जानिये भगवान श्रीगणेश के पहले अवतार 'वक्रतुण्ड' से जुड़ी कथा और महत्व
पृथ्वी को अपने अधीन कर उस महापराक्रमी दैत्य ने क्रमशः पाताल और स्वर्ग पर भी चढ़ाई कर दी। शेष ने विनयपूर्वक उसके अधीन रहकर उसे कर देना स्वीकार कर लिया। वरुण, कुबेर, यम आदि समस्त देवता उससे पराजित होकर भाग गये।
भगवान श्रीगणेश का दस दिवसीय पर्व आ चुका है। इस दौरान गजानन को तमाम रूपों में पूजा जाता है। भगवान श्रीगणेश हर रूप में भक्तों के कष्ट हरते हैं और उनके हर रूप के साथ कोई ना कोई कथा जुड़ी हुई है। आइये जानते हैं भगवान श्रीगणेश के 'वक्रतुण्डावतार' के बारे में। भगवान श्रीगणेश का वक्रतुण्ड अवतार ब्रह्मरूप से सम्पूर्ण शरीरों को धारण करने वाला, मत्सरासुर का वध करने वाला तथा सिंह वाहन पर चलने वाला है। मुद्रलपुराण के अनुसार भगवान गणेश के अनेकों अवतार हैं, जिनमें आठ अवतार प्रमुख हैं। पहला अवतार भगवान वक्रतुण्ड का है। ऐसी कथा है कि देवराज इन्द्र के प्रमाद से मत्सरासुर का जन्म हुआ। उसने दैत्यगुरु शंकराचार्य से भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्री 'ओम नमः शिवाय' की दीक्षा प्राप्त कर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसे अभय होने का वरदान दिया।
वरदान प्राप्त कर जब मत्सरासुर घर लौटा तब शुक्राचार्य ने उसे दैत्यों का राजा बना दिया। दैत्य मंत्रियों ने शक्तिशाली मत्सर को विश्व विजय की सलाह दी। शक्ति और पद के मद से चूर मत्सरासुर ने अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वी के राजाओं पर आक्रमण कर दिया। कोई भी राजा महान असुर के सामने टिक नहीं सका। कुछ पराजित हो गये और कुछ प्राण बचाकर कन्दराओं में छिप गये। इस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी पर मत्सरासुर का शासन हो गया।
पृथ्वी को अपने अधीन कर उस महापराक्रमी दैत्य ने क्रमशः पाताल और स्वर्ग पर भी चढ़ाई कर दी। शेष ने विनयपूर्वक उसके अधीन रहकर उसे कर देना स्वीकार कर लिया। वरुण, कुबेर, यम आदि समस्त देवता उससे पराजित होकर भाग गये। इन्द्र भी उसके सम्मुख नहीं टिक सके। मत्सरासुर स्वर्ग का भी सम्राट हो गया।
असुरों से दुखी देवता ब्रह्मा और भगवान विष्णु को साथ लेकर कैलास पहुंचे। उन्होंने भगवान शंकर को दैत्यों के अत्याचार का सारा समाचार सुनाया। भगवान शंकर ने मत्सरासुर के इस दुष्कर्म की घोर निंदा की। यह समाचार सुनकर मत्सरासुर ने कैलास पर भी आक्रमण कर दिया। भगवान शिव से उनका घोर युद्ध हुआ। परन्तु त्रिपुरारी भगवान शिव भी उसके समक्ष नहीं ठहर सके। उसने उन्हें भी कठोर पाश में बांध लिया और कैलास का स्वामी बनकर वहीं रहने लगा। चारों तरफ दैत्यों का अत्याचार होने लगा।
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दुखी देवताओं के सामने मत्सरासुर के विनाश का कोई मार्ग नहीं बचा। वे अत्यन्त चिंतित और दुर्बल हो रहे थे। उसी समय वहां भगवान दत्तात्रेय आ पहुंचे। उन्होंने देवताओं को वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मंत्र 'गं' का उपदेश दिया। समस्त देवता भगवान वक्रतुण्ड के ध्यान के साथ एकाक्षरी मंत्र का जप करने लगे। उनकी आराधना से संतुष्ट होकर तत्काल फलदाता वक्रतुण्ड प्रकट हुए। उन्होंने देवताओं से कहा− आप लोग निश्चिंत हो जायें। मैं मत्सरासुर के गर्व को चूर चूर कर दूंगा।
भगवान वक्रतुण्ड ने अपने असंख्य गणों के साथ मत्सरासुर के नगर को चारों तरफ से घेर लिया। भयंकर युद्ध छिड़ गया। पांच दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। मत्सरासुर के सुंदर प्रिय एवं विषय प्रिय नामक दो पुत्र थे। वक्रतुण्ड के दो गणों ने उन्हें मार डाला। पुत्र वध से व्याकुल मत्सरासुर रणभूमि में उपस्थित हुआ। वहां उसने भगवान वक्रतुण्ड को तमाम अपशब्द कहे। भगवान वक्रतुण्ड ने प्रभावशाली स्वर में कहा, 'यदि तुझे प्राण प्रिय हैं तो शस्त्र रखकर मेरी शरण में आ जा− नहीं तो निश्चित मारा जायेगा।'
वक्रतुण्ड के भयानक रूप को देखकर मत्सरासुर अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसकी सारी शक्ति क्षीण हो गयी। भय के मारे वह कांपने लगा तथा विनयपूर्वक वक्रतुण्ड की स्तुति करने लगा। उसकी प्रार्थना से संतुष्ट होकर दयामय वक्रतुण्ड ने उसे अभय प्रदान करते हुए अपनी भक्ति का वरदान दिया तथा शांत जीवन बिताने के लिये पाताल जाने का आदेश दिया। मत्सरासुर से निश्चिंत होकर देवगण वक्रतुण्ड की स्तुति करने लगे। देवताओं को स्वतंत्र कर प्रभु वक्रतुण्ड ने उन्हें भी अपनी भक्ति प्रदान की।
-शुभा दुबे
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