्णु का पांचवां अवतार माना जाता है। मान्यता है कि भगवान परशुराम का जन्म वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को प्रदोषकाल के समय हुआ था। पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि पिता जमदग्नि और माता रेणुका ने तो अपने पांचवें पुत्र का नाम 'राम' ही रखा था, लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्न करके उनके दिव्य अस्त्र 'परशु' प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम हो गए। भगवान परशुराम भगवान विष्णु के अवतार होने के साथ ही ब्राह्मण जाति के कुल गुरु भी हैं इसलिए इनकी जयंती देशभर में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।
इसे भी पढ़ें: अन्याय का संहार कर न्याय का राज कायम करने वाले हैं 'भगवान परशुराम'
भगवान परशुराम के बाल्यकाल से जुड़ी महत्वपूर्ण घटना
भगवान परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे, पिता की आज्ञा से इन्होंने अपनी माता का सिर काट डाला था, लेकिन पुनः पिता के आशीर्वाद से इनकी माता की स्थिति यथावत हो गई। दरअसल कथाओं के अनुसार हुआ यह था कि एक बार माता रेणुका स्नान के लिए नदी किनारे गईं, संयोग से वहीं पर राजा चित्ररथ भी स्नान करने आया था, राजा चित्ररथ सुंदर और आकर्षक था। राजा को देखकर रेणुका भी आसक्त हो गईं, किंतु ऋषि जमदग्नि ने अपने योगबल से अपनी पत्नी के इस आचरण को जान लिया। उन्होंने आवेशित होकर अपने पांचों पुत्रों को अपनी मां का सिर काटने का आदेश दिया। किंतु परशुराम को छोड़कर सभी पुत्रों ने मां के स्नेह के बंधकर वध करने से इंकार कर दिया, लेकिन परशुराम ने पिता के आदेश पर अपनी मां का सिर काटकर अलग कर दिया।
क्रोधित ऋषि जमदग्नि ने आज्ञा का पालन न करने पर परशुराम को छोड़कर सभी पुत्रों को चेतनाशून्य हो जाने का शाप दे दिया, वहीं परशुराम को खुश होकर वर मांगने को कहा। तब परशुराम ने पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ वर मांगा। जिसमें उन्होंने तीन वरदान मांगे– पहला, अपनी माता को फिर से जीवन देने और माता को मृत्यु की पूरी घटना याद न रहने का वर मांगा। दूसरा, अपने चारों चेतनाशून्य भाइयों की चेतना फिर से लौटाने का वरदान मांगा। तीसरा वरदान स्वयं के लिए मांगा जिसके अनुसार उनकी किसी भी शत्रु से या युद्ध में पराजय न हो और उनको लंबी आयु प्राप्त हो।
परशुराम जी का शौर्य
श्रीजमदग्नि जी के आश्रम में एक कामधेनु गौ थी, जिसकी अलौकिक ऐश्वर्य शक्ति को देखकर कार्तवीर्यार्जुन उसे प्राप्त करने के लिए दुराग्रह करने लगा था। अंत में उसने गौ को हासिल करने के लिए बल का प्रयोग किया और उसे माहिष्मती ले आया। किंतु जब परशुराम जी को यह बात विदित हुई तो उन्होंने कार्तवीर्यार्जुन तथा उसकी सारी सेना का विनाश कर डाला। जिस पर ऋषि जमदग्नि जी ने चक्रवर्ती सम्राट के वध को ब्रह्म हत्या के समान बताते हुए परशुराम जी को तीर्थ सेवन की आज्ञा दी। वे तीर्थ यात्रा पर चले गये, वापस आने पर माता−पिता ने उन्हें आशीर्वाद दिया।
दूसरी ओर सहस्त्रार्जुन के वध से उसके पुत्रों के मन में प्रतिशोध की आग जल रही थी। एक दिन अवसर पाकर उन्होंने छद्म वेष में आश्रम आकर जमदग्नि का सिर काट डाला और उसे लेकर भाग निकले। जब परशुराम जी को यह समाचार ज्ञात हुआ तो वे अत्यन्त क्रोधावेश में आग बबूला हो उठे और पृथ्वी को क्षत्रिय हीन कर देने की प्रतिज्ञा कर ली तथा 21 बार घूम−घूमकर पृथ्वी को निःक्षत्रिय कर दिया। फिर पिता के सिर को धड़ से जोड़कर कुरुक्षेत्र में अन्त्येष्टि संस्कार किया। पितृगणों ने इन्हें आशीर्वाद दिया और उन्हीं की आज्ञा से इन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी प्रजापति कश्यपजी को दान में दे दी और महेन्द्राचल पर तपस्या करने चले गये।
अन्य संबंधित कथाएं/मान्यताएं
सीता स्वयंवर में श्रीराम द्वारा शिव−धनुष भंग किये जाने पर वह महेन्द्राचल से शीघ्रतापूर्वक जनकपुर पहुंचे, किंतु इनका तेज श्रीराम में प्रविष्ट हो गया और ये अपना वैष्णव धनु उन्हें देकर पुनः तपस्या के लिए महेन्द्राचल वापस लौट गये।
इसे भी पढ़ें: कब है परशुराम जयंती? जानें शुभ मुहूर्त, महत्व और पूजन विधि
मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम के क्रोध का सामना गणेश जी को भी करना पड़ा था। दरअसल उन्होंने परशुराम जी को शिव दर्शन से रोक दिया था। क्रोधित परशुराम जी ने उन पर परशु से प्रहार किया तो उनका एक दांत नष्ट हो गया। इसी के बाद से गणेश जी एकदंत कहलाये।
आज भी तपस्यारत हैं भगवान परशुराम
भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। वह अपने साधकों−उपासकों तथा अधिकारी महापुरुषों को दर्शन देते हैं। इनकी साधना−उपासना से भक्तों का कल्याण होता है। पौराणिक मान्यता है कि वह आज भी महेन्द्राचल पर्वत पर तपस्यारत हैं। ऋषि संतान परशुराम ने अपनी प्रभुता व श्रेष्ठवीरता की आर्य संस्कृति पर अमिट छाप छोड़ी। शैव दर्शन में उनका अद्भुत उल्लेख है जो सभी शैव सम्प्रदाय के साधकों में स्तुत्य व परम स्मरणीय है। देश में अनेक स्थानों पर भगवान जमदग्नि जी के तपस्या स्थल एवं आश्रम हैं, माता रेणुका जी के अनेक क्षत्र हैं। रेणुका माता के मंदिर के अलावा स्वतंत्र रूप से परशुराम जी के अनेक मंदिर भारत भर में हैं, जहां उनकी शांत, मनोरम तथा उग्र रूप मूर्ति के दर्शन होते हैं।
भगवान परशुराम का महत्व
परशुराम दरअसल 'राम' के रूप में सत्य के संस्करण हैं, इसलिए नैतिक-युक्ति का अवतरण हैं। भगवान परशुराम को उनके हठी स्वभाव, क्रोध और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए याद किया जाता है। उन्होंने अपने जीवन के लिए अपने ही नियम बना रखे थे। परशुराम जयंती के शुभ दिन उनके चरित्र का स्मरण और अनुसरण कर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में सफलता की ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है। भगवान शिव, परशुराम जी के गुरु हैं। वह तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरूष हैं। न्याय के पक्षधर होने के कारण भगवान परशुराम जी बाल अवस्था से ही अन्याय का निरन्तर विरोध करते रहे। उन्होंने दीन-दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की निरंतर सहायता एवं रक्षा की है।
-शुभा दुबे
अन्य न्यूज़